
हमारे हृदय में ज्ञान, प्रेम और कर्म का जिस मात्रा में पूर्ण मिलन होता है, उसी मात्रा में हमारे हृदय में पूर्ण आनंद रहता है।

ज्ञान, प्रेम और शक्ति—इन तीन धाराओं का जहाँ एक साथ संगम होता है, वहीं पर आनंदतीर्थ बन जाता है।

खाना और पढ़ना दो सुख हैं जो अद्भुत रूप से समान हैं।

ख़ुशी का पूरा आनंद लेने के लिए आपके पास इसे बाँटने वाला कोई होना चाहिए।

जितनी अधिक अस्पष्टता होगी, आनंद उतना ही अधिक होगा।

जो सचमुच में रूपदक्ष होते हैं, उनके आनंद की कोई सीमा नहीं रहती है, आँख, मन सभी के द्वारा वे एक रूप चिरकाल तक नए-नए रूपों में अचरज भरे भाव से देखते जाते हैं।

संसार का चमत्कार यह नहीं है कि यहाँ कष्ट और बाधाएँ हैं, बल्कि इसमें है कि यहाँ व्यवस्था, सौंदर्य, आनंद, कल्याण और प्रेम का वास है।

ज्ञान की भित्ति अगर कठोर न होती, तो वह एक बेतुका स्वप्न बन जाता और आनंद की भित्ति अगर कठोर न होती, तो वह सरासर पागलपन बन जाता।

दुनिया को झपट्टा मार कर हमला करने और आनंद लेने के लिए बनाया गया है, और पीछे हटने के लिए कोई वजह नहीं है।


शिशु का जन्म आनंद में होता है, केवल कार्य-कारण में ही नहीं।

भविष्य चाहे जितना भी सुखद हो, उस पर विश्वास न करो, भूतकाल की भी चिंता न करो, हृदय में उत्साह भरकर और ईश्वर पर विश्वास कर वर्तमान में कर्मशील रहो।

सत्, चित् और आनंद-ब्रह्म के इन तीन स्वरूपों में से काव्य और भक्तिमार्ग 'आनंद' स्वरूप को लेकर चले। विचार करने पर लोक में इस आनंद की दो अवस्थाएँ पाई जाएँगी—साधनावस्था और सिद्धावस्था।

एक ओर सत्य, दूसरी ओर आनंद, बीच में होता है मंगल, इसलिए इस मंगल के भीतर से ही हमें आनंदलोक में जाना पड़ता है।

वर्षा से दो विशेष प्रसन्न होते हैं—कवि और चोर।

आत्म-संयम अर्थात् आत्मानुशासन ही कलात्मक सौंदर्य को सुंदर एवं व्यवस्था को सुव्यवस्थित और आनंददायक बनाता है।
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अगर टॉलस्टॉय ने सारी ज़िंदगी प्रसन्नता के भीतर छिपी रहस्यमय शक्तियों की खोज में लगाई थी, तो काफ़्का प्रसन्नता का सामना भी नहीं कर पाता था—उसे भान था कि जीवन का आनंद उसे नियति की आवाज़ के प्रति बेपरवाह बना देगा।

कवि को यदि रचना की प्रक्रिया से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति नहीं हो, तो उसकी कविता से पाठकों को भी आनन्द नहीं मिलेगा। कला की सारी कृतियाँ पहले अपने-आपके लिए रची जाती हैं।

जिस प्रकार हर रंग और रेखा चित्र नहीं है, हर ध्वनि संगीत नहीं है, शरीर की हर भाव-भंगिमा नृत्य नहीं है, वस्तु की हर आकृति शिल्प नहीं है, हर शब्द साहित्य नहीं है—उसी प्रकार हर ध्वनि, हर मुद्रा, हर रंग व रेखा और हर आकृति से प्राप्त होने वाला आनन्द कला का आनन्द नहीं है।

छंद ही ऐकांतिक रूप से काव्य हो, ऐसी बात नहीं है। काव्य की मूल वस्तु है रस; छंद आनुषंगिक रूप से इसी रस का परिचय देता है।

जिस प्रकार इन्द्रियों का प्राकृतिक बोध—ज्ञान नहीं—बल्कि एक भ्रान्त प्रतीति है—उसी प्रकार इंद्रियों द्वारा अनुभूत प्रत्येक आनन्द वास्तविक और सच्चा आनन्द नहीं है।

प्राकृतिक सौंदर्य के साथ अपने हृदय को एकाकार करना, मन को संयत करके, प्रकृति की भाषा समझने का प्रयास करना, कष्टसाध्य अवश्य है, परंतु सामान्य रूप में यदि कोई यह कर सके तो उसका हृदय आनंद से ओत-प्रोत हो जाएगा।

