बालमुकुंद गुप्त के भूले-बिसरे साहित्यिक घराने की ओर
गुरदीप भोसले
20 दिसम्बर 2025
कल रात बारिश और आँधी आई थी तो मौसम ने भी प्रतिदिन की आदत को छोड़ते हुए हम पर रहम किया और सूर्य देवता काफ़ी देर तक ग़ायब ही रहे तथा बादलों ने ख़ुद को ढाल बनाकर हमें शीतलता प्रदान की। महेंद्रगढ़, ऐसी जगह जहाँ पर लोग इस तरह के मौसमी बदलाव का इंतज़ार करते ही रहते हैं तो मेरे लिए भी यह ख़ुशी की बात थी। सुबह उठते ही मौसम को देख मन में ख़याल आया कि कहीं के लिए एक दिन का भ्रमण ही कर लिया जाए। वैसे तो मुझे घूमना-फिरना ज़्यादा पसंद नहीं है, लेकिन जो समय बीत जाता है वह वापस नहीं आता—इस मनोभाव की चपेट में आते हुए मैंने दोस्तों में आज के साहित्यिक भ्रमण की घोषणा कर दी। चूँकि भ्रमण की योजना मैंने बनाई थी तो उसके लिए स्थान निर्धारण के लिए मैंने हरियाणा के रेवाड़ी ज़िले के गाँव ‘गुड़ियानी’ को चुना।
गुड़ियानी—इस नाम को सुनते ही मन आह्लादित हो उठता है। गर्व से मस्तक ऊँचा हो जाता है। जब मैंने दोस्तों (हिमांशु, आकाश भारती, योगेश कुमार, ज्योत्स्ना, नंदू सोनी, जीतू बिस्वाल) को बताया कि आज हम गुड़ियानी चलेंगे तो किसी के भी मन में मनाही की भावना घर नहीं कर पाई, और इसका कारण था गुप्त जी का गुड़ियानी। साहित्य-जगत से संबंध न रखने वाले शायद ही कोई गुड़ियानी गाँव की महत्ता के बारे में जानता हों, लेकिन साहित्यिक लोगों से जब गुड़ियानी की बात की जाती है तो उनके मुख पर एक भिन्न प्रकार का आह्लाद देखने को मिलता है। गुड़ियानी एक ऐसा गाँव है जिसने हरियाणा और भारत के साहित्यिक जगत को एक अमूल्य निधि की सौगात दी, और जिनका नाम है ‘बालमुकुंद गुप्त’।
बालमुकुंद गुप्त का जन्म 14 नवंबर 1865 को गुड़ियानी (रेवाड़ी, हरियाणा) में लाला पूर्णमल और राधा देवी के घर हुआ था। यह हरियाणा के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण घटना थी। उस समय किसे ही पता था कि गुड़ियानी गाँव में पैदा हुआ एक साधारण-सा बालक हिंदी-साहित्य के इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
गुप्त जी के बारे में और बताऊँ तो यह ज्ञान के अथाह सागर थे। कौन-सी ही विधा है जिसमें उन्होंने अपनी लेखनी को ना आजमाया हो? वह एक आलोचक, कवि, स्वदेशी आंदोलन के प्रणेता, पत्रकारिता के उन्नायक, समाज-सुधारक, भाषा विज्ञानी एवं एक कुशल अनुवादक थे। हरियाणा में जब साहित्यकारों के बारे में चर्चा होती है तो सबसे पहले ज़ेहन में एक ही नाम आता है—‘बालमुकुंद गुप्त’। साहित्य की दुनिया में हरियाणा को जाना ही इनके नाम से जाता है।
जैसे-तैसे मैंने दोस्तों को तैयार किया। सौभाग्य से सबके पास ख़ुद के वाहन थे तो कुछ ज़्यादा सोचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय से महेंद्रगढ़ से कोसली से सीधा गुड़ियानी। पूरे रास्ते की सड़क अच्छी होते हुए भी ग्यारह बजे तक सूर्य देव अपने असली रूप में आ चुके थे। लपटें ऐसी कि जैसे आग के आगे ही बैठे हों।
