ग़ुलामी पर दोहे
ग़ुलामी मनुष्य की स्वायत्तता
और स्वाधीनता का संक्रमण करती उसके नैसर्गिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करती है। प्रत्येक भाषा-समाज ने दासता, बंदगी, पराधीनता, महकूमी की इस स्थिति की मुख़ालफ़त की है जहाँ कविता ने प्रतिनिधि संवाद का दायित्व निभाया है।
पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥
हे मित्र! यह अच्छी तरह जान लो कि परीधीनता एक बड़ा पाप है। रैदास कहते हैं कि पराधीन व्यक्ति से कोई भी प्रेम नहीं करता है। सभी उससे घृणा करते हैं।
हौंहु कहावत सबु कहत, राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो, सेवक तुलसीदास॥
सब लोग मुझे श्री रामजी का दास कहते हैं और मैं भी बिना लज्जा-संकोच के कहलाता हूँ (कहने वालों का विरोध नहीं करता)। कृपालु श्री राम इस उपहास को सहते हैं कि श्री जानकीनाथ जी सरीखे स्वामी का तुलसीदास-सा सेवक है।
जैहै डूबी घरीक में, भारत-सुकृत-समाज।
सुदृढ़ सौर्य-बल-बीर्य कौ, रह्यौ न आज जहाज॥
जरि अपमान-अँगार तें, अजहुँ जियत ज्यौं छार।
क्यों न गर्भ तें गरि गिर्यौ, निलज नीच भू-भार॥
उत गढ़-फाटक तोरि रिपु, दीनी लूट मचाय।
इत लंपट! पट तानि तें, पर्यौ तीय उर लाय॥
हम अधीन हिन्दून कों, कहौ अब काज?
पाप-पंक धोवैं न क्यों, मिलि रोवैं सब आज॥
कत भूल्यौ निज देस, मति भई और तें और।
सहज लेत पहिचानि जब, पसु-पंछिहुँ निज ठौर॥
लियौ धारि पर-भेष अरु, पर-भाषा, पर-भाव।
तुम्हैं परायो देखि यौं, क्यों न होय हिय घाव॥