पत्र पर दोहे
पत्र बातों और भावनाओं
को शब्दों में प्रकट कर संवाद करने का एक माध्यम है। प्रस्तुत चयन में उन कविताओं का संकलन किया गया है, जिनमें पत्र प्रमुख तत्त्व और प्रसंग की तरह कविता में उपस्थित हुए हैं।
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहि है सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥
प्रेमी के मन में अनेक प्रकार के भाव उठते और गिरते रहते हैं। कागज पर पत्र लिखना उसके लिए इसलिए असंभव हो गया है कि जब भी वह पत्र लिखने बैठती है तभी या तो उसके हाथ काँपने लगते हैं या वह भावावेश में आकर इतनी भावविभोर हो जाती है कि कंपन-स्नेह-अश्रु जैसे भाव क़ाग़ज़ पर अक्षरों का आकार नहीं बनने देते। यदि वह किसी व्यक्ति के माध्यम से नायक के पास संदेश भेजे तो यह समस्या है कि किसी दूसरे व्यक्ति से अपने मन की गुप्त बातें कैसे कहे? इसलिए वह हताश होकर खाली क़ाग़ज़ का टुकड़ा बिना कुछ लिखे भेज देती है। इस क़ाग़ज़ के टुकड़े को भेजने के साथ वह यह अनुमान लगा लेती है कि यदि नायक के मन में भी मेरे प्रति मेरे जैसा ही गहन प्रेम होगा तो वह इस खाली क़ाग़ज़ को देखकर भी मेरे मनोगत एवं प्रेमपूरित भावों को स्वयं ही पढ़ लेगा।
रँगराती रातैं हियैं, प्रियतम लिखी वनाइ।
पाती काती बिरह की, छाती रही लगाइ॥
अनुरक्त हृदय से प्रियतम द्वारा बनाकर लिखी हुई अनुराग से रंजित पत्रिका को नायिका विरह की कतरनी समझकर अर्थात् विरह को दूर करने वाली समझकर अपने हृदय से लगा रही है।
चंपा हनुमत रूप अलि, ला अक्षर लिखि बाम।
प्रेमी प्रति पतिया दियो, कह जमाल किहि काम॥
उस प्रेमिका ने अपने पति को पत्र में चंपा-पुष्प, हनुमान, भौंरा और ला अक्षर क्यों लिखकर दिया? गूढ़ार्थ यह है कि प्रेमिका अपना संदेश व्यक्त करना चाहती है कि उसकी और प्रेमी की दशा, चंपा और भ्रमर-सी हो रही है। दोनों मिल नहीं रहे हैं। इस हेतु वह स्त्री (चंपा) दूत (हनुमान) से कह रही है कि तू जाकर मेरे प्रेमी (भ्रमर) से कह कि मुझे मिलने की लालसा (ला) है। 'ला' का अर्थ यहाँ लाने का भी हो सकता है, मानो विरहिणी दूत से कहती हो कि तू जाकर प्रेमी को बुला ला।
कर कंपत लेखनि डुलत, रोम रोम दुख लाल।
प्रीतम कूँ पतिया लिखुं, लिखी न जात जमाल॥
हे प्रियतम ! तुम्हें पत्र लिखते समय हाथ काँप रहा है और लेखनी भी हिल रही है। विरह के कारण रोम-रोम में पीड़ा हो रही है, पत्र लिखा ही नहीं जा रहा है।
हरि हरिवदनी सों लिख्यौं, हम ध्यावत तुम ध्याउ।
का चिंता हम तुम बनें, तुम हमसे ह्वै जाउ॥
हरि (श्रीकृष्ण) ने हरिवदनी (राधिका) को लिखा, मैं तुम्हारा ध्यान करता हूँ तो तुम भी मेरा ध्यान करो। चिंता की क्या बात है? यदि तुम्हारा ध्यान करने से मैं तुम-सा बन जाऊँगा तो तुम मेरा ध्यान करके मुझ-सी बन जाओ।
प्यारी प्रीतम सों लिख्यौं, मत परियौ मौ ध्यान।
तुम मोसे ह्वै जाउगे, करिहों का पें मान॥
प्यारी ने अपने प्रियतम को लिखा कि तुम मेरा ध्यान न धरना अन्यथा तुम भी मुझ से हो जाओगे। फिर मैं मान किस पर करूँगी?
कर कंपत लेखनि डुलत, रोम-रोम दुःख लाल।
प्रीतम कूँ पतिया लिखुँ, लिखी न जात जमाल॥
हे प्रियतम! तुम्हें पत्र लिखते समय हाथ काँप रहा है और लेखनी भी हिल रही है। विरह के कारण रोम-रोम में पीड़ा हो रही है, पत्र लिखा ही नहीं जा रहा है।
बिरह सतावै रैन दिन, तऊ रटै तव नाम।
चातकि ज्यों स्वाती चहै, पाती चहै सुबाम॥
पी आवन की को कहै, सावन मास अंदेस।
पाती हू आती न ती, अरु पाती न संदेस॥