गुड़ियानी एक ग्राम पंचायत है लेकिन देखने से क़स्बे की तरह ही लगता है। गुप्त जी का घर ढूँढ़ने में गूगल बाबा ने भी कुछ ख़ास सहायता नहीं की तो मुख्य अड्डे से गाँव की तरफ़ जाती हुई एक गली में हरियाणवी वेशभूषा से सुसज्जित कुछ औरतें घर के बाहर ही बैठीं बातें कर रही थीं तो योगेश ने आगे बढ़ते हुए उनसे बालमुकुंद गुप्त की हवेली के बारे में पूछा। उन्होंने हमें उसी गली से सीधा जाने के लिए कह दिया। गुड़ियानी गाँव की सड़कें देखकर किसी की भी अतीत की स्मृतियाँ जागृत हो सकती हैं। घुमावदार और संकरी गलियाँ आपके स्मृति पटल पर अंकित होने के लिए काफ़ी हैं।
जैसे-तैसे हम गुप्त जी की हवेली तक पहुँच ही गए। ऐसा अनुभव हुआ जैसा सिर से कोई बोझ उतर गया, जैसे जिसकी कमी थी वह काम आज हो ही गया। लेकिन यह क्या! हवेली की अवस्था देख हम सबके हृदय को आघात लगा। हमारे मन में कभी यह विचार नहीं आया था कि हरियाणा के महान् साहित्यकार बालमुकुंद गुप्त का घर इस अवस्था में होगा। द्वार पर गए तो ताला लगा हुआ था। आस-पास के लोगों से पूछने पर पता चला कि घर की चाबी सरपंच के पास रहती है और सरपंच चाबी नहीं देते। एक सज्जन ने हमसे कहा कि आप जैसे ना जाने कितने ही लोग आते हैं पर अधिकतर को निराश होकर ही लौटना पड़ता है। हमारे मन को निराशा के बादलों ने घेर लिया। हम सब ताला खुलने की आस में गुप्त जी की हवेली के बाहर खड़े थे। फिर हम सभी ने एक साथ सरपंच से मिलने की योजना बनाई कि जैसे-तैसे चाबी मिल जाए।
सरपंच के घर पर जाते ही सरपंच ने हमारा स्वागत किया और वहाँ जाते ही हमें चाबी भी मिल गई। हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। सरपंच के पास से आए युवक ने ताला खोला और हम अचंभित रह गए! प्रागंण में ही घास-फूस, फटे धूल-धूसरित कपड़े, झाड़ और एक विशाल जर्जर इमारत दिखी। हवेली के मुख्य द्वार पर लाल अक्षरों में ‘बाबू बालमुकुंद गुप्त स्मृति भवन’ लिखा हुआ है जो बालमुकुंद गुप्त ट्रस्ट द्वारा कभी लिखवाया गया होगा। लेकिन पुराना हो जाने के कारण अब उस नाम को पढ़ना आसान काम नहीं है। हवेली में करीब 52 कमरे हैं। हर कक्ष में ऊपर की तरफ़ छोटी-सी ख़ुफ़िया जगह है, जिसमें कोई भी ज़रूरी सामान रखा जा सकता है।
ज्योत्सना (सहपाठी) ने बताया कि मेरे मन में ज़रा भी ऐसा विचार नहीं था कि गुप्त जी का घर इस दुर्दशा में होगा। बल्कि मैंने तो यह सोचा था कि उनके घर पर अभी और पहले की सरकारों द्वारा काफ़ी सुधार-कार्य किया गया होगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था।
ग़ौर करें तो मुख्य द्वार पर की गई कलाकारी देखने लायक़ है, जिस पर पीतल की छोटी-छोटी पुष्पनुमा आकृति अंकित है। हवेली में बहुत सारे कमरे हैं और सभी में मकड़ी के जाले, लकड़ियों के कुछ अवशेष, एक टूटी हुई कुर्सी दिखी—जिसे संभवत: हमने गुप्त जी की कुर्सी ही माना और अपने कल्पना के संसार में उनको उस कुर्सी पर बैठे काम करते भी देख लिया। एक कमरे में बालमुकुंद गुप्त का बहुत ही सुंदर चित्र भी लगा हुआ है, जिसमें उनकी उम्र 35 वर्ष क़रीब के युवा जैसी है। सभी कमरों की छत विशेष प्रकार की लकड़ी की कड़ियों से बनी है जो आज भी नई जैसी प्रतीत होती हैं। हवेली का हर कमरा एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।
