आत्मा पर दोहे
आत्मा या आत्मन् भारतीय
दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों में से एक है। उपनिषदों ने मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में इस पर विचार किया है जहाँ इसका अभिप्राय व्यक्ति में अंतर्निहित उस मूलभूत सत् से है जो शाश्वत तत्त्व है और मृत्यु के बाद भी जिसका विनाश नहीं होता। जैन धर्म ने इसे ही ‘जीव’ कहा है जो चेतना का प्रतीक है और अजीव (जड़) से पृथक है। भारतीय काव्यधारा इसके पारंपरिक अर्थों के साथ इसका अर्थ-विस्तार करती हुई आगे बढ़ी है।
तीन लोक भौ पींजरा, पाप-पुण्य भौ जाल।
सकल जीव सावज भये, एक अहेरी काल॥
सत, रज और तम ये तीनों गुण पिंजड़े बन गए, पाप तथा पुण्य जाल बन गए और सब जीव इनमें फंसने वाले शिकार बन गए। एक अज्ञान-काल-शिकारी ने सबको फंसाकर मारा।
हंसा सरवर तजि चले, देही परिगौ सून।
कहहिं कबीर पुकारि के, तेहि दर तेहि थून॥
जब जीव शरीर छोड़कर चला जाता है, तब यह शरीर चेतना से शून्य होकर मुरदा हो जाता है। सद्गुरु जोर देकर कहते हैं कि कर्माध्यासी जीव पुन: उसी गर्भ में प्रवेश करता है, जहाँ उसका शरीर निर्मित होता है।
पाँच तत्त्व का पूतरा, मानुष धरिया नाँव।
एक कला के बीछुरे, बिकल होत सब ठाँव॥
पाँच तत्व के पुतले इस शरीर को धारण करने से जीव का नाम मनुष्य रखा गया। परंतु एक सद्बुद्धि के बिना यह सब जगह पीड़ित रहता है।
सुरति निरति नेता हुआ, मटुकी हुआ शरीर।
दया दधि विचारिये, निकलत घृत तब थीर॥
देह कृत्य सब करत है, उत्तम मध्य कनिष्ट।
सुंदर साक्षी आतमा, दीसै मांहि प्रविष्ट॥
अग्नि कर्म संयोग तें, देह कड़ाही संग।
तेल लिंग दोऊ तपै, शशि आतमा अभंग॥