असमाप्य अनुष्ठान : रतन थियम का रंगकर्म
शम्पा शाह
21 अक्तूबर 2025

नाटक शुरू होने के पहले की थर्ड बैल बजती है।
नाट्यशाला का अँधेरा गाढ़ा होते होते किसी प्रागैतिहासिक, चंद्रमा विहीन रात्रि के ठोस अँधेरे में बदल जाता है।
और तब पृथ्वी के किसी सुदूर कोने से एक वृन्दगान का स्वर उठता है।
शब्दातीत– एक प्रार्थना।
समूची मनुष्यता द्वारा समूची मनुष्यता के लिए अनाम भाषा में की जा रही– एक प्रार्थना।
यह प्रात बेला है– मनुष्य की चेतना के उदय की प्रात बेला!
फिर, कहीं एक अलाव के जलने की प्रतीति होती है। उसके इर्दगिर्द लोगों का समूह एक घेरे में लय-बद्ध घूमने लगता है।पृथ्वी-सा!
अभी स्वयं को प्रकृति के अगणित रूपों में से एक की तरह पहचानने का अपूर्व एहसास जागा ही था कि तभी–
एक साथ आठों दिशाओं से घोर स्वर करता हिंसा-प्रतिहिंसा का महा-चक्र चल पड़ता है। नृशंस, अघोर वह सब कुछ को तहस-नहस करता चला आ रहा है।
यह प्रात बेला है– मनुष्य के इतिहास की प्रात बेला!
देखते ही देखते लय छिन्न-भिन्न हो जाती है।
धवलता रक्त में नहा जाती है।
पूर्णता क्षत-विक्षत हो मंच पर चहुँ ओर फिंका जाती है।
यही न है काल के घूमते पहिए पर सवार इतिहास? बार-बार अपने को दुहराता हुआ? अथक !
रतन थियाम के नाटकों को देखने का अनुभव – एक अनवरत, असमाप्य अनुष्ठान के साक्षी होने जैसा होता है।
रतन थियाम चाहे भास के नाटक ‘उरुभंगम’ पर काम कर रहे हों या अज्ञेय के लिखे ‘उत्तरप्रियदर्शी’ पर या मणिपुर की स्थितियों के इर्दगिर्द स्वरचित नाटक , ‘नाइन हिल्स वन वैली’ पर काम कर रहे हों, उनकी आँख सदा समकालीन स्थितियों, घटनाओं को इतिहास की और इतिहास को समकाल की कसौटी पर कस कर देखती है। विषय-वस्तु के तौर पर उन्हें इतिहास और वर्तमान में घटती घटनाओं के बीच का सातत्य बरबस खींचता है। उनके लिए दोनों की समझ एक दूसरे के बिना नहीं बन सकती। उनके लिए इतिहास महत्वपूर्ण है लेकिन, यह समझने के लिए कि–“ हम इतिहास से यही सीखते हैं कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते” (जर्मन दार्शनिक हेगेल का प्रसिद्ध कथन)।
इसीलिए रंग निर्देशक रतन थियाम की खोज इतिहास पर आकर नहीं थम जाती। वह इतिहास से कहीं आगे या कहिए पीछे जाती है। वहाँ, जहाँ किसी नवजात शिशु को पहली बार पुरखिन की अँगूठी से अन्न चखाया जा रहा है। या साल के वृक्ष में आए पहले-पहले फूल का धूप-लोबान और महुआ चुहा कर, उत्पत्ति कथा सुना कर उत्सव मनाया जा रहा है। वह कर्म जो सामूहिकता का, नित्यता का, अपनी पहचान का, अपनी अर्थवत्ता का गहरा अहसास कराता है और जिसे हम अनुष्ठान कहते हैं। हमारे समय में बहुत कम ऐसे लेखक-कलाकार-विचारक हुए हैं जिन्होंने ‘अनुष्ठान’ का अपने काम में वह महत्व आँका और वैसा स्थान दिया है जितना और जैसा रतन थियाम ने अपने नाटकों में दिया है।
यूँ तो यह एक सर्वविदित और सर्वमान्य बात है कि नाटक विधा की उत्पत्ति ही अनुष्ठान से हुई है – चाहे वह उर्वरा शक्ति या वनस्पति के ग्रीक देवता डायनिसस का समूह या कोरस द्वारा मंत्रोच्चारों से आह्वान हो या वैदिक ऋचाओं के पाठ द्वारा प्रकृति के प्रति सामूहिक आभार का गान हो।
हमारे देश के जनजातीय समुदाय आज भी अकाल या उस जैसी कठिन स्थिति पैदा होने पर सामूहिक रूप से नृत्य-गान के साथ देवता का आह्वान करते हैं। गाँयता या पुजारी इस अवसर पर विशेष पोशाक पहनता है और मुखौटा या मुखौटे जैसी मुख सज्जा करता है। अनुष्ठान के दौरान वह देवता की महिमा नहीं गाता, बल्कि स्वयं को उस देवता की तरह प्रतिरूपित करता है। यानी, अनुष्ठान के दौरान वह स्वयं देवता के चरित्र को जीता है, एक तरह से कुछ देर को देवता बन जाता है। साम्य स्पष्ट है- एक नाटक में अभिनेता भी यही न करता है?
