
बिना दूँढ़ने का श्रम किए, प्रिय वस्तु की अनुपमता और अमूल्यता का बोध हो ही नहीं सकता।

अपने अंतरतम की गहराइयों में इस प्रश्न को गूँजने दो: 'मैं कौन हूँ?' जब प्राणों की पूरी शक्ति से कोई पूछता है, तो उसे अवश्य ही उत्तर उपलब्ध होता है।

हम अपने बारे में इतना कम और इतना अधिक जानते हैं कि प्रेम ही बचता है प्रार्थना की राख में।

"मैं कौन हूँ?" जो स्वयं इन प्रश्न को नहीं पूछता है, ज्ञान के द्वार उसके लिए बंद ही रह जाते हैं।
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यदि तुम क्रांति का सिद्धांत और विधियों के जिज्ञासु हो तो तुम्हें क्रांति में भाग लेना चाहिए। समस्त प्रामाणिक ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव से उद्भूत होता है।

वेदांत ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ है तो काव्य ‘पुरूष-जिज्ञासा।’

जानने की कोशिश मत करो। कोशिश करोगे तो पागल हो जाओगे।

फूलों को तोड़कर गुलदान में सजाने वाले शायद ही कभी किसी बीज का अंकुरण देख पाते होंगे।

साधु के पास उसे कुछ देने नहीं, वरन् उससे कुछ लेने जाना चाहिए। जिनके पास भीतर कुछ है, वे ही बाहर का सब कुछ छोड़ने में समर्थ होते है।
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आपकी जिज्ञासा की उत्कटता ही, अभिमुखता की उत्कटता हो, अवसर बन जाती है। अवसर की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है कि कोई उसे लाकर आपको देगा।

ढूँढ़ना स्वतः एक अमृत-फल है।

अपने अनुभव से हासिल किया ज्ञान है कि डाॅक्टर और माशूक़ कभी नहीं बदलने चाहिए। आप फ़ालतू सवालों से बच जाते हैं।

जिज्ञासा करने वाला हमेशा ख़ुश रहता है।


घटना एक ही होती है, पर उसकी व्याख्याएँ प्रत्येक की अपनी होती हैं।

मनुष्य का भूत और वर्तमान ही उसे समझने के लिए पर्याप्त नहीं है। भावी आदर्श पर बिंबित उसका चेहरा इन सबसे अधिक यथार्थ और इसीलिए अधिक सुंदर तथा उत्साहजनक है।