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स्मरण मुक्तिबोध : एक अंतःकथा

बीते 13 नवंबर मेरे प्रिय कवियों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्मतिथि थी। इसके उपलक्ष्य में ‘हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग’, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ‘स्मरण मुक्तिबोध’ नाम से [15 नवंबर, 2025 को] एक कार्यक्रम हुआ। चूँकि बी.ए. के दौरान ‘हिंदी’ विषय के रूप में नहीं पढ़ा था, लेकिन एम.ए. मैंने हिंदी साहित्य से किया। इस प्रकार हिंदी पढ़ने वालों के बीच मैं ‘आउट साइडर’ ही था और हिंदी के नाम पर ‘नई वाली हिंदी’ ही पढ़ी थी, जिनमें दिव्य प्रकाश दुबे, नीलोत्पल मृणाल, सत्य व्यास, निखिल सचान और मानव कौल जैसे लेखक शामिल थे। ख़ैर यह कहानी फिर कभी।

मुक्तिबोध से पहला परिचय तब हुआ—जब एम.ए. के तीसरे सेमेस्टर में एक पर्चा वैकल्पिक रूप में पढ़ना था, जिसमें प्रेमचंद, निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध में से किसी एक को चुनना था। उस वक़्त क्या सोच के वैकल्पिक पर्चे के रूप में मुक्तिबोध को चुना, इतना सही-सही ध्यान नहीं रहा; लेकिन एक बात ज़रूर थी कि प्रणय दादा (प्रो. प्रणय कृष्ण) और बसंत सर (प्रो. बसंत त्रिपाठी) से ‘और ज़्यादा’ पढ़ने का मौक़ा मिलता। इनसे पढ़ने का लालच ही कह सकते हैं और मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ जो दादा और बसंत सर से पढ़ चुके विद्यार्थी हैं, वे यह सब अच्छे से जानते हैं। 

इस दौरान हमें ‘मुक्तिबोध-जीवन वृत और रचनात्मक संघर्ष’, ‘नई कविता आंदोलन और मुक्तिबोध’, ‘मुक्तिबोध कला और विचारधारा का द्वंद्व’ जैसे टॉपिक्स के साथ-साथ कुछ कहानियाँ—’ब्रह्मराक्षस का शिष्य’, ‘क्लाड इथरली’, ‘विपात्र’ (लंबी कहानी) और आलोचनात्मक लेख/निबंध—’एक साहित्यिक की डायरी’, ‘नयी कविता का आत्म संघर्ष’, ‘समाज और साहित्य’, ‘मार्क्सवादी साहित्य का सौंदर्य पक्ष’, ‘वस्तु और रूप’ (एक से चार तक) जो पाठ्यक्रम में निर्धारित थे—बसंत सर ने पढ़ाया।

और प्रणय दादा ने ‘यथार्थ और फ़ैंटेसी : मुक्तिबोध के काव्य की रचना प्रक्रिया’, ‘मुक्तिबोध की काव्यानुभूति की बुनावट’ पर बातें करते हुए मुक्तिबोध की ढेर सारी कविताएँ जिनमें-’पूँजीवादी समाज के प्रति’, ‘लाल सलाम’, ‘भूरी-भूरी नाक धूल’, ‘जड़ीभूत ढांचों से लड़ेंगे’, ‘अंतःकरण का आयतन’, ‘चकमक चिनगारियाँ’, ‘चाँद का मुँह टेंढा है’, ‘ब्रह्मराक्षस’, ‘अँधेरे में’, ‘लकड़ी का रावण’, ‘भूल ग़लती’, ‘एक आत्म-वक्तव्य’, ‘चंबल की घाटी में’ पढ़ाया। और क्या शानदार पढ़ाया, उन क्लासेस के नोट्स और ऑडियो रिकॉर्डिंग आज भी संजो के रखी हुई है। और मुक्तिबोध कब मेरे सबसे प्रिय रचनाकारों में शामिल हो गए पता न चला। उसके बाद पाठ्यक्रम से आगे बढ़कर मुक्तिबोध के दो कहानी संग्रह ‘सतह से उठता आदमी’ और ‘काठ का सपना’ भी पढ़ा। और आए दिन जब-तब उनकी कविताएँ पढ़ीं। कई कविता पोस्टर भी बनाएँ।

लेकिन बीते दो सालों से (जुलाई, 2023 के बाद) अन्य कामों में इतना व्यस्त रहा कि मुक्तिबोध को थोड़ा-कुछ भी पढ़ने का मौक़ा न मिला, लेकिन ‘स्मरण मुक्तिबोध’ कार्यक्रम ने सारी कसर पूरी कर दी। यह एक बेहतरीन आयोजन रहा। तीन सत्रों के इस आयोजन का संक्षिप्त ख़ाका कुछ यूँ है—

