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पूँजी पर कविताएँ

आधुनिक राज-समाज में

पूँजीवाद के बढ़ते असर के साथ ही उसके ख़तरे को लेकर कविता सजग रही है। कविता जहाँ अनिवार्यतः जनपक्षधरता को अपना कर्तव्य समझती हो, वहाँ फिर पूँजी की दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिरोध उसकी ज़िम्मेवारी बन जाती है। प्रस्तुत चयन ऐसी ही कविताओं से किया गया है।

एक दिन

सारुल बागला

बच्चे

अमिताभ

याचना

सुमित त्रिपाठी

मठ के पीछे

अर्नेस्तो कार्देनाल

पैसा पैसा

नवीन सागर

कचरा

निखिल आनंद गिरि

मेरे अभाव में

अखिलेश सिंह

अंतिम गीत

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

बीमा एजेंट

सौरभ राय

महज़ एक जेब

अदीबा ख़ानम

उत्पाद

निशांत कौशिक

जाग मछंदर

दिनेश कुमार शुक्ल

सीलमपुर की लड़कियाँ

आर. चेतनक्रांति

दस के पाँच नोट

अतुल तिवारी

होटल

मंगलेश डबराल

और अंत में

विनय सौरभ

इमारतें

हरि मृदुल

वीरभोग्या वसुंधरा

शिरीष कुमार मौर्य

चाय के प्याले में

राजकमल चौधरी

कार

आर. चेतनक्रांति

फैक्टरी

सोमसुंदर

टाई

हरि मृदुल

प्रश्नोत्तर

राकेश रंजन

लेखक का एम.एस.पी.

कृतिका किरण

अप्रैल में ततैया

बजरंग बिश्नोई

देखना

धीरेंद्र धवल

कुंदनी बदन

कविता अरोरा

यह समय

रविशंकर उपाध्याय

क़ीमत

वंदना पराशर

लक्ष्मीनामस्तोत्रम

हेमंत देवलेकर

कमांड

प्रकाश चंद्रायन

बाज़ार होता शहर

परमेंद्र सिंह

काला शीशा

हरि मृदुल

चोर

हरि मृदुल

बयान

नरेंद्र जैन