‘तुलसी’ जस भवितव्यता, तैसी मिलै सहाय।
आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय॥
गोस्वामी जी कहते हैं कि जैसी होनहार होती है मनुष्य को वैसी ही सहायता प्राप्त हो जाती है। होनहार स्वयं मनुष्य के पास नहीं आती प्रत्युत उसे ही स्वयं खींच कर वहाँ ले जाती है। भाव यह है कि होनहार या भाग्य के आगे किसी का कुछ वश नहीं चलता।
सैना संपत्ति लोभ वश, गये समंदर पार।
तां भी मिल्या संखड़ा, विधना लिखो ललार॥
सैन भगत कहते हैं कि संपत्ति प्राप्त करने के लिए समुद्र पर हीरे-जवाहरात लेने कई लोग गए, किंतु उन्हें शंख ही मिले। जो विधाता ने भाग्य में लिखा है, वही मिलेगा।
जानि परै कहुं रज्जु अहि, कहुं अहि रज्जु लखात।
रज्जु रज्जु अहि-अहि कबहुं, रतन समय की बात॥
कभी तो रज्जु सर्प सी मालूम पड़ती है। कभी सर्प रज्जु जैसा भासित होता है, कभी रज्जु, रज्जु और सर्प जैसा ही ज्ञात होता है। यह सब समय की बात है।
सैना संपत्ति विपत्ति को, जो धिक्के सो कूर।
राई घटे न तिल बढ़े, विधि लिख्यो अंकूर॥
संपत्ति और विपत्ति के समय जो निराश या प्रसन्न होते हैं, सब झूठ है। विधाता ने जो अंकोरे (भाग्य) में लिख दिया है, उसमें न राई घट सकती है, न तिल बढ़ सकता है।
दियौ सु सीस चढ़ाइ लै, आछी भांति अएरि।
जापैं सुखु चाहतु लियौ, ताके दुखहिं न फेरि॥
ईश्वर ने दु:ख या सुख जो भी दिया है, उसे अच्छी प्रकार से स्वीकार करके सिर माथे चढ़ा ले। तू जिस ईश्वर से सुख प्राप्ति की कामना करता है, दुःख भी उसी का दिया हुआ है। अतः ईश्वर-प्रदत्त दु:ख को लौटा मत-अस्वीकार मत कर।
भल चाहत रत्नावलि, विधि बस अन भल होइ।
हों पिय प्रेम बढ्यौ चह्यौ, दयो मूल ते खोइ॥
मानव अपना भला चाहता है परंतु विधि की परवशता से बुरा हो जाता है। मैं अपने ऊपर अपने पति (तुलसीदास) का प्रेम बढ़ा हुआ देखना चाहती थी किंतु उसे जड़ सहित ही उखाड़ कर नष्ट कर दिया।
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गुल गुलाब अरु कमल कौ, रस लीन्हौं इक ताक।
अब जीबन चाहत मधुप, देख अकेली आक॥
इस भौंरे ने अब तक तो गुलाब और कमल के फूलों का मन भर के रसपान किया है पर अब उसे अकेले आक के पौधों में अपना जीवन बिताना पड़ रहा है। भाव यह कि जो मनुष्य पहले बहुत सुख देखता है, बाद में उसे दुःख भी देखने पड़ते हैं।
रत्नावलि औरे कछु, चहिय होइ कछु और।
पाँच पैर आगे चलै, होनहार सब ठौर॥
सांसारिक प्राणी चाहता कुछ है किंतु कुछ और ही हो जाता है। होनहार सब स्थानों पर पाँच पग आगे ही चलता है।
छुट्यो राज, रानी बिकी, सहत डोम-गृह दंद।
मृत सुत हू लखि प्रियहिं तें, कर माँगत हरिचंद॥
चित्ति विसाउ न चिंतियइ, रयणायर गुण-पुंज।
जिम जिम बायइ विहिपडहु, तिम नचिज्जइ मुंज॥
हे गुणों के रत्नाकर मुंज! मन में इस प्रकार दुःख मत करो, क्योंकि जैसे विधाता का ढोल बजता है, मनुष्य को उसी प्रकार नाचना पड़ता है।
चतुरानन की चूक सब, कहलों कहिये गाय।
सतुआ मिलै न संत को, गनिका लुचुई खाय॥