हमारा आनंद, हमारा प्रेम, अकारण ही आत्म विसर्जन में अपने को चरितार्थ करता है।

प्रेम नित्य, आनंद, नित्य—दोनों ही भगवत्स्वरूप हैं। आनंद की भित्ति प्रेम और प्रेम का विलक्षण रूप आनंद। इस प्रेम का कोई निर्माण नहीं करता। जहाँ सर्वत्याग होता है, वहीं इसका प्राकट्य उदय हो जाता है। जहाँ त्याग, वहाँ प्रेम और जहाँ प्रेम, वहीं आनंद। भगवान् प्रेमनंदस्वरूप हैं। अतएव भगवान की यह प्रेम-लीला अनादिकाल से अनन्तकाल तक चलती ही रहती है। न इसमें विराम होता है, न कभी कमी आती है। इसका स्वभाव वर्धनशील है।

मन जो कुछ गढ़ता है वह अपनी आवश्यकता के लिए, साहित्य जो कुछ गढ़ता है सबके आनंद के लिए।
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त्याग के अतिरिक्त और कहीं वास्तविक आनंद नहीं मिल सकता, त्याग के बिना न ईश्वर-प्रेरणा हो सकती है, न प्रार्थना।

विद्वान पुरुष सर्वत्र आनंद में रहता है और सर्वत्र उसकी शोभा होती है। उसे कोई डराता नहीं है और किसी से डराने पर भी वह डरता नहीं है।

संसार में आनन्द के साधन अनेक हैं, किन्तु केवल आनन्द भोगकर, केवल खिलौनों से जी बहलाकर—मर जाना यथेष्ट नहीं है।

दिनभर के सफ़र के बाद यात्री कहीं पहुँचता है तो उसे थकान के साथ संतोष महसूस होता है।

हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो।

पढ़ने का एक उद्देश्य उस सुख या आनंद की तलाश है जो केवल साहित्य दे सकता है।

आनंद दिन पर शासन करता था और प्रेम, रात्रि पर।

जब आपके पास परम संवेदनशीलता होती है, तो प्रज्ञा के साथ-साथ प्रेम का भी प्रादुर्भाव होता है—प्रेम तब आनंद ही, प्रेम तब समयातीत है।


विचार सुख को पोषण और जीवन देता है—सुख जिसका आनंद से कोई संबंध नहीं है।

मैं केवल एक ही बात जानता हूँ—जब मैं सोता हूँ, तो न भय जानता हूँ, न दुख, न आनंद।

प्रेम से आर्द्र, उत्कृष्ट प्रेम के आश्रयभूत, परिचय के कारण प्रगाढ़ अनुराग से संपन्न एवं स्वभाव से सुंदर उस की कटाक्ष आदि चेष्टाएँ मेरे प्रति हों। इस प्रकार की आशा से परिकल्पित होने पर भी तत्काल ही नेत्र आदि बाह्य इंद्रियों के दर्शन आदि क्रियाओं को रोकने वाला और अत्यंत आनंद से प्रगाढ़ चित्त का लय (तन्मयता) हो जाता है।

भगवान् स्वयं परमानंद-स्वरूप हैं अतः जब वे मन में प्रवेश कर जाते हैं, तब वह मन पूर्ण रूप से भगवान् के आकार का होकर रसमय बन जाता है।

ऐसा क्यों है और ऐसा क्यों नहीं—इसका कारण न बताने वाली बात स्थायी रूप से आनंद नहीं दे सकती।

नश्वर संसार में अपनी दुनिया बनाकर, उसे दुबारा पाकर संतप्त, आक्रांत मन बहल जाता है।

यज्ञमय जीवन कला की पराकाष्ठा है। इसी में सच्चा रस और सच्चा आनंद है। जो यज्ञ बोझ रूप मालूम होता है, वह यज्ञ नहीं है।

संसार में आनंद ही एकमात्र सृजन करता है, सृजन की शक्ति और किसी में भी नहीं है।
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हम व्यंग्य को विरूपता, कटूक्ति विडंबना, जुगुप्सा आदि से जोड़ने के आदी हैं, पर शरद जोशी में ये गुण लगभग थे ही नहीं, तभी उनका व्यंग्य बड़ा आनंदकर, एक तरह से निरामिष व्यंग्य है।

उल्लास की अभिव्यक्ति के लिए शब्द क्षमता घट रही थी और उसका स्थान पटाख़े ले रहे थे।
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आनंद को दूसरों की आँखों से देखना कितना दुःखद है!


चाय वह चीज़ है जो जीवन के हर दैनिक मोड़ को, सिविल सर्विस परीक्षा में असफल हुए हर क्लर्क को,आधी छुट्टी में हर अध्यापक को आशिर्वाद देती है। वह सुंदर है, शिव है, सत्य है।

ओ आनंद की भावना! तुम कभी-कभी आती हो।

जिस आनंद में सभी सहभागी न हों, वह अपूर्ण है।

सक्रिय सृजनात्मक आनंद ही सच्चा आनंद है।
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