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शशिभूषण द्विवेदी के नाम : बारह कथाकारों, दो कवियों और एक आलोचक के पत्र

आज शशिभूषण द्विवेदी [26 जुलाई 1975—7 मई 2020] की जन्मतिथि है। वह आज सदेह होते, तब आज उनका पचासवाँ वर्ष लग जाता। एक रचनाकार रचना के लिए एक कंदरा का निर्माण करता है। इस कंदरा में वह संसार से थक-भागकर छुपता है। यह कंदरा जितनी अँधेरी, गहन और जटिल आयामों वाली होगी; रचना में उतना ही स्वप्न-विस्तार, उतनी ही वैचारिक वेदना, उतना ही तनाव होगा। संसार का और संसारातीत सारा उरविदारक कुहराम इस कंदरा के भीतर होता है। दिमाग़ की नसें छलनी कर देने वाला यह कुहराम बार-बार रचनाकार को कंदरा से बाहर धकेलता है। इसलिए कभी-कभी रचनाकार इस कंदरा में जाने से डरता है। वह संसार में रहकर संसार के लिए लिखने लगता है। इस प्रकार साधारण बहुत साधारण साहित्य संभव होता है—संसार में रहकर, संसार के लिए लिखा गया। इस द्वंद्व की समझ रचनाकार को मार देती है और इससे दूरी उसे जीवित रखती है। शशिभूषण द्विवेदी में इस द्वंद्व की समझ थी, इसलिए उन्होंने कई कहानियाँ केवल अपने दिमाग़ में ही लिखीं, बाहर नहीं। उन्हें मिलावट बिल्कुल भी पसंद नहीं थी—न रचना में, न शराब में; जबकि मिलावट एक विशाल सत्य है : इस ब्रह्मांड का। 

बहरहाल, आज इस अवसर पर हम यहाँ शशिभूषण द्विवेदी के नाम लिखे गए बारह कथाकारों, दो कवियों और एक आलोचक के पत्र प्रस्तुत कर रहे हैं। इनकी कुल संख्या सत्रह है। इनमें से दो नाम कथाकार होने के साथ-साथ कवि और कवि होने के साथ-साथ कथाकार रहे हैं, लेकिन यहाँ उन्हें कथाकार के तौर पर रखा गया है। उन पत्रों जिनमें तारीख़ और स्थान का उल्लेख है, पत्र के अंत में दर्ज कर दिया गया है। ये पत्र हमें शशिभूषण द्विवेदी की जीवनसंगिनी नीलम द्विवेदी के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं। हम उनके आभारी हैं। इन पत्रों में परस्पर पोस्टकार्ड लिखने वाली इस संसार की अंतिम पीढ़ी और हिंदी-कथा-साहित्य के आसन्न अतीत को पाया जा सकता है।

अविनाश मिश्र   

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शिवमूर्ति का एक पत्र

प्रिय भाई,

आपका पत्र मिला। पढ़ कर प्रसन्नता हुई। वास्तव में बहुत दिनों से आपका कुछ अता-पता नहीं था। मैं सोचता था, रामनगर या कहीं अन्यत्र तराई में होंगे। नोएडा में रहना कई कारणों से आपके लिए अच्छा रहेगा। कभी लखनऊ आना हो तो फ़ोन करिएगा। संभव है मुलाक़ात हो जाए। दिल्ली आना हुआ तो फ़ोन करूँगा।

इधर नया कुछ क्या लिखना-पढ़ना हो रहा है, बताइएगा।

शेष कुशल है।

आपका
शिवमूर्ति

लखनऊ, उत्तर प्रदेश 
29 नवंबर 2003

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ओमप्रकाश वाल्मीकि के दो पत्र

प्रिय भाई शशि,

आपका पत्र और पत्रिका दोनों मिले। उत्तर थोड़ा विलंब से दे रहा हूँ। अन्यथा न लेंगे। अंक अच्छा निकला है, बधाई! मेरे लेख पर जो प्रतिक्रियाएँ आई हैं उन्हें भेज दें, यदि कुछ उत्तर देने लायक़ होगा तो मैं ज़रूर दूँगा। मुझे उन प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी। अंक एक साथी ले गए और शायद अब लौटाएँगे भी नहीं। इसलिए एक-दो प्रति भेज सकें तो आभारी रहूँगा।

