जातिवाद पर दोहे
भारतीय समाज के संदर्भ
में कवि कह गया है : ‘जाति नहीं जाती!’ प्रस्तुत चयन में जाति की विडंबना और जातिवाद के दंश के दर्द को बयान करती कविताएँ संकलित की गई हैं।
ऊँचे कुल के कारणै, ब्राह्मन कोय न होय।
जउ जानहि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मन सोय॥
मात्र ऊँचे कुल में जन्म लेने के कारण ही कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता। जो ब्रहात्मा को जानता है, रैदास कहते हैं कि वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है।
जनम जात मत पूछिए, का जात अरू पात।
रैदास पूत सब प्रभु के, कोए नहिं जात कुजात॥
रैदास कहते हैं कि किसी की जाति नहीं पूछनी चाहिए क्योंकि संसार में कोई जाति−पाँति नहीं है। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। यहाँ कोई जाति, बुरी जाति नहीं है।
रैदास इक ही बूंद सो, सब ही भयो वित्थार।
मुरखि हैं तो करत हैं, बरन अवरन विचार॥
रैदास कहते हैं कि यह सृष्टि एक ही बूँद का विस्तार है अर्थात् एक ही ईश्वर से सभी प्राणियों का विकास हुआ है; फिर भी जो लोग जात-कुजात का विचार अर्थात् जातिगत भेद−विचार करते हैं, वे नितांत मूर्ख हैं।
रैदास ब्राह्मण मति पूजिए, जए होवै गुन हीन।
पूजिहिं चरन चंडाल के, जउ होवै गुन प्रवीन॥
रैदास कहते हैं कि उस ब्राह्मण को नहीं पूजना चाहिए जो गुणहीन हो। गुणहीन ब्राह्मण की अपेक्षा गुणवान चांडाल के चरण पूजना श्रेयस्कर है।
जात पांत के फेर मंहि, उरझि रहइ सब लोग।
मानुषता कूं खात हइ, रैदास जात कर रोग॥
अज्ञानवश सभी लोग जाति−पाति के चक्कर में उलझकर रह गए हैं। रैदास कहते हैं कि यदि वे इस जातिवाद के चक्कर से नहीं निकले तो एक दिन जाति का यह रोग संपूर्ण मानवता को निगल जाएगा।
कलिजुग ही मैं मैं लखी, अति अचरज मय बात।
होत पतित-पावन पतित, छुवत पतित जब गात॥
नीचं नीच कह मारहिं, जानत नाहिं नादान।
सभ का सिरजन हार है, रैदास एकै भगवान॥
मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को छोटा समझकर उसे सताता है। रैदास कहते हैं कि नादान मनुष्य यह नहीं जानता कि सभी मनुष्यों को जन्म देने वाला एक ही ईश्वर है।
बेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्ही तउ चमार।
रैदास मानुष इक हइ, नाम धरै हइ चार॥
सब मनुष्य एक समान हैं किंतु उसके चार नाम (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र) रख दिए हैं, जैसे वेद पढ़ने वाला मनुष्य पंडित (ब्राह्मण) और जूता गाँठने वाला मनुष्य चर्मकार (शूद्र) कहलाता है।
जौ दोउनु कौ एकही, कह्यौ जनक जग-बंद।
तौ सुरसरि तें घटि कहा, यह अछूत, द्विज मंद॥
अपनावत अजहूँ न, जे अंग अछूत।
क्यों करि ह्वै हैं छूत वै, करि कारी करतूत॥
जिन पायनु तें जाह्नवी, भई प्रगटि जग-पूत।
तिनही तें प्रगटे न ए, तुम्हरे अनुज अछूत॥
का ब्राह्मन का डोम भर, का जैनी क्रिस्तान।
सत्य बात पर जो रहै, सोई जगत महान॥
मन अभिमान न कीजिए, भक्तन सो होइ भूलि।
स्वपच आदि हूँ होइँ जो, मिलिए तिनसों फूलि॥
सुर-सरि औ अंतज्य दुहूँ, अच्युत-पद-संभूत।
भयौ एक क्यों छूत, औ दूजो रह्यौ अछूत॥
जाति-पाँत की भीति तौ, प्रीति-भवन में नाहिं।
एक एकता-छतहिं की, भिलति सब काहिं॥
रही अछूतोद्धार-नद, छुआछूत-तिय डूबि।
सास्त्रन कौ तिनकौ गहति, क्रांति-भँवर सों ऊबि॥
छुआछूत-नागिन-डसी, परी जु जाति अचेत।
देत मंत्रना-मंत्र तें, गांधी-गारुड़ि चेत॥