
योग्य आदमियों की कमी है। इसलिए योग्य आदमी को किसी चीज़ की कमी नहीं रहती। वह एक ओर छूटता है तो दूसरी ओर से पकड़ा जाता है।

शत्रु में दोष देखकर बुद्धिमान झट वहीं क्रोध को व्यक्त नहीं करते हैं, अपितु समय को देखकर उस ज्वाला को मन में ही समाए रखते हैं।

अज्ञान की निवृत्ति में ज्ञान ही समर्थ है, कर्म नहीं, क्योंकि उसका अज्ञान से विरोध नहीं है और अज्ञान की निवृत्ति हुए बिना राग-द्वेष का भी अभाव नहीं हो सकता।

जाति और कुल में सभी एक समान हो सकते हैं परंतु उद्योग, बुद्धि और रूप संपत्ति में सबका एक-सा होना संभव नहीं है।

मैंने कितनी ही बार सोचा है कि क्या व्यक्तियों से संबंध बनाना संभव है, जब किसी के मन में किसी के लिए भी कोई भावना न रही हो; अपने माता पिता के लिए भी नहीं। अगर किसी को कभी भी गहराई से प्यार नहीं किया गया, तो क्या उसके लिए सामूहिकता में रहना संभव है? क्या इन सबका मेरे जैसे युद्धप्रिय के ऊपर कोई प्रभाव नहीं रहा? क्या इस सबसे मैं और बंध्य नहीं हुआ? क्या इन सबसे एक क्रांतिकारी के रूप में मेरी गुणवत्ता कम नहीं हुई? मैं जिसने हर चीज़ को बौद्धिकता और शुद्ध गणित के पैमाने पर रख दिया।

सभी मनुष्य बुद्धिजीवी हैं, लेकिन सभी मनुष्य समाज में बुद्धिजीवियों का कर्म नहीं करते।

वहाँ एक नीम का लंबा-चौड़ा पेड़ था जो बहुत-से बुद्धिजीवियों की तरह दूर-दूर तक अपने हाथ-पाँव फैलाए रहने पर भी तने में खोखला था।
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कुल, धन, ज्ञान, रूप, पराक्रम, दान और तप- ये सात मुख्य रूप से मनुष्यों के अभिमान के हेतु हैं।

मस्तिष्क देख सके इसके पहले हृदय सदैव देख लेता है।

हे अर्जुन! मन को मथने वाली इंद्रियाँ प्रयत्न करने वाले ज्ञानी पुरुष के मन को भी बलात्कारपूर्वक हर लेती हैं।

विवेक-विवर्जित अतिरेक का परिणाम हमेशा अशुभ होता है।

एक रूपदक्ष को एक छवि अथवा एक कविता लिखने के समय अक्लांत भाव से अनेक शक्तियों के प्रयोग करना पड़ता है।

विद्वान पुरुष सर्वत्र आनंद में रहता है और सर्वत्र उसकी शोभा होती है। उसे कोई डराता नहीं है और किसी से डराने पर भी वह डरता नहीं है।

कर्मकाण्ड साधन है, साध्य नहीं है,...किन्तु साध्य से कम महत्त्वपूर्ण साधन नहीं होता, यह सूझ भारतीय मेधा की स्वकीय विशिष्टता है।

जैसे बुद्धिमत्ता एक वैल्यू है, वैसे ही बेवकूफ़ी भी अपने-आपमें एक वैल्यू है। बेवकूफ़ की बात चाहे तुम काट दो, चाहे मान लो, उससे उसका न कुछ बनता है, न बिगड़ता है। वह बेवकूफ़ है बेवकूफ़ रहता है।

विशेषज्ञ और पुरोधा में अंतर होता है। विशेषज्ञ अपने शोध की दमक, से एक संकरी-सी जगह को प्रकाशित करता है; विशेषज्ञता दृष्टि से ज़्यादा ज्ञान देती है, जो कई बार दृष्टि के दरिद्र लोगों के हाथ में पड़कर दुरुपयोग का शिकार हो जाती है। पुरोधा की कल्पना करने के लिए हमें ज्ञान और दृष्टि के साथ आगे चलने वाले की प्रेरक भूमिका को समझना होगा।

बुद्धि प्रारब्ध को अपना ग्रास नहीं बना सकती। प्रारब्ध ही बुद्धि को अपना ग्रास बना लेता है। प्रारब्ध से प्राप्त होने वाले अर्थों को बुद्धिमान पुरुष भी नहीं जान पाता।

प्रत्येक बुद्धिजीवी, गुटबंद होने के बावजूद, गुटबंदी का खुला इलज़ाम लगते ही तिलमिला उठता है।

हम मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक रूप से यांत्रिक हो चुके हैं।

कूपमण्डूकता को भारत के विवेक ने कभी प्रोत्साहन नहीं दिया।

इस लोक में बुद्धिमानों की बुद्धि से अगम्य कुछ भी नहीं है। देखो शस्त्रास्रधारी नंदवंशी राजाओं को चाणक्य ने बुद्धि द्वारा ही नष्ट कर दिया था।

जो दो छोरों में से एक छोर को पकड़ते हैं, वह एक एक्सट्रीम को पकड़ते हैं—चाहे संसार हो, चाहे व्यवस्था के बारे भी कोई आदमी एक एक्सट्रीम चुने। जो दो छोरों में से एक छोर को छोड़ दे और एक को पकड़े, वह एक्सट्रीमिस्ट है। बड़ा वह होता है जो दोनों में से किसी छोर को छोड़ न सके, दोनों को बाँधने की कोशिश करे।

अतः बुद्धिमान मनुष्य को, संसार में फैले हुए मोह रूपी बादल में यह रूप निश्चय ही बिजली की कौंध के समान है- ऐसा विचार करके आश्चर्यपूर्ण सौंदर्य-विलास का अभिमान नहीं करना चाहिए।