‘पहल’-समारोह में जाना संभव नहीं हुआ। कारण कई थे। फिर कभी। फ़िलहाल इतना ही कि साहित्य में विचार के पक्षधर ही जब विचार की अनदेखी करके आपसी संबंधों को ज़्यादा तरजीह देने लगें तो घुटन महसूस होती है।

‘घुसपैठिये’ कहानी पर जबलपुर में एक उत्तेजक बहस हुई, लेकिन उसमें न ज्ञानरंजन आए न राजेंद्र दानी। शायद उनके अपने कुछ बंधन हों, फिर भी ‘घुसपैठिये’ कहानी के माध्यम से यहाँ एक बहस शुरू तो हुई, वरना इस जड़ शहर में संस्कृति के नाम पर हर एक नुक्कड़ पर मंदिर ही मंदिर हैं।

शेष फिर कभी!

सानंद होंगे...

आपका 
ओमप्रकाश वाल्मीकि

जबलपुर, मध्य प्रदेश
11 जुलाई 2000



प्रिय भाई,

‘शिल्पहीन’ के लिए बधाई। पुरस्कृत होने के लिए भी बधाई।

‘कहानी’ प्रभावशाली है। कहानी में विशेष तौर पर जो बात आकर्षित करती है, वह है भाषा का प्रवाह। कथ्य तो है ही, जो वर्तमान के धार्मिक कट्टरपन के पीछे छिपी मानसिकता को पूरी शिद्दत से उघाड़ता है। बधाई! हार्दिक शुभकामनाएँ भी।

सानंद होंगे।

आपका
ओमप्रकाश वाल्मीकि

देहरादून, उत्तराखंड
16 जून 2004

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प्रियंवद का एक पत्र

प्रिय शशिभूषण जी,

आपका पत्र प्राप्त हुआ। आपने मुझे अपने शताब्दी विशेषांक के लिए स्मरण किया, इसके लिए मैं आभारी हूँ। मेरी विवशता है कि फ़िलहाल मेरे पास कोई कथा-रचना नहीं है, जिसे देकर मैं अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर लेता। मैंने लगभग एक वर्ष से कहानी नहीं लिखी। यह अकर्मण्यता मेरा सबसे बड़ा दोष है, जिसकी वजह से मैं शर्मिंदा होता हूँ। मैं प्रयास करूँगा कि यदि कोई कथा बनी तो आपको अवश्य दूँगा। 

अंक के लिए शुभकामनाओं सहित,

आपका 
प्रियंवद

कानपुर, उत्तर प्रदेश  
1 दिसंबर 1999

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अवधेश प्रीत का एक पत्र

प्रिय भाई,

तुम्हारा 11 मार्च 2003 का पत्र। धन्यवाद! तुम याद कर लेते हो, तो मन जुड़ा जाता है। ‘अमर उजाला’ में तुम आ गए हो। (वीरेन) डंगवाल जी के साथ काम करने का आनंद ले रहे हो। अच्छी बात है। हालात हर जगह कमोबेश एक ही जैसे हैं। काम में आनंद लो, लेकिन अपनी रचनात्मक सक्रियता को बचाए रखो। अब कोई अख़बार बड़ा या छोटा नहीं रह गया है। सभी जगह Contract आ गया है। जहाँ, पैसे और पोज़ीशन मिले। चले जाओ। यह नौकरी की अनिवार्यता है। यहाँ भी कार्य-व्यस्तता बढ़ी है। ज़िम्मेदारियाँ भी। ऐसे में समय का अभाव तो रहता ही है। फिर भी छिट-पुट लिखना-पढ़ना चल ही रहा है। तुम अच्छा लिख रहे हो। तुम्हें पढ़कर गहरी आश्वस्ति होती है। जोश और जज़्बे को बनाए रखो। डंगवाल जी को मेरी स्मृति देना। ‘अमर उजाला’ क्या पटना आ सकता है? कोई भनक हो तो लेना-देना। 25-26-27 को गया में नामवर-राजेंद्र सहित दिग्गजों की एक बड़ी जुटान है। संभवतः मैं भी शिरकत करूँ। तब लिखूँगा, क्या रहा?