इतिहास में साक्ष्य मिले या न मिले लेकिन हर समुदाय ने इस ब्रह्मांड में अपनी अवस्थिति को जानने, उसमें हिस्सेदारी और एक साझा समझ को विकसित करने के लिए मिथकों, अनुष्ठानों और फिर नाटकों को रचने का सफ़र तय किया होगा ऐसा मानने के पर्याप्त कारण हैं।
नाटक का जन्म अनुष्ठान से हुआ यह एक तथ्य होते हुए भी प्रायः भुला दी गई सी बात है। यानी इस बात की अनुभूति हमें आज के नाटकों को देख कर नहीं होती। रतन थियाम की सारी प्रस्तुतियों में नाटक के स्वयं एक ‘अनुष्ठान’ होने का सत्य केन्द्रीयता से प्रतिष्ठित होता है।
वे नाटक के अनुष्ठानिक स्वरूप को अपनी प्रस्तुतियों से एक पल के लिए भी ओझल नहीं होने देते। उनके यहाँ किन्हीं ख़ास ध्वनियों, उच्चारों, लय-गतियों, दृश्य बंधों, मंच सामग्री के उपयोग के क्रमबद्ध दोहराव व नैरन्तर्य से सृजित हुए पैटर्न द्वारा नाटक का अनुष्ठानिक स्वरूप खड़ा होता है।
उनके नाटक–नुंगशिबी पृथ्वी ( माय लव!माय अर्थ!) में पीछे मंच के एक कोने में बैठी उस बुज़ुर्ग़ स्त्री को याद करिए जो करघे पर अनंत काल से बिना रुके प्रेम, उम्मीद और शांति का कपड़ा बुने जा रही है। जबकि सामने मंच के पूरे वितान में इतिहास का खूनी, दमनचक्र एक के बाद एक रूप बदलता- कभी विश्व युद्ध, कॉन्सेंट्रेशन कैंप, हिरोशिमा, वियतनाम, खाड़ी युद्ध आदि आदि के रूप में विध्वंस मचाता चलता चला जाता है।
इस तमाम हिंसा के बीच और उसके बावजूद वह बुज़ुर्ग स्त्री आशा, प्रेम और शांति का वस्त्र बुनने का अनुष्ठान अविचल भाव से किए जाती है।
यदि वह यह न करे तो आने वाली पीढ़ी के लिये क्या बचेगा?
आने वाली पीढ़ी तब प्रेम और शांति के स्वरूप को कैसे जानेगी?
रतन थियाम के लगभग हर नाटक में सयानों यानी ‘अनुभव’ की यही भूमिका देखने मिलती है – बार-बार उस समय का स्मरण कराना जब दुनिया युद्ध की निरंतर विभीषिका में नहीं झोंक दी गई थी।
उनके नाटकों में सयाने लोग प्राचीन ग्रंथों, लिपियों में लिखी गूढ़ बातों को पढ़ते हैं। और कभी कभी– जैसा कि ‘नाइन हिल्स वन वैली’ नाटक में होता है वे इन ग्रंथों को दोबारा भी लिखते हैं क्यों कि पिछला स्मृति से मिट गया है। उस आदिम स्थिति की स्मृति रहेगी तो मनुष्यता भी बचेगी। इस नाटक के अंत में नौ पहाड़ियों पर दीपों का टिमटिमा उठना इसी उम्मीद का सुंदरतम अनुष्ठानिक रूपांतरण है।
उपरोक्त बात के संदर्भ में सन् 2000 में न्यू यॉर्क टाइम्स के लिए मार्गो जैफ़रसन ( जिन्हें आलोचना के लिए 1995 में पुलिट्ज़र पुरस्कार से नवाज़ा गया था) की लिखी एक ज़बरदस्त बात का ज़िक्र ज़रूरी है। उन्होंने रतन थियाम को “जीनियस” और उनके नाटक ‘उत्तरप्रियदर्शी को देखने के अनुभव को “ट्रांसेंडेंट या अनुभववातीत” बताते हुए लिखा था, –
“हमें ऐसे नाटकों की आवश्यकता है जो इतिहास को अनुष्ठान से जोड़ते हैं, इसलिए नहीं की अनुष्ठान को इतिहास का अतिक्रमण करना चाहिए बल्कि इसलिए कि अनुष्ठान इतिहास को रूपांतरित कर सकता है।” वे आगे जोड़ती हैं–“ आप इस रूपांतरण को जान सकते हैं यदि आपको मणिपुर, भारत के रंगकर्मी- रतन थियाम की कोरस नाट्य मंडली का नाट्य मंचन देखने का सौभाग्य प्राप्त हो सके!”
