ईश्वर को न जानना अपने आंशिक ज्ञान में जीवित रहना है।
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मनुज चेतना को किसका डर?
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जिस प्रकार अनेक रंगों में हँसती हुई फूलों की वाटिका को देखकर दृष्टि सहसा आनंद-चकित रह जाती है, उसी प्रकार जब काव्य-चेतना का सौंदर्य हृदय में प्रस्फुटित होने लगता है, तो मन उल्लास से भर जाता है।
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हमारा युग जैसे लाठी लेकर आदर्श के पीछे पड़ा हुआ है। वह यथार्थ के ही रूप में जीवन के मुख को पहचानना चाहता है, और उसी को गढ़कर, बदलकर मनुष्य को उसके अनुरूप ढालना चाहता है। यह मनुष्य नियति का शायद सबसे बड़ा व्यंग्य है।
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