गौरीनाथ स्नेही जीव है। उससे मिलना सुखद रहा होगा। घर में सबको यथोचित। पत्र देना।

आपका
अवधेश प्रीत 

पटना, बिहार 
17 मार्च 2003

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जयशंकर का एक पत्र

प्रिय शशिभूषण,

आपकी चिट्ठी से सुख मिला। आप जिस संवेदना, समझ और परिवेश की कहानियाँ लिख रहे हैं, उसकी मुख्यधारा में स्वीकृति नहीं भी हो सकती है, कम भी हो सकती है; परंतु आपकी तीनों कहानियों ने आपकी निजता, आपके अपने तनावों, परिवेश और भाषा का जैसा अनुभव दिया है—वह आपके लिए भी, कहानी के लिए भी अच्छी बात है। दिल्ली में जो ऑरे जैसा साहित्यिक वातावरण है (जिसे मैं नहीं जानता हूँ), उसका किसी भी लेखक के भीतर सहज प्रतिरोध, मुझे लेखक के लिए ज़रूरी जान पड़ता है। आप कहानियाँ लिखते रहें। समय मिलने पर मित्रों को पत्र भी लिखें। अब मैं आपकी चिट्ठियों की प्रतीक्षा करने लगा हूँ। अपने बारे में विस्तार से लिखें। आपकी पुस्तक ख़रीदना चाहूँगा।

शुभकामनाएँ
जयशंकर

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अखिलेश का एक पत्र

प्रिय भाई, 
आपका पत्र पाकर बहुत ख़ुशी हुई थी कि आपने ‘यक्षगान’ को महत्त्व दिया।

आपकी सामाजिक हालात पर जो टिप्पणी है, मैं उससे पूरी तरह सहमत हूँ। यह भी एक बड़ी विडंबना ही है कि आज सभी कायर होते जा रहे हैं, जबकि ज़रूरत एक बहुत व्यापक स्तर की कार्रवाई की है। 

आपकी रचनाएँ पढ़ने का मन है।

स्वस्थ सानंद होंगे।

अखिलेश

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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राकेश कुमार सिंह के दो पत्र

प्रिय शशि,

भूला नहीं हूँ। तुम्हें यार, भूलना आसान है क्या? कुछ परेशान-से लगते हो, बात क्या है? कोई कहानी परेशान किए हुए है क्या?

अभी 19 सितंबर को भोपाल जा रहा हूँ। पावस व्याख्यानमाला के युवा कुंभ में शिरकत का निमंत्रण (ग़लती से?) मिल गया है। मुझ अलेखक को बुला ही लिया है तो तमाशा घुस के देखने में कोई हर्ज़ नहीं। कभी-कभार लिख लेता हूँ, लोग मुग़ालते में हैं कि मैं लेखक हूँ। मैं तो पाठक हूँ भई! अभी ‘जागरण उदय’ में तुम्हारी कहानी पढ़ी। ‘कथाक्रम’ में ‘ब्रह्महत्या’ कब तक छपेगी? उसे पढ़ने को उत्सुक हूँ। ‘युद्धरत आम आदमी’ का अंक आरा में अभी नहीं आया। कहानियाँ पढ़ कर फिर लिखूँगा। अपनों की खोज-ख़बर रखता हूँ भई।

अपने दूसरे उपन्यास के अंतिम चैप्टर में लगा हूँ। प्रकाशक ही नहीं मिल रहा। जो मिल रहा है, वह प्रकाशक कम बनिया ज़्यादा, सो दिल नहीं मानता। 