रतन थियाम के नाटकों की एक अन्य खूबी उनका ऐंद्रिक वैभव है। मुख्य रूप से दृश्य और श्रव्य प्रधान उनकी प्रस्तुतियों का असर जैसे दर्शक के समूचे स्नायु तंत्र और इंद्रियों पर होता है। वे मंच की ख़ाली स्पेस को किसी मूर्तिकार की तरह तराशते हुए ना-ना रूपों का सृजन-सा करते चले जाते हैं। उनके यहाँ मंच हमेशा ख़ाली और विस्तृत रहता है। प्रस्तुति के दौरान यह एक गतिमान, लगातार रूपांतरित हो रही जादुई स्पेस में बदलता जाता है। उनके नाटक के दृश्यों की चित्रात्मकता की बात बहुधा कही गई है। वे स्वयं भी पहले चित्रकार और फिर लेखक बनना चाहते थे, रंगकर्मी तो कदापि नहीं! (अनेक साक्षात्कारों में उन्होंने यह कहा है।)
मंजरी श्रीवास्तव, जिन्होंने उनके नाटकों पर शोध किया है, ने उनके नाटक ‘ऋतु संहार’ पर लिखते हुए कई दृश्य बंधों की सुंदर तुलना मिनिएचर चित्रों से की है। वे अपने लेख में बार-बार कह उठती हैं कि जीवन वैसा सुंदर क्यों नहीं है जितना कि वह रतन थियाम के नाटकों में भासित होता है?! वे एक जगह रतन थियाम को उद्धृत करती हैं जहाँ वे कह रहे हैं–“ मुझे अपने मन में कालिदास से यह सवाल पूछते रहना अच्छा लगता है कि आप तो सशक्त कल्पनासंपन्न हैं, पर क्या मैं आपके आस-पास भी फ़टक सकता हूँ?”
एक दर्शक के बतौर मैं भी मंजरी श्रीवास्तव के साथ यह दावे से कह सकती हूँ कि महाकवि कालिदास की कालजयी कृति रतन थियाम की इस प्रस्तुति में जीवंत हो साँस लेने लगती है।
मुझमें वे यदि चित्रकार से अधिक एक मूर्तिकार होने का भाव जगाते हैं तो वह इसलिए कि उनके यहाँ सब कुछ त्रि-आयामी है। उन्होंने नाटकों में चित्रित दृश्य-पट का इस्तेमाल नहीं किया बल्कि, उनके मंच पर वृक्ष का बासंती वैभव हो या सरोवर में खिले कमल-दल, या मणिपुर की पहाड़ियाँ या हाथी पर आसीन सम्राट प्रियदर्शी या सुभद्रा के गर्भ में चक्रव्यूह को भेदने का वर्णन सुनता अभिमन्यु, सब के सब मंच पर त्रि-आयामी, बहुत ही माँसल, धड़कते हुए स्वरूप में उपस्थित होते हैं। कमल के गोल-गोल हवा में उलटते-पलटते पत्ते, और खिलने की कई अवस्थाओं में उसके फूल कुछ इतने सजीव दिखाई पड़ते हैं की जितने शायद असल में भी महसूस नहीं होते। किसी जादू की तरह साधारण-सी चटाइयों के ऊँचे डांड पर से फिसल कर गिरने से पहाड़ियाँ निर्मित हो जाती हैं और उन पर दीप जल उठते हैं! रक्तिम पताकाएँ जो ज्वलंत अग्निशिखाओं-सी गगन छूती हैं उनके बीच से गर्वांध प्रियदर्शी के मंच पर आगमन का दृश्य भुलाया नहीं जा सकता। ‘चक्रव्यूह’ नाटक में मंच पर ऊपर अर्जुन-सुभद्रा के बीच प्रणय भरी रात है। सुभद्रा के किसी प्रश्न के जवाब में अर्जुन उन्हें चक्रव्यूह को निरस्त करने का भेद बता रहे हैं और मंच पर नीचे वे सप्तरथी जिनके हाथों भविष्य में अभिमन्यु का वध होगा, हाथों में रक्तिम धागों से सुसज्जित मंजीरों को बजाते हुए अभिमन्यु को घेरे सुभद्रा का गर्भ रचते हैं। गर्भ के भीतर से अभिमन्यु माँ को जगाने के लिए दस्तकें देता रह जाता है पर ऊपर अलसाई माँ नींद की नदी में सो जाती है। सुभद्रा चक्रव्यूह से निकलने की तरकीब नहीं सुनती, सिर्फ़ उसे भेद कर भीतर घुसने का वर्णन सुनती है और इस तरह अनजाने ही अपने पुत्र की मृत्यु में एक कारक बन जाती है। यहाँ उन सप्त महारथियों जिनके हाथों भविष्य में अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस कर मारा जाएगा उन्हीं से सुभद्रा के गर्भ के घेरे को बनाना ‘स्ट्रोक ऑफ़ जीनियस’ ही कहलाएगा।
इन तमाम दृश्य बंधों को खड़ा करने में प्रकाश संयोजन की बड़ी भूमिका है। एक तरह से प्रकाश ही वह छेनी है जिससे रतन थियाम मंच को कई स्तरों में विभाजित कर उस पर एक के बाद एक कई रूप-विधान गढ़ते जाते हैं।
