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समय पर दोहे

समय अनुभव का सातत्य

है, जिसमें घटनाएँ भविष्य से वर्तमान में गुज़रती हुई भूत की ओर गमन करती हैं। धर्म, दर्शन और विज्ञान में समय प्रमुख अध्ययन का विषय रहा है। भारतीय दर्शन में ब्रह्मांड के लगातार सृजन, विनाश और पुनर्सृजन के कालचक्र से गुज़रते रहने की परिकल्पना की गई है। प्रस्तुत चयन में समय विषयक कविताओं का संकलन किया गया है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।

सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताए॥

सब समय का खेल है। समय आने पर फल पकते हैं और समय आने पर झड़ भी जाते हैं। रहीम कहते हैं कि समय ही परिस्थितियों को बदलता है अर्थात् समय सदा एक-सा नहीं रहता। इसलिए पछतावा करने का कोई तुक नहीं है।

रहीम

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।

रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥

रहीम कहते हैं कि पहले एक काम पूरा करने की ओर ध्यान देना चाहिए। बहुत से काम एक साथ शुरू करने से कोई भी काम ढंग से नहीं हो पता, वे सब अधूरे से रह जाते हैं। एक ही काम एक बार में किया जाना ठीक है। जैसे एक ही पेड़ की जड़ को अच्छी तरह सींचा जाए तो उसका तना, शाख़ाएँ, पत्ते, फल-फूल सब हरे-भरे रहते हैं।

रहीम

समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम।

सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम॥

रहीम कहते हैं कि जब समय उल्टा चल रहा हो तो समर्थ इंसान को भी ओछे वचन सुनने पड़ते हैं। यह समय का ही खेल है कि गदाधारी बलवान भीम के सामने दुश्शासन द्रोपदी का चीर हरण करता रहा और भीम हाथ में गदा होते हुए भी नीची आँख किए बैठे रहे।

रहीम

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥

रहीम

जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।

अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार॥

हे भ्रमर! जिन दिनों तूने वे सुंदर तथा सुगंधित पुष्प देखे थे, वह बहार बीत गई। अब (तो) गुलाब में बिन पत्ते की कंटकित डाल रह गई है (अब इससे दुःख छोड़ सुख की सम्भावना नहीं है)।

बिहारी

रतन दैवबस अमृत विष, विष अमिरत बनि जात।

सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी बात॥

रत्नावली

केस कनौती ऊजली, सपट सेनसो देय।

सैना समयो पुग्यो, राम नाम भज लेय॥

कनौटी (कनपटी) तथा सिर पर सफ़ेद बाल जाएँ तो उसे सीधा-स्पष्ट समझौता मानना चाहिए कि संसार से विदा का समय गया है, राम नाम में चित्त लगा लो।

सैन भगत

घुँघुँची भर के बोइये, उपजा पसेरी आठ।

डेरा परा काल का, साँझ सकारे जात॥

पुरुष द्वारा नारी-क्षेत्र में थोड़ी मात्रा में सजीव वीर्य सिंचन से पांच विषय एवं तीन गुण से संबंधित मानो आठ पसेरी एवं मन भर का शरीर पैदा हो जाता है। और शरीर के पैदा होते ही मानो उसमें काल का पड़ाव पड़ जाता है। रात और दिन बीतते हैं और शरीर क्षीण होता है। परंतु यदि कोई पांच विषय एवं तीन गुणयुक्त इस आठ पसेरी के निर्जीव शरीर को गाड़ दे और इससे चाहे कि एक देहधारी का पिंड पैदा हो जाए तो असंभव है। जीवन-निर्माण का एक प्राकृतिक-क्रम है। सब कुछ या कुछ भी अचानक नहीं हो जाता है। परंतु लोग मेरी कारण-कार्य-व्यवस्था के विचारों को नहीं समझते, अत: वे भौतिकवादी दृष्टि अपनाकर अंत में अपने आप को खोकर चलते हैं।

कबीर

जानि परै कहुं रज्जु अहि, कहुं अहि रज्जु लखात।

रज्जु रज्जु अहि-अहि कबहुं, रतन समय की बात॥

कभी तो रज्जु सर्प सी मालूम पड़ती है। कभी सर्प रज्जु जैसा भासित होता है, कभी रज्जु, रज्जु और सर्प जैसा ही ज्ञात होता है। यह सब समय की बात है।

रत्नावली

काल खड़ा शिर ऊपरे, तैं जागु बिराने मीत।

जाका घर है गैल में, सो कस सोवे निश्चिन्त॥

हे माया मोही मानव! तू सावधान हो जा! तेरे सिर पर काल खड़ा है। जिसका निवास-स्थल काल के मार्ग में है, वह निश्चिंत होकर क्यों सो रहा है!

कबीर

जिह सिमरत गत पाइये, तिहि भज रे तैं मीत।

कह नानक सुन रे मना, अउधि घटति है नीत॥

गुरु तेगबहादुर

बण्यो बणायो रहे सदा, काटत है नहिं शूल।

अरुण वरुण क्या काम को, बास बिना को फूल॥

संत पीपा

नया समय मानव नया

नई नई पहचान।

नए समय का आदमी

ख़ुद कोरोना जान॥

जीवन सिंह

सुंदर यह औसर भलौ, भजि लै सिरजनहार।

जैसै ताते लोह कौं, लेत मिलाइ लुहार॥

सुंदरदास

आज धूप में छाँव है, काल छाँव में धूप।

पीपा पलट्यो ही करे, रंक रूप अरू भूप॥

संत पीपा

सुन्दर यौं ही देखतें, औसर बित्यौ जाइ।

अंजुरी मंहिं नीर ज्यौं, किती बार ठहराइ॥

सुंदरदास

सुंदर औसर कै गयें, फिरि पछितावा होइ।

शीतल लोह मिलै नहीं, कूटौ पीटौ कोइ॥

सुंदरदास

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