शेष सानंद रहो। व्यस्त रहो। यूँ ही मिलते रहो। 

राकेश

भोजपुर, बिहार
14 सितंबर 2002

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प्रिय शशि,

पत्र मिला! भले आदमी, राज्य, जिला, मुहल्ला तो लिखा पते में; शहर का नाम ही ग़ायब। तुम्हारा पत्र मुझ तक पहुँच कैसे गया... ताज्जुब है।

बहरहाल, ‘ब्रह्महत्या’ पढ़ ली। वाक़ई तुमने बढ़िया कहानी लिखी... बधाई! भोपाल गया था। बढ़िया दौरा रहा। ज़्यादा लिखना अपने बारे में अश्लील लग रहा है। रजनी गुप्त भी थीं।

शायद इस वर्ष हम फिर ‘कथाक्रम’ में मिलें। अभी निमंत्रण तो नहीं मिला, पर अब तक तुम्हें शायद पता चल गया हो कि इस वर्ष की प्रतियोगिता में भी मैंने कहानी भेजी थी। नतीजा भी लगभग वही है। इसी महीने मेरा पहला उपन्यास ‘जहाँ खिले है रक्तपलाश’ (हैं नहीं है) भी आ रहा है। दूसरे उपन्यास के अंतिम चैप्टर पर काम चल रहा है। पिछले वर्ष बस एक कहानी लिख सका, वही ‘कथाक्रम’ में भेज दिया था। ‘ब्रह्महत्या’ कथादेश में क्यों? ...‘ब्रह्महत्या’ पढ़ कर लगा, मैं अभी लिखना सीख रहा हूँ और तुम, रवि बुले, नीलाक्षी (सिंह) सब मुझसे बहुत बेहतर लिख रहे हो। सचमुच लेखक हो तुम लोग। मैं तो बस यूँ ही-सा।

इस बार तुम्हारे पत्र से लगा तुम ठीक हो। ठीक रहो, शुभकामनाएँ...

तुम्हारा 
मैं

भोजपुर
27 अक्टूबर 2002

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पंकज मित्र का एक पत्र 

भाई शशिभूषण जी,

नमस्कार, स्वस्थ एवं सृजनरत होंगे। आपका पत्र सुखद अनुभूतियाँ दे गया। आपको लघु उपन्यास ठीक-ठाक लगा, जानकर अच्छा लग रहा है।

वागर्थ में आपकी कहानी, अखिलेश जी का संस्मरण एवं आपका आत्मकथ्य तीनों ही अच्छे थे। आपको पत्र लिखने ही वाला था कि आपका पत्र आ गया। देर से ही सही बधाई लें।

मेरी किताब की समीक्षा ‘जनसत्ता’ में देखी थी। लखनऊ में श्री वीरेंद्र यादव जी ने दी थी। अगर पूरी समीक्षा की प्रति आपके पास उपलब्ध हो तो मुझे भिजवाएँ। अपने समकालीन लेखकों की निगाह से अपने को देखना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

कैसा लग रहा है इस नौकरी में?

शेष फिर,

आपका ही
पंकज मित्र

हजारीबाग़, झारखंड

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रवि बुले का एक पत्र

प्रिय शशिभूषण,

सबसे पहले तुमसे क्षमा चाहता हूँ। क़रीब दो महीने पहले तुम्हारा पत्र पाकर भी तुम्हें चार अक्षर तक नहीं लिखा! जाने क्या सोचते होंगे मेरे बारे में! तुमसे दोस्ती करके मुझे ख़ुशी ही होगी। दरअसल, पिछले कुछ महीनों से पारिवारिक समस्याओं और यात्राओं के कारण सब कुछ अस्त-व्यस्त रहा। आशा करता हूँ कि तुम इस पत्र में विलंब का कारण समझोगे। चलो आगे बढ़े।

‘कथादेश’ में दो और ‘युद्धरत आम आदमी’ में तुम्हारी एक कहानी पढ़ चुका हूँ। अच्छी थीं। विशेष रूप से ‘कथादेश’ के युवा अंक वाली। इधर क्या लिखना-छपना चल रहा है, बताना। मेरा पढ़ना-लिखना कुछ महीनों से बंद था। संभव है अब शुरू होगा। वैसे जनवरी-फ़रवरी-2003 में ‘पहल’ में मेरी एक कहानी आ रही है। फ़िल्में हर हफ़्ते देखता हूँ, समीक्षा लिखता हूँ। तुम्हें मेरी कहानियाँ और समीक्षाएँ पसंद आती हैं—यह जानकर प्रसन्नता हुई।

