बाँसुरी पर दोहे

हिंदी के भक्ति-काव्य

में कृष्ण का विशिष्ट स्थान है और इस रूप में कृष्ण की बाँसुरी स्वयं कृष्ण का प्रतीक बन जाती है।

तनिक धीरज धरि सकै, सुनि धुनि होत अधीन।

बंसी बंसीलाल की, बंधन कों मन-मीन॥

श्रीभट्ट

थिर कीन्हेंचर,चर सुथिर, हरि-मुख मुरली बाजि।

खरब सुकीनो सबनि कों, महागरब सों गाजि॥

नागरीदास

बंसी बाजै लाल की, गन गंधर्व बिहाल।

ग्रह तजि-तजि तहँ कुल वधु, स्रवनन सुनत जमाल॥

जिस समय लाल की बंशी बजती है तो उसे सुनकर गंधर्व-गण बेसुध हो जाते हैं और ब्रज की कुलवधुएँ भी गृह कार्य तज कर उसे ध्यान से सुनने लगती हैं।

जमाल

हा हा! अब रहि मौन गहि, मुरली करति अधीर।

मोसी ह्वै जो तू सुनै, तब कछु पावै पीर॥

नागरीदास

सब कौ मन ले हाथ में, पकरि नचाई हाथ।

एक हाथ की मुरलिया, लगि पिय-अधरनि साथ॥

नागरीदास

कियौ न, करिहै कौन नहिं, पिय सुहाग कौ राज।

अरी, बावरी बँसुरिया, मुख-लागी मति गाज॥

नागरीदास

तो कारन गृह-सुख तजे, सह्यो जगत कौ बैर।

हमसों तोसों मुरलिया, कौन जनम कौ घैर॥

नागरीदास

अभिमानी मुरलिया, करी सुहागिनि स्याम।

अरी, चलाये सबनि पै, भले चाम के दाम॥

नागरीदास

वह मुरली अधरान की, वह चितवन की कोर।

सघन कुञ्ज की वह छटा, अरु वह जमुन-हिंलोर॥

सत्यनारायण कविरत्न

बंस-बंस में प्रगटि भई, सब जग करत प्रसंस।

बंसी हरि-मुख सों लगी, धन्य वंस कौ बंस॥

नागरीदास

तूहूँ ब्रज की मुरलिया, हमहूँ ब्रज की नारि।

एक बास की कान करि, पढ़ि-पढ़ि मंत्र मारि॥

नागरीदास

मुख मूँदे रहु मुरलिया, कहा करति उतपात।

तेरे हाँसी घर-बसी, औरन के घर जात॥

नागरीदास

सुखी बँसुरी आपु है, क्यौं जाने पर पीर।

बजि-बजि रोजहिं आपु लौ, कियो चहत है बीर॥

भूपति

हरि चित लियो चुरायकैं, रह्यौ परत नहिं मौन।

तापर बंसी बाज मति, देह कटे पर लौन॥

नागरीदास

फूँकनि के चल तीर तन, लगे परतु नहिं चैनु।

अंग-अंग आप विधाइकै, हमहूँ बेधतु बैनु॥

नागरीदास

सबद सुनवात हमहिं तूँ, देत नहीं छिन चैनु।

अनबोली रहु तनिक तौ, बकवादी बैनु॥

नागरीदास

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