प्रथम सत्र का विषय था—‘मुक्तिबोध का साहित्य’। स्वागत वक्तव्य देते हुए प्रो. संतोष भदौरिया ने कहा कि मुक्तिबोध को कविता के साथ उनके समग्र लेखन के आधार पर समझने की कोशिश होनी चाहिए। मुक्तिबोध के मूल्यांकन में आलोचकों द्वारा निर्मित अवधारणाओं ने भी उनको समझने का संकट पैदा किया है। मुक्तिबोध के संदर्भ में कविता की परंपरागत आश्वाद की प्रक्रिया हमारी बहुत मदद नहीं करती। वह एकदम अलहदा भावबोध और सौंदर्यदृष्टि के रचनाकार हैं। जो सत्ता संरचना की परतों को बख़ूबी समझते और उसे बेनकाब करते हैं। मुक्तिबोध अपने लेखन, कविता और गद्य में जिन ख़तरों की संभावना 1962 में ज़ाहिर कर रहे थे, आज उन ख़तरों को 21वीं सदी के तीसरे दशक में हम महसूस और देख सकते हैं। उन्होंने एनसीईआरटीकी [NCERT] स्थापना का हवाला देते हुए मुक्तिबोध द्वारा मध्य प्रदेश के हायर सेकेंडरी के लिए लिखी गई पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति ‘ का खास तौर से जिक्र करते हुए उसके प्रतिबंधित होने की पूरी दास्तां बयां की तथा उसे आज एक अनिवार्य पाठ के रुप में पढ़े जाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध ने अपने लेखन में आसन्न तीन खतरों कि तरफ स्पष्ट रुप से इशारा किया था पहला अभिव्यक्ति की आजादी का संकट, दूसरा इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या और तीसरा दक्षिण पंथ का उभार। उनकी कही तीनों बातें पूरी दुनिया में घटित हो रही हैं। इसलिए मुक्तिबोध को विश्व इतिहास और संस्कृति के संदर्भ में पढ़ने और समझने की ज़रूरत है।

इसके बाद इस आयोजन की रूपरेखा तय करने वाले प्रो. बसंत त्रिपाठी ने कार्यक्रम का ‘प्रस्तावना वक्तव्य’ देते हुए मुक्तिबोध को याद करने की आवश्यकता को यह बताते हुए ज़ोर दिया कि उन्हें केवल एक लेखक के रूप में नहीं, बल्कि उन ख़तरों को समझने के लिए याद किया जाना चाहिए—जिनकी उन्होंने भविष्यवाणी की थी। उन्होंने बताया कि मुक्तिबोध आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि उन्होंने जिन ख़तरों की ओर इशारा किया था, वे आज भी समाज में मौजूद हैं। प्रो. त्रिपाठी ने मुक्तिबोध के पहले प्रकाशक खन्ना जी का ज़िक्र किया, जिन्होंने उनकी दो किताबें ‘भारत इतिहास और संस्कृति’ और ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष और अन्य निबंध’ प्रकाशित की थीं। उन्होंने किशोरी लाल शुक्ल को समर्पित मुक्तिबोध की दूसरी किताब से जुड़ी एक घटना साझा की, जिसमें मुक्तिबोध की राजनीतिक अंतर्दृष्टि और संवेदनशीलता का पता चलता है।

बसंत त्रिपाठी ने कहा कि मुक्तिबोध को याद करने का मतलब है—अपने समय की राजनीतिक अंतर्दृष्टि को समझना और मानवीय संवेदनशीलता के क़रीब पहुँचना। उन्होंने बताया कि इस आयोजन के दूसरे सत्र में जयप्रकाश की मुक्तिबोध पर लिखी जीवनी (मैं एक अधूरी दीर्घ कविता) और तीसरे सत्र में युवा कवियों का काव्यपाठ होगा जो मुक्तिबोध की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।

प्रथम सत्र के पहले वक्ता डॉ. लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता ने मुक्तिबोध के साहित्य पर चर्चा की, जिसमें उनकी कविताओं, कहानियों, आलोचनाओं और सामाजिक विचारों को शामिल करते हुए मुक्तिबोध को एक ऐसे कवि के रूप में प्रस्तुत किया जो अपने आत्म-समीक्षा और दुनिया को समझने की राजनीतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं। वक्ता ने अपनी बात को तीन मुख्य भागों में बाँटा : ‘कवि की दुनिया’, ‘हमारा समय’ और ‘समय से मुठभेड़’। डॉ. लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता ने कहा—“मुक्तिबोध को केवल एक कवि के रूप में नहीं, बल्कि एक कथाकार, इतिहासकार, आलोचक और समाज चिंतक के रूप में देखना चाहिए—जिनके विभिन्न आयाम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मुक्तिबोध की कविताओं में ‘सभ्यता’ की समीक्षा का तत्त्व भी मौजूद है, जैसा कि टी.एस. इलियट जैसे अन्य बड़े चिंतकों में भी देखा जाता है।”

इसके बाद कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के रूप में पधारे जयप्रकाश जी ने मुक्तिबोध के जीवन और कार्यों पर विस्तार से बात की। जयप्रकाश ने कहा—मुक्तिबोध की कहानी ‘पक्षी और दीमक’ में एक लोककथा है जो आज के समय में भी भयावह रूप से प्रासंगिक है। कहानी एक ऐसे पक्षी की है जो दीमकों के स्वाद का आदी हो जाता है। वह एक गाड़ीवान को एक-एक करके अपने पंख देता है और बदले में दो दीमक ले लेता है। यह सिलसिला तब तक चलता है—जब तक उसके सारे पंख ख़त्म नहीं हो जाते और वह उड़ने में पूरी तरह असमर्थ हो जाता है, असहाय और कमज़ोर।

यह कथा सिर्फ़ एक क़िस्सा नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली रूपक है। यह उस समाज पर एक तीखी टिप्पणी है जो तात्कालिक लाभ और क्षणिक सुख के लिए अपने मूलभूत मूल्यों, अपनी स्वतंत्रता और अपने भविष्य को दाँव पर लगा देता है। यह कहानी हमें चेतावनी देती है कि छोटे-छोटे समझौतों की क़ीमत अंततः हमें अपनी उड़ान यानी अपनी आज़ादी खोकर चुकानी पड़ सकती है। मुक्तिबोध की यह दृष्टि आज के लोकतांत्रिक समाजों पर भी लागू होती है, जहाँ छोटे-छोटे फ़ायदों के लिए बड़े सिद्धांतों का सौदा कर लिया जाता है।

हम