घर के बाहर एक व्यक्ति से बात करने पर हमें पता चला कि गाँव के कुछ लोगों ने गुप्त जी के घर का सारा सामान अपने घरों में भर लिया और अब उस सामान का कोई अता-पता नहीं है। कुछ सामान उनके नाम से चल रही किसी संस्था के पास सुरक्षित है। मेरे लिए यह सब आश्चर्यजनक था। जैसे बिना माँ घर विरान हो जाता है, वैसे ही बिना देख-रेख के बिना इस हवेली का जो हाल है, वह आँखें नम करने वाला है। हवेली की बनावट से ही उस समय गुप्त जी के परिवार की समृद्धि का अंदाज़ा भी लगाया जा सकता है।
उस समय का ऐसा शायद ही कोई बड़ा शहर होगा, जहाँ पर बालमुकुंद गुप्त ने जाकर कार्य नहीं किया हो, जिसमें चाहे छापाख़ाना लगाना हो, पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करना हो या किसी साहित्यिक गतिविधि का आयोजन करना हो। वहीं कमरे के अंदर छोटी-सी खिड़की में कुछ पुरानी पोथियाँ रखी हुई दिखी थी, सोचा कुछ महत्त्वपूर्ण पांडुलिपि मिलेगी लेकिन वह कुछ बहीख़ाते जैसा ही था। जिस पर दिनांक के अलावा नाम और पता लिखा गया था। एक कमरे में राम-सीता का चित्र मिला जो हमारे लिए उत्सुकतापूर्ण था। मैंने ऐसा चित्र पहले कभी नहीं देखा था। राम के चेहरे पर करुणा का भाव, सीता उनकी जाँघ पर बैठी हुई हैं। बाईं तरफ़ लंगोट पहने एक ब्राह्मण खड़ा है। हनुमान जी श्री राम के चरणों में बैठे हैं। इस चित्र को देखकर मनुष्य की बदलती चित्तवृत्ति का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। आज के समय में भले ही राम और हनुमान को बाहुबली के जैसे दिखाया गया हो, लेकिन आज से क़रीब सौ साल पहले राम और हनुमान को सामान्य मानव की ही तरह चित्रित किया जाता था।
हवेली के आस-पास दो तीन और हवेलियाँ थीं, जिन्हें देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि ये सब एक ही परिवार से संबंधित हैं। आर्थिक संपन्नता के साथ-साथ चेतना संपन्न होना गुप्त जी के अद्वितीय व्यक्तित्व का प्रमाण है। खुला बरामदा, हवादार खिड़कियाँ और नवीन निर्माण शैली में निर्मित बालमुकुंद गुप्त का घर किसी भी साहित्य प्रेमी को अपने आवरण से बाँध सकता है। हम सब ने वहाँ की हर एक वस्तु के चित्र लिए, जिससे भविष्य में उनका कुछ उपयोग हो सके। दिन ढलने ही वाला था तो हमने वापसी करने की सोची, तो जाते हुए गाँव के सरपंच महोदय से मिलते हुए, उनका धन्यवाद किया और चल पड़े विश्वविद्यालय की ओर।
लौटते हुए बहुत सारी बातें मन में उमड़ती रही, 124 साल पहले हरियाणा का जो व्यक्ति भाषा और साहित्य को लेकर हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और भाषाविदों से बहस कर रहा था, जिसने हिंदी पत्रकारिता की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जो पूरे भारत को भाषा के व्यवहार के बारे में समझा रहा था, स्वतंत्रता प्राप्ति की चेतना से लोगों को जागृत कर रहा था। जिसने अपने चिट्ठे-पत्रों में लार्ड कर्जन का पर्दाफाश किया। आज उस महान् विभूति बालमुकुंद गुप्त पर पर बहस करने वाले हरियाणा में ना के बराबर हैं। यह बहुत सोचनीय है। उनका परिवार कलकत्ता में रहता है और गाँव की ज़मीन उन्होंने पंचायत को दे दी थी। ख़ैर, लिखने को तो बहुत कुछ है लेकिन अभी के लिए इतना ही।
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