पर रतन थियाम के नाटकों के अमिट प्रभाव छोड़ने के पीछे सबसे अमूल्य निधि तो अभिनेताओं का शरीर और उनकी वाचा ही रही है। उनके नाटकों में अभिनेता चेहरे के हाव-भाव से अधिक अपने पूरे शरीर और आवाज़ के विविध प्रकारों और उतार-चढ़ाव से यानी आंगिक तथा वाचिक अभिनय से अपनी बात को कहते हैं।
उनके अभिनेताओं के शरीर विभिन्न भावों को व्यक्त करने के लिए मानो गीली मिट्टी की तरह लोचदार हो इतनी लयों में ढल पाते हैं कि अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। ‘अंधायुग’ नाटक में अश्वत्थामा के धनुष रूपी अभिनेता की छबि को एक बार देखने के बाद कभी भुलाया नहीं जा सकता। एक ओर अश्वत्थामा के मन में अपने पिता द्रोण की छल से हुई मृत्यु का प्रतिशोध लेने की आग धधक रही है और वहीं दुर्योधन के हार स्वीकारने से वह खिन्न-पराजित है। उसकी इस द्वंद्वात्मक मनोदशा का मार्मिक चित्रण उसके अपने धनुष के साथ संवाद और व्यवहार में चरितार्थ होता है। इस दृश्य में अपने धनुष यानी अपने पराक्रम की व्यर्थता के बोध से वह अंततः अपने धनुष को मरोड़ कर खंडित कर देता है।
रतन थियाम ने इस दृश्य में एक अभिनेता को उस निर्जीव धनुष की भूमिका दी है जो अश्वत्थामा द्वारा तोड़ दिये जाने से पहले उसके क्रोध, विवषता, दैन्य, अहंकार, पौरुष सबको झेलता है। इस दृश्य को देखते हुए और देखने के बाद भी धनुष रूपी अभिनेता के शारीरिक लोच और नियंत्रण पर सिर्फ़ और सिर्फ़ चकित हुआ जा सकता है। शरीर ओलंपिक के जिमनास्टों की तरह रबड़ का जान पड़ता है लेकिन यहाँ वह जैसे एक निर्जीव, मूक वस्तु की बेबसी के साथ-साथ उस वस्तु के मालिक की बेबसी का भी मर्मांतक बिंब रच डालता है।
इसी तरह ‘उत्तरप्रियदर्शी’ नाटक में जब प्रियदर्शी अपने रचे नरक में स्वयं बंधक बना लिया जाता है और घोर नामक उस नरक के स्वामी के हाथों क्रूरतम आघात् सहता है, तब उस दृश्य में भी न तो घोर के हाथ में पाश है, न चाबुक फिर भी वह दृश्य मानवीय क्रूरता की जीती जागती मिसाल-सा आँखों के आगे खड़ा हो जाता है। राजा के शरीर का यहाँ से वहाँ खिंचना, घिसटना, दर्द से पछाड़ खाना मंच पर साक्षात नरक की अनुभूति रच देता है। नाज़ी यातना ग्रहों से लगाकर हिरोशिमा की त्रासदी तक सब मन-पटल पर घूम जाते हैं।
इब्सन के नाटक ‘व्हेन वी डैड अवेकन’ में कलाकार के मन में चलते द्वन्द, कला और प्रेम के बीच चुनाव से उपजने वाले दुर्निवार द्वन्द को जिस अपूर्व ऐंद्रिक दृश्य विधान (नदी, नौका, गुज़रते कमल-दल, पक्षिओं के झुंड) के साथ संजोया गया वह उस आस्तित्विक द्वन्द को कई गुना कर देता है।
रतन थियाम अपने साक्षात्कारों में बार-बार इस बात को कहते हैं कि रंगमंच सभी कलाओं के समावेश से बनने वाली ‘कंपोज़िट’ या संश्लिष्ट कला है और इसीलिए उन्हें लगता है कि इसमें दुनिया भर की अमानवीय सत्ताओं, हिंसा और अन्याय का प्रतिरोध करने की सबसे अधिक शक्ति है। वे कहते हैं कि प्रतिरोध की यह आवाज़ क्यों कि सौंदर्यपूरित होती है, इसीलिए असरदार भी होती है। वह देखने वालों के मन पर अमिट छाप छोड़ती है।
एक ओर सौंदर्य के प्रति गहरी आसक्ति और निष्ठा तो दूसरी ओर सत्य और न्याय के लिए अडिग प्रतिबद्धता – ये दो विपरीत से जान पड़ते ध्रुव हैं लेकिन रतन थियाम के नाट्यकर्म में इनके बीच चुनाव की गुंजाइश नहीं होती।
उनका खेला गया शायद ही कोई नाटक हो जो किसी न किसी रूप में मणिपुर की समाजिक, आर्थिक, राजनैतिक उथल-पुथल और वहाँ के लोगों की व्यथा, ग़ुस्से और उनके साथ हो रहे अन्याय को बिम्बित न करता हो। दूसरी ओर वह मणिपुर के सांस्कृतिक वैभव, वहाँ के लोगों की देशज ज्ञान व कला परंपराओं को भी उतने ही लाघव और ज़िम्मेदारी से प्रस्तुति में समाहित करते हैं।