आशा करता हूँ कि इस पत्र के साथ तुम्हारी नाराज़गी ख़त्म हो सकेगी। पत्र लिखना।

नए वर्ष की शुभकामनाएँ।

स्वास्थ्य के लिए मंगलकामनाएँ।

तुम्हारा
रवि बुले

नोएडा, उत्तर प्रदेश
25 दिसंबर 2002

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नीलाक्षी सिंह का एक पत्र

शशिभूषण जी,

आपका पत्र मिला। आशा है स्वस्थ सानंद होंगे!

आपका संग्रह अभी नहीं देख पाई हूँ। लखनऊ में मंच पर मैंने आपसे लेकर उलट-पुलट कर ही सही, उसे देखना चाहा था, पर कार्यक्रम के बाद वहाँ चेक लेने-देने का सिलसिला शुरू हुआ, इसलिए वैसा संभव नहीं हो पाया। बहरहाल, ज्ञानपीठ से मँगवाया है। शायद लोकार्पण होने के बाद आए। आप मेरी बधाई लें!

मैं लखनऊ से कार्यक्रम के अगले दिन ही लौट आई थी सुबह। इसलिए किसी से भी ढंग से मुलाक़ात या बातें नहीं हो पाईं।

शेष कुशल। इधर कुछ लिखना नहीं हो पाया है।

कुछ-कुछ पढ़ रही हूँ। मेरे संग्रह पर आपने अच्छा लिखा है।

शुभाकांक्षी
नीलाक्षी

14 सितंबर 2005

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विमलेश त्रिपाठी का एक पत्र

भाई शशिभूषण जी,

नमन!

आपकी पहली कहानी जो पढ़ी वह ‘विप्लव’ थी। अब लंबे अंतराल के बाद ‘अभिशप्त’ पढ़ने को मिली। सच पूछिए तो ‘विप्लव’ की सघन बुनावट अत्यधिक पसंद आई थी, उस लिहाज़ से ‘अभिशप्त’ सीधी-सादी बुनावट में लिखी गई कहानी है, लेकिन यह भी तथ्य है कि इसका संदेश (Message) ‘विप्लव’ से बहुत आगे है जो निश्चय ही एक समर्थ कहानीकार के कथा-मानस के सकारात्मक विकास का सूचक है—मिथ का इस्तेमाल दोनों ही कहानियों में है, लेकिन ‘अभिशप्त’ का मिथ वह जादू नहीं कर पाया है जो ‘विप्लव’ के मिथ ने किया था। ख़ैर,

आप शायद मुझे न जानते हों, पहली ही कहानी छपी है, ‘वागर्थ’ के नवलेखन अंक में, शायद आपकी नज़र न भी गई हो, फिर भी आपके जैसे समर्थ और ‘कवचहीन, अकेले और लापरवाह’ कथाकार से मित्रता का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आशा है निराश नहीं करेंगे।

‘बकलमखुद’ के कई अंश मेरी अपनी ज़िंदगी से जुड़े हुए लगे, सो बड़े मार्मिक लगे। सबसे पहले उसे ही पढ़ा, फिर अखिलेश ने जिस सादगी और खुले ढंग से आपके बारे में लिखा है, उससे आपसे मिलकर गले लगने का मन करता है, शायद यह कभी संभव हो...

आशा है पत्रोत्तर देंगे। समय निकालकर—लापरवाही के बावजूद। स्वस्थ सानंद होंगे। आपके और आपके लेखकीय भविष्य की अनंत उम्र की शुभकामनाओं समेत—

आपका
विमलेश त्रिपाठी

कोलकाता, पश्चिम बंगाल

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चंदन पांडेय का एक पत्र

सर जी
सादर,

पता नहीं ये ख़त आपको मिल पाएगा कि नहीं, क्योंकि आपका भेजा हुआ पत्र किसी ने ग़ायब कर लिया है... हमारे दोस्तों में आपको पसंद करने वाले बहुत हैं। पत्र खोने से, आपका पता ‘कथादेश’ (सितंबर) से लेना पड़ा, शायद सही हो... ख़ैर...

बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने मेरी कहानी पढ़ी और पसंद करने के लिए तो और धन्यवाद। आपने मुझे पहली ही कहानी पर ख़त लिखा और मैं बेवकूफ़ आपकी इतनी कहानियाँ पढ़ी हैं और एक भी पत्र नहीं लिख पाया था। अब लिख रहा हूँ और कोशिश आगे की भी रहेगी।

एक बात और कि मेरी कहानी में ‘झोल’ है तो कहाँ ज़रा ये भी बताइए, Please… वरना कौन बताएगा अगर आप लोग नहीं बताएँगे जो Story telling के Master हैं।

मेरी कहानी की कमियाँ बताने के लिए ही ख़त लिखिएगा, पर लिखिएगा ज़रूर।

चंदन पांडेय

वाराणसी, उत्तर प्रदेश 
22 अक्टूबर 2004 

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दिनेश कुमार शुक्ल का एक पत्र

प्रिय भाई,

आपका अगस्त महीने का लिखा पत्र मिला। आपको ‘आलोचना’ में प्रकाशित मेरी कविताएँ अच्छी लगीं। अनुग्रहीत हूँ। बंधु, इस समय जून के महीने से मैं बड़ी आँत और यकृत में कैंसर के प्रकोप से पीड़ित हूँ। अत: पत्रोत्तर देने में कुछ विलंब हुआ है। यह भी एक संघर्ष है, जिसमें विजय पानी है। आप सबकी शुभकामनाओं की आवश्यकता है। साथ ही ईश्वर की भी कृपा चाहिए। आपके पत्र से बड़ा बल मिला, इसके लिए कृतज्ञ हूँ। कृपया पत्र देते रहें। यह भी एक बड़ी शक्ति देता है।

आपका
दिनेश कुमार शुक्ल

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अष्टभुजा शुक्ल का एक पत्र

प्रिय भाई,
सानंद होंगे।

‘तद्भव’, ‘कथादेश’, ‘माध्यम’ आदि में आपकी नई ज़मीन तोड़ने वाली कहानियाँ देखने को मिली थीं। ‘माध्यम’ की कहानी अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट और साफ़-सुथरी लगी थी।

बहुत दिनों से आपका व्यक्तिगत समाचार नहीं मिला। मैं इधर एक पारिवारिक दायित्व को पूरा करने की कोशिश में हलकान हो रहा हूँ। अतः पत्राचार वग़ैरा लगभग ठप है।

और कैसे हैं? क्या हो रहा है। नया वर्ष आने ही वाला है तो अग्रिम स्नेह एवं शुभकामनाएँ।

अष्टभुजा शुक्ल

बस्ती, उत्तर प्रदेश

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कृष्णमोहन का एक पत्र

प्रिय भाई,

‘शिल्पहीन’ पर पुरस्कार के लिए बधाई। कहीं से आपका नया पता लिया। इससे पहले आपका भेजा पैकेट मिलने पर एक पत्र जालंधर वाले पते पर दिया था, शायद मिला होगा।

कहानी में आपने भाषा और क़िस्सागोई का कमाल तो किया है, लेकिन अंत तक पहुँचकर धीरज खो बैठे हैं। कुछ ज़्यादा ही ‘करेक्ट’ और ‘रियलिस्टिक’ हो गई है। इसे मेरी आलोचना नहीं, बढ़ी हुई अपेक्षा समझें।

स्वस्थ और प्रसन्न होंगे।

आपका
कृष्णमोहन

प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
22 जून 2004

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शशिभूषण द्विवेदी के पत्र मनोज कुमार पांडेय के नाम यहाँ पढ़िए : सफलता एक निरर्थक शब्द है दोस्त

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