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लॉर्ड बायरन

1788 - 1824 | लंदन

लॉर्ड बायरन की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 11

मनुष्य का अंतःकरण देववाणी है।

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हम बस इतना जानते हैं कि कुछ भी नहीं जाना जा सकता।

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अपने प्रथम भावावेश में नारी अपने प्रेमी से प्रेम करती है किंतु अन्यों में वह केवल प्रेम से प्रेम करती है।

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आलोचना को छोड़कर हर व्यवसाय सीखने में मनुष्य को अपना समय लगाना चाहिए क्योंकि आलोचक तो सब बने बनाए ही हैं।

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दुर्गम वनों में आनंद होता है और एकाकी समुद्र तट पर हर्षोन्माद। गहरे समुद्र के तट के जनशून्य स्थान में भी समाज होता है और सागर के गर्जन में संगीत। मैं मानव को कम प्रेम नहीं करता, पर प्रकृति को अधिक प्रेम करता हूँ।

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