मणिपुर की नृत्य-गान परंपराओं, उनकी वेशभूषा का सौंदर्य देश की तमाम अन्य नृत्य शैलियों से कोमलतर है। उसमें शांत रस की व्याप्ति सी है। लेकिन दुर्भाग्य से मणिपुर पिछले लगभग चालीस सालों से हिंसा के चक्र में फँसा हुआ है। हिंसा और शांत सौंदर्य दो बेमेल चीज़ें हैं, लेकिन ये दोनों ही मणिपुर का सत्य हैं।
यूँ देखो तो जो मणिपुर के लिए सत्य है वही मोटे तौर पर दुनिया के लिए भी सत्य है। चाहे वह यूक्रेन हो या गाज़ा या उससे पहले वियेतनाम, या उससे पहले हिरोशिमा आदि आदि– वहाँ जो मरते हैं, सबसे अधिक अन्याय और हिंसा बच्चे, औरतें, बुज़ुर्ग़ और निर्दोष, बेगुनाह लोग ही झेलते हैं जिनका सत्ता और आर्थिक लोलुपता से कोई वास्ता नहीं होता।
हिंसा और प्रेम, युद्ध और शांति, अन्याय और मानवीयता यही वे विरोधी युग्म हैं जो रतन थियाम के नाटकों का ताना-बाना रचते हैं। रंगकर्म की नामी आलोचक कविता नागपाल ने उनके नाटकों को “शांति के पक्ष में रची गई एक पुरज़ोर दलील” कहा है। जैसे महाभारत को पढ़ने-देखने के बाद जो भाव मन मस्तिष्क पर छा जाता है वह शांति या करुणा का भाव माना गया है। उसी तरह रतन थियाम के नाटकों में इतिहास और समकालीन स्थितियों, घटनाओं से रूबरू होते हुए आप ख़ुद को विश्व शांति और मानवीय करुणा की क्षीण आशा के साथ खड़ा पाते हैं।
कविता नागपाल ने (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, जर्नल मई 2004) रतन थियाम के रंग-कर्म को कुछ यूँ परिभाषित किया था, –“वैचारिक रूप से समकालीन, तकनीकी रूप से साहसी, सार्वभौम चिंता के विषय वस्तु का ऐसे रंगमंचीय मुहावरे में प्रस्तुतीकरण जिसकी जड़ें परंपरा में धँसी हुई हैं, लेकिन जो आविष्कारी सृजनशीलता और सतत रूप से प्रयोगात्मक है।”
यह परिभाषा अपने में रतन थियाम के रंगमंच की अनेक विशेषताओं को समेटती है।ये विशेषताएँ कैसे प्रकट हुईं इसके लिए उनके जीवन पर नज़र डालनी होगी।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पढ़ाई ख़त्म होने के बाद रतन थियाम के मन में यह बात साफ़ थी कि उन्हें मणिपुर लौट कर अपने लोगों के बीच रंगमंच करना है। नाट्य विद्यालय की पढ़ाई ने उनकी समझ को व्यापक बनाया, दुनिया भर के रंगमंच से परिचित कराया पर ट्रेनिंग एक तरह से यथार्थवादी आधुनिक शैली में हुई थी। यह बात उन्होंने तरुण तेजपाल से हुई अपनी बातचीत में कही है। हबीब तनवीर की तरह रतन थियाम के मन में भी यह बात स्पष्ट थी कि जो कहना है उसे जब तक अपनी ज़ुबान, अपने ख़ास मुहावरे और जड़ों से जुड़ कर न कहा जाए तब तक उसमें असर पैदा नहीं हो पाता। रतन थियाम के माता-पिता मणिपुरी नृत्य में पारंगत थे, उनका बचपन अपने माता-पिता की प्रस्तुतियाँ देखते, उनके साथ यात्रा करते हुए बीता था। लेकिन रतन थियाम को बहुत जल्दी इस बात का भी अंदाज़ा हो गया था कि महज़ पारंपरिक नृत्य-गान शैलियों का जस का तस प्रदर्शन समकालीन स्थितियों को अभिव्यक्त करने के लिए अपर्याप्त है। यह भी कि इन पारंपरिक शैलियों को आत्मसात् कर उन्हें नए विषयों, समकालीन स्थितियों को वहन और व्यक्त करने योग्य बनाना होगा।
