पत्नी पर दोहे
प्रस्तुत है कवि-पत्नी,
पत्नियों को समर्पित और कविता में पत्नियाँ विषयक कविताओं का एक अनूठा चयन।
कंत घरे किम आविया, तेहां रौ घण त्रास।
लहँगे मूझ लुकीजियै, बैरी रौ न विसास॥
कायर पति के प्रति वीरांगना की व्यंग्यात्मक उक्ति है—हे पति-देव! घर कैसे पधार
आए? क्या तलवारों का बहुत डर लगा? ठीक तो है। आइए, मेरे लहँगे में छिप
धव जीवे भव खोवियौ, मो मन मरियौ आज।
मोनूं ओछै कंचुवै, हाथ दिखातां लाज॥
हे पति! तुमने युद्ध में जीवित बचकर (अपनी कीर्ति को नष्ट करके) जन्म ही वृथा खो दिया। अतः मेरे मन का सारा उल्लास आज मर गया है। अब मुझे सुहाग-चिह्न ओछी कंचुकी में हाथ लगाते भी अर्थात् पहनने में भी लज्जा आती है। इस प्रकार के सौभाग्य से तो वैधव्य अच्छा!
कंत सुपेती देखतां, अब की जीवण आस।
मो थण रहणै हाथ हूँ, घातै मुंहड़ै घास॥
हे कंत! बालों की सफ़ेदी देखते हुए अब और जीने की कितनी आशा है कि मेरे स्तनों पर रहने वाले हाथों से शत्रु के सामने आप मुँह में तिनका ले लेते हैं! अर्थात् आप जैसे वृद्ध को जीवन के प्रति मोह दिखाकर मुझ जैसी वीरांगना को लज्जित नहीं करना चाहिए।
कंत भलाँ घर आविया, पहरीजै मो बेस।
अब धण लाजी चूड़ियाँ, भव दूजै भेटेस॥
हे कंत! आप घर पधार आए हैं तो अच्छी बात है! मेरे वस्त्र पहन लीजिए। आपकी पत्नी तो इन चूड़ियों से लज्जित हो रही है। उससे तो दूसरे जन्म में ही भेंट हो सकेगी अर्थात् जीते जी अपना मिलन नहीं होगा।
मणिहारी जा रही सखी, अब न हवेली आव।
पीव मुवा घर आविया, विधवां किसा बणाव॥
हे सखी मनिहारिन! चली जा; फिर इस घर पर न आना। पति मरे हुए घर आ गए हैं (युद्ध से भागकर आना मरण समान है); फिर मुझ जैसी विधवाओं के लिए शृंगार कैसा?
कंत लखीजै दोहि कुल, नथी फिरंती छाँह।
मुड़ियां मिलसी गींदवौ, वले न धणरी बाँह॥
हे पति! अपने दोनों कुलों पर दृष्टि रखना, न कि इस जीवन पर जो ढलती फिरती छाया के समान है। यदि आप युद्ध से पीठ दिखाकर आए तो सिरहाने के लिए तकिया भले ही मिल जाए, प्रियतमा की भुजाएँ तो फिर मिलने की नहीं।
भोला की डर भागियौ, अंत न पहुड़ै ऐण।
बीजी दीठां कुल बहू, नीचा करसी नैण॥
रे मुर्ख। किस डर से तू भाग आया? क्या मृत्यु घर पर नहीं आएगी? (मृत्यु निश्चित है, चाहे वह युद्धक्षेत्र में हो चाहे घर पर) दूसरी बात यह है कि तेरे कारण वह बेचारी कुल-वधू शर्म से नीची आँखें करेगी कि उसे ऐसा कायर पति मिला।