आलोचक पर ब्लॉग
आलोचना एक साहित्यिक
विधा है जो कृतियों में अभिव्यक्त साहित्यिक अनुभूतियों का विवेकपूर्ण विवेचन उपरांत उनका मूल्यांकन करती है। कर्ता को आलोचक कहते हैं और उससे रचनाकार के प्रति, कृति के प्रति और समाज के प्रति उत्तरदायित्वों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है। नई कविता में प्रायः कवियों द्वारा आलोचकों को व्यंग्य और नाराज़गी में घसीटा गया है।
संतृप्त मनोवेगों का संसार
‘आश्चर्यवत्’ सौ से भी कम पृष्ठों का निर्भार संग्रह है, लेकिन माथे पर थाप दी गई आचार्य वागीश शुक्ल की दस पृष्ठों की भूमिका से कुछ उलार-सा लगता है। इस तरह इसे आप ‘आचार्यवत्’ भी कह सकते हैं। आचार्य ने कल
आशीष मिश्र
दिल्ली एक हृदयविदारक नगर है
‘कविता का जीवन’ असद ज़ैदी का दूसरा कविता-संग्रह है। पहला सात वर्ष हुए ‘बहनें और अन्य कविताएँ’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इसमें 48 कविताएँ थीं। ‘कविता का जीवन’ किंचित छोटा, परंतु अधिक संगठित संग्रह है।
रघुवीर सहाय
पुरानी उदासियों का पुकारू नाम
एक साहित्यिक मित्र ने अनौपचारिक बातचीत में पूछा कि आप महेश वर्मा के बारे में क्या सोचते हैं? मेरे लिए महेश वर्मा के काव्य-प्रभाव को साफ़-साफ़ बता पाना कठिन था, लेकिन जो चुप लगा जाए वह समीक्षक क्या! मैंन
आशीष मिश्र
गांधीजी और उनकी वसीयत
उत्तराधिकार के लिए सबसे बड़ा युद्ध भारतीय इतिहास में मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के बेटों में बताया जाता है। पूरा बयान तो नहीं मिलता, लेकिन इतना पता ज़रूर चलता है कि शाहजहाँ अपने बड़े और विद्वान पुत्र दारा क
नामवर सिंह
अ-भाव का भाव—‘अर्थात्’
मैंने अमिताभ चौधरी को नहीं देखा है। लेकिन उनकी कविताओं से ऐसा चित्र उभरता है कि कोई जनसंकुल बस्ती से दूर निर्जन अँधेरे बीहड़ में दिशाहीन चला जा रहा है। इस अछोर अँधेरे से आतीं बेचैन प्रतिध्वनियों का हॉर
आशीष मिश्र
अथ ‘स्ट्रेचर’ कथा
यह सच है कि मानवीय संबंधों की दुनिया इतनी विस्तृत है कि उस महासमुद्र में जब भी कोई ग़ोता लगाएगा उसे हर बार कुछ नया प्राप्त होने की संभावना क़ायम रहती है। बावजूद इसके एक लेखक के लिए इन्हें विश्लेषित या व
प्रभात प्रणीत
लोक के जीवन का मर्म
यह सड़क जो आगे जा रही है—इसी पर कुछ आगे, बाएँ हाथ एक ठरकरारी पड़ेगी, उसी पर नीचे उतर जाना है। सड़क आगे, शहर तक जाती है, उससे भी आगे महानगर तक जाएगी, जहाँ आसमान में धँसी बड़ी-बड़ी इमारतें, भागते अकबकाए हुए-
आशीष मिश्र
आदिवासी अंचल की खोज
आज यह सोचकर विस्मय होता है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं। आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इं
आशीष मिश्र
‘प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है’
इस सृष्टि में किसी के प्रेम में होना मनुष्य की सबसे बड़ी नेमत है। उसके सपनों के जीवित बचे रहने की एक उम्मीद भरी संभावना। मोमिन का एक मशहूर शे’र है : तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नहीं होत
दया शंकर शरण
पंक्ति प्रकाशन की चार पुस्तकों का अंधकार
‘कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा’ मंगलेश डबराल की इस पंक्ति के साथ यह भी कहना इन दिनों ज़रूरी है कि प्रकाशकों में भी बचा रहे थोड़ा धैर्य―बनी रहे थोड़ी शर्म। कविता और लेखक के होने के बहुतायत में प्र
पंकज प्रखर
'रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं'
आदिम युग से ही कृति के साथ कर्ता भी हमेशा ही कौतूहल का विषय बना रहा है। जो हमसे भिन्नतर है, वह ऐसा क्यों है, इसकी जिज्ञासा आगे भी बनी ही रहेगी। इन्हीं जिज्ञासाओं में एक जिज्ञासा का लगभग शमन करते हुए क
प्रज्वल चतुर्वेदी
गणितीय दर्शन और स्पेस-टाइम फ़ैब्रिक पर रची अज्ञात के भीतर हाथ फेरती कविताएँ
...कहाँ से निकलती हैं कविताएँ? उनका उद्गम स्थल कहाँ-कहाँ पाया जा सकता है? आदर्श भूषण के यहाँ कविताएँ टीसों के भंगार से, विस्मृतियों की ओंघाई गति से, एक नन्हीं फुदगुदी की देख से, पूँजीवाद की दुर्गंध से
प्रतिभा किरण
पूर्णता की तलाश की कविता
स्वप्नान्नं जागरितांत चोभौ येनानुपश्यति। महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। — बृहदारण्यक उपनिषद् (धीर पुरुष उस 'महान्' विभु-व्यापी 'परमात्मा' को जानकर जिसके द्वारा व्यक्ति स्वप्न तथा ज
कुमार मंगलम
कुँवर नारायण की कविता और मुक्तिबोध की आलोचना-दृष्टि
मौजूदा समय के संकटों और चिंताओं के बीच जब हमें मुक्तिबोध याद आते हैं, तो न केवल उनकी कविताएँ और कहानियाँ हमें याद आती हैं, बल्कि उनका समीक्षक रूप भी शिद्दत से हमें याद आता है। मुक्तिबोध ने अपने आलोचना
सुशील सुमन
दुस्साहस का काव्यफल
व्यक्ति जगद्ज्ञान के बिना आत्मज्ञान भी नहीं पा सकता। अगर उसका जगद्ज्ञान खंडित और असंगत है तो उसका अंतर्संसार द्विधाग्रस्त और आत्मपहचान खंडित होगा। आधुनिक युग की क्रियाशील ताक़तें मनुष्य के जगद्ज्ञान को
आशीष मिश्र
प्रतिरोध का स्वर और अस्वीकार का साहस
जब नाथूराम का नाम लेते ज़ुबान ने हकलाना छोड़ दिया हो जब नेहरू को गालियाँ दी जा रही हों एक फ़ैशन की तरह और जब गांधी की हत्या को वध कहा जा रहा हो तब राजेश कमल तुम्हें किसी ने जाहिल ही कह
अस्मुरारी नंदन मिश्र
गद्य की स्वरलिपि का संधान
हिंदी के काव्य-पाठ को लेकर आम राय शायद यह है कि वह काफ़ी लद्धड़ होता है जो वह है; वह निष्प्रभ होता है, जो वह है, और वह किसी काव्य-परंपरा की आख़िरी साँस गोया दम-ए-रुख़सत की निरुपायता होता है। आख़िरी बा