
जो लोग महापुरुष बन गए वे पागल हो सकते हैं।

प्रथम हृदय है, और फिर बुद्धि। प्रथम सिद्धांत और फिर प्रमाण। प्रथम स्फुरणा और फिर उसके अनुकूल तर्क। प्रथम कर्म और फिर बुद्धि। इसीलिए बुद्धि कर्मानुसारिणी कही गई है। मनुष्य जो भी करता है, या करना चाहता है उसका समर्थन करने के लिए प्रमाण भी ढूँढ़ निकालता है।

श्रेष्ठता की कसौटी को लेकर हमारे साहित्य में रचनाकारों और आलोचकों के दो-तीन बड़े मज़बूत और सुपरिचित खेमे हैं; इनकी मान्यताएँ और दृष्टियाँ अत्यंत सुपरिभाषित हैं और अपने को एक-दूसरे से भिन्न मानने में ही उनकी सैद्धांतिक सार्थकता समझी जाती है, पर एक मामले में दोनों खेमों के सदस्य एक जैसे हैं। वे एक ओर भावुकता-विरोध को एक स्वतः सिद्ध मूल्य मानते हैं और दूसरी ओर अकेले में वे सभी भावुक होने की अपार क्षमता दिखा सकते हैं—सब नहीं तो अधिकांश। उन्हीं अधिकांश में एक मैं भी हूँ।

महापुरुषों के निधन पर पार्कों में होनेवाली सार्वजनिक सभाएँ या बाज़ार की हड़ताल बहुत हद तक रस्म-अदायगी है। पर रस्में भी हमारी सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक जीवन का अविभाज्य अंग है और यदि यशपाल जैसे साहित्यकार के न रहने पर भी ऐसी रस्में अदा नहीं की जाति तो उससे कुछ ऐसे निष्कर्ष निकलते हैं जिनसे इस देश के साहित्यकर्मियों को साहित्य की स्थिति के विषय में यथार्थ दृष्टि मिल सकती है।
-
संबंधित विषय : अंतिम संस्कारऔर 2 अन्य

बुद्धि नहीं आएगी, बुद्धि नहीं आएगी यदि महान संतों की बात नहीं सुनोगे। बुद्धि नहीं आएगी, चाहे अनेक प्रकार की विद्या सीख लो।

पागल बने बिना कोई महान नहीं हो सकता। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रत्येक पागल व्यक्ति महान होता है।