सदियों से चली आ रही परंपरा को पुनर्विन्यस्त करना कठिन काम है। यह काम दो-चार सालों में या चंद नाटक तैयार करने से नहीं होता। इसके लिए एक जीवन भी कई बार कम पड़ जाता है। रतन थियाम जब पढ़ाई समाप्त कर देश की राजधानी से मणिपुर लौटे तो उन्होंने सबसे पहले युवा अभिनेताओं का एक दल बनाया जो कुछ नया करने के लिए उन्हीं की तरह बेचैन था। उन्होंने 1976 में कोरस नाट्य मंडली बनाई जिसका स्वरूप गाँधी और टैगौर के शिक्षा के विचारों से मेल खाता हुआ मनुष्य के संपूर्ण विकास को केंद्र में रख कर चलता है। कोरस मंडली के हर सदस्य के लिए ख़ाना बनाना, कपड़े सीना, सब्ज़ी-फूल उगाना, कविता-कहानियों का पाठ करना और नाटक के सभी पक्षों– प्रकाश सज्जा, मंच सामग्री या प्रॉप्स तैयार करना शामिल किया गया। अपने शरीर और आवाज़ को अधिक से अधिक लोचदार और ऊर्जस्व बनाने के लिए वे एक-एक कर मणिपुर की तमाम पारंपरिक शैलियों के गुरुओं के पास गए।
यूँ तो भारत के तमाम प्रांतों में अपनी पुराण कथाओं, महाकाव्य– महाभारत और रामायण आदि को प्रस्तुत करने की विशिष्ट पारंपरिक शैलियाँ मौजूद हैं लेकिन संभवतः मणिपुर इनमें सांस्कृतिक रूप से सबसे अधिक संपन्न है। रामायण-महाभारत की कथाओं को कहने की ‘वारी लीबा’ शैली जिसमें भावों को मुख्यतया शब्दों, अक्षरों के उच्चार में वज़न के फ़र्क़ और शारीरिक भंगिमाओं से व्यक्त किया जाता है, तो वहीं लईरिक हईबा थीबा शैली में एक अभिनेता कथा कहता है, तो दूसरा उसका खुलासा करता चलता है। मणिपुर का मैतेई समुदाय प्रकृति, विशेषकर वृक्षों की पावनता का उत्सव ‘लाई हरऊबा’ नृत्य-गान के साथ मनाता है, तो गोविंद के साथ होली खेलना, उनके रंग में रंग जाना ‘नट संकीर्तन’ और ‘रास लीला’ की अत्यंत कोमल लयपूर्ण शारीरिक भंगिमाओं से संभव होता है।
रतन थियाम ‘थांग-ता’ नामक मार्शल आर्ट या युद्ध कौशल के बारे में उन पर बनी फ़िल्म में कहते हैं-“ यह याद रखना बेहद ज़रूरी है कि ‘थांग-ता’ दूसरे को मारने या शारीरिक चोट पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि अपने शरीर और मन पर संपूर्ण नियंत्रण पाने के लिए किया जाता है।”
इन सभी पारंपरिक शैलियों के गहन अभ्यास ने कोरस नाट्य मंडली के अभिनेताओं को खिलाड़ियों जैसे सुतवाँ और नियंत्रित शरीर से लैस किया। इसी एकाग्र और संतुलित मन, शरीर और वाक् से फिर रतन थियाम ने अपने समकालीन और सार्वभौम सरोकारों वाले नाटकों को प्रस्तुत करने की एक नितांत नई रंग भाषा रच कर दुनिया के रंग परिदृश्य में खलबली पैदा कर दी। उन्होंने रंग मंच का एक ऐसा मुहावरा तैयार किया जिसके लिए साधना, प्रयोगशीलता, कल्पनाशक्ति, इतिहास, परंपरा, समकालीन समय की जटिलता की समझ एक साथ दरकार होती है।
वर्ष 2013 में संस्कृति संचनालय,मध्य प्रदेश द्वारा भोपाल में ‘रंग सोपान’ नाम से रतन थियाम पर केंद्रित एक वृहद् आयोजन किया गया था जिसमें उनके तब तक किए गए प्रायः सभी नाटकों का मंचन हुआ था। मैं उनके चार नाटक अलग-अलग मौक़ों पर पहले देख चुकी थी और उनकी नाट्य शैली से अभिभूत थी। लेकिन एक साथ नौ नाटकों को देखना वाकई भोपाल वासियों के लिए एक अपूर्व सौग़ात थी। चक्रव्यूह, उरुभंगम, व्हेन वी डैड अवेकन, नाइन हिल्स वन वैली, ऋतु संहार, उत्तरप्रियदर्शी आदि नाटकों को एक साथ देखना इतना आह्लादकारी अनुभव था कि रात भर स्वप्न में भी दृश्य चलते रहते थे। उन दिनों अपने आस-पास की तमाम चीज़ों को देखने की आँख ही मानो बदल गई थी। नाटकों के मंचन के लिए उनके दिए गए निर्देशों को ध्यान में रखते हुए रंगकर्मी अनूप जोशी द्वारा विशेष मंच निर्मित किया गया था। हर सुबह रतन जी अपने ग्रुप के साथ वहाँ रिहर्सल करते थे। अंतिम तीन दिवसों में आयोजकों से अनुमति ले मैं रिहर्सल देखने भी जाने लगी। मैं उन्हें और उनके अभिनेताओं को दूर से देखती रहती और अपनी कॉपी में नोट्स लेती रहती। उनसे बात करने का मन तो बहुत होता पर हिम्मत न पड़ती। लगता कि कहीं उनके काम में विघ्न न डाल दूँ। तीसरे यानी अंतिम दिन वे अपनी कुर्सी से अचानक मुड़कर मेरे पास आए और बोले, –“दूर से क्या ज़्यादा अच्छा दिखता है?”
मैं अचकचा गई और मेरे मुँह से निकला –“ मैं रिहर्सल नहीं, आपको देखने आती हूँ कि क्या आप वही व्यक्ति हैं जो हर शाम हमारी आँखों के आगे ऐसा जादुई संसार रचते हैं?”
वे पास की कुर्सी में बैठ गए और उन्होंने एक मज़ेदार वाक़या सुनाया। क़िस्सा कुछ यूँ है–
कुछ हफ़्ते पहले वे अपने घर की गली से निकले तो सामने से एक बच्चा आ रहा था। वह ठिठक कर उन्हें देखने लगा। उन्होंने उसकी ओर मुस्कुरा कर हाथ हिलाया पर वह प्रश्नवाचक निगाहों से उन्हें एक टक देखता रहा। थोड़ी देर बाद जब वे लौट आए तो वह बच्चा अपनी माँ के साथ, हाथ में एक किताब लिए उनके घर आया। वह अभी भी एक टक उन्हें देख रहा था। फिर उसने किताब खोली और उसमें बने चित्र से उनके चेहरे को मिला कर देखने लगा। उसकी माँ ने बताया कि उसकी किताब में रतन थियाम की तस्वीर और छोटा सा अध्याय है। लेकिन, बच्चा यह तय नहीं कर पा रहा है कि तस्वीर में जो हैं वे उसके घर की गली में रहने वाले व्यक्ति ही हैं। वह इसी बात का पक्का पता लगाने के लिए किताब लेकर आया था। कुछ देर तक तस्वीर के साथ रतन जी की सूरत का मिलान कर वह बच्चा बोला –“ नहीं, आप मोटे हैं, रतन थियाम इतने मोटे नहीं है!”
इस दिलचस्प वाक़ये को बताने के बाद रतन जी हँसते हुए मेरी ओर देख बोले–“ लगता है आपको भी मुझमें शाम को जादू दिखाने वाला रतन थियाम नहीं मिल रहा!”
हँसी थमी तो मैंने कहा कि मेरे मन में आपसे पूछने के लिए बहुत सारे प्रश्न हैं, बातें हैं, क्या बात करने के लिए कुछ समय मिल सकता है? वे सिर पकड़ते हुए बोले कि पिछले पंद्रह दिनों से भोपाल में हूँ, आप पहले क्यों नहीं आईं अपनी कॉपी लेकर? मुझे अपने स्वभाव पर कोफ़्त हुई, मलाल हुआ लेकिन अब किया ही क्या जा सकता था?
अगले दिन सुबह उन्हें दिल्ली के लिए निकल जाना था और उस रोज़ भोजन के बाद उन्हें मध्य प्रदेश ट्राइबल म्यूज़ियम देखने जाना था।
उस घड़ी मेरे पास भी एक राज़ था जिसका ख़ुलासा न करते हुए मैंने पूछा - अच्छा, सिर्फ़ यह बता दीजिए कि अज्ञेय के और आपके ‘उत्तरप्रियदर्शी’ में या इब्सन और आपके ‘व्हेन वी डैड अवेकन’ में क्या फर्क है?
वे बोले– “अज्ञेय और इब्सन का नाटक शब्दों और उसके बीच के अंतरालों से रचा गया है। मेरा नाटक उन शब्दों और अंतरालों में छुपी हुई बातों, अहसासों को स्वर, ध्वनि, प्रकाश, अंधकार, शरीर, वस्तु, नृत्य, भाव, संगीत, गान, रंग,आकार आदि के संगुम्फन से रचता है। इसीलिए मेरा ‘उत्तरप्रियदर्शी’ वही बात कहते हुए भी अनुभूति के स्तर पर पूरी तरह से बदल जाता है। वह अब मेरी रंग भाषा में गढ़ा गया उत्तरप्रियदर्शी है।”
उन्होंने आगे जोड़ा–“रंगकर्म में सारी कलाएँ समाहित हैं। उसमें अनंत संभावनाएँ हैं और इसीलिए मैं रंगकर्म करता हूँ। पर सच यही है कि जब मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पढ़ता था तब मुझे थोड़ा पता था कि रंगकर्म क्या होता है, लेकिन आज मैं यह बिल्कुल नहीं जानता। आज मुझे इसकी हर परिभाषा अधूरी लगती है।”
इतने में कुछ लोग उन्हें खोजते हुए आ पहुँचे और मैंने उनसे फिर कभी मिलने के सुयोग की कामना के साथ विदा ली।
जो राज़ मैंने उन्हें नहीं बताया था वह यह था कि उन्हें उस रोज़ दोपहर तीन बजे ट्राइबल म्यूज़ियम मैं ही दिखाने वाली थी!
मैं मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय के बनने की शुरूवात से बतौर लोक एवं जनजातीय मिथक एवं कला विशेषज्ञ उससे जुड़ी थी। उसका कॉनसेप्ट नोट तथा सारी लिखित सामग्री मेरे ही द्वारा तैयार की गई थी। दीर्घाओं में कौन से प्रादर्श और मिथकों का समावेश हो जिनसे उन जनजातियों की जीवन दृष्टि की झलक दर्शकों को मिल सके यह तय करना भी मेरा काम था। लिहाज़ा मुझे संग्रहालय के एक-एक प्रादर्श के बनने से लगा कर उसके महत्व के बारे में हर बात पता थी।
तीन बजे जब रतन थियाम संग्रहालय आए तो वहाँ मुझे अपनी विशेष गाईड की भूमिका में पा कर चौंक गए। मैं इस कदर उत्साहित थी कि बहुत संभव है मैंने पाँचों जनजातियों के मिथकों को आपस में गड्ड-मड्ड कर उन्हें सुना डाला हो! बहरहाल, वे कोई दो घंटे तक मेरे साथ रम कर संग्रहालय देखते रहे। इस दौरान मैंने उन्हें कई जनजातीय कलाकारों से भी मिलवाया। उन्होंने जनजातीय बच्चों के खेलों से जुड़ी दीर्घा में मुझसे सबसे अधिक सवाल पूछे थे। बाद में चाय पीने के दौरान उन्होंने बताया कि वे इम्फ़ाल में कोरस रेपर्टरी के अपने दो एकड़ के कैंपस में बच्चों के खेलों पर केंद्रित संग्रहालय बनाना चाहते हैं। उन्होंने मुझे उस संग्रहालय को बनाने में मदद करने के लिए खुला आमंत्रण भी दिया।
चाय के दौरान ही मैंने उनसे पूछा कि यदि मध्य प्रदेश में आ कर यहीं के कलाकारों के साथ उन्हें कोई नाटक तैयार करना हो तो उसका स्वरूप उनके नाटकों से क्या बिल्कुल भिन्न होगा जिनमें मणिपुर की लोक परंपराओं की गहन उपस्थिति होती है?
रतन थियाम बोले – “ मैं समझता हूँ कि लोगों की पहचान उनकी संस्कृति और परंपरा से बनती है। यहाँ की जनजातियों के साथ काम करूँगा तो उनकी परंपरा के तत्व ज़रूर आएँगे।”
आगे उन्होंने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात जोड़ी जिसका साझा ज़रूरी है। वे बोले,–
“ हमारे लोक एवं जनजातीय समाज शारीरिक श्रम करते हैं। वे यांत्रिक ऊर्जा पर निर्भर नहीं हैं। मैं समझता हूँ कि ये बहुत बड़ी बात है। शहरों में हम बिजली, गाड़ी, फ़ोन, कंप्यूटर और दूसरी मशीनों के बिना कुछ नहीं कर सकते। नाटक में शारीरिक ऊर्जा का बहुत महत्व होता है। मैं अपने नाटकों में अपने अभिनेताओं की शारीरिक शक्ति का ही ना-ना प्रकार से प्रयोग करता हूँ। मेरे लिये एक अभिनेता का शरीर ही रंग प्रयोगशाला है! ”
शाम हो गई थी और कार्यक्रम की अंतिम प्रस्तुति का समय निकट आ रहा था, रतन जी को लौटना था और मुझे भी उनकी प्रस्तुति देखने जाना था।
बाकी प्रश्न कॉपी में लिखे तब से आज तक अनुत्तरित ही बने रह आए। मैं अन्यान्य कारणों से उनके बच्चों के खेलों से जुड़े संग्रहालय के बनने में भी शामिल नहीं हो पाई। जीवन का स्वरूप ऐसा है कि जिन लोगों या जिनकी कला ने हमें सर्वाधिक स्मृद्ध किया होता है हम उन्हीं को अपना आभार प्रकट नहीं कर पाते।
अभी 23जुलाई 2025 को वे अपनी इस ‘हे नुंगशिबी पृथ्वी’ (My Love! My Earth!) को सदा सदा के लिए सूना कर गए।
रतन थियाम और उनकी थाती के प्रति सदा कृतज्ञ हूँ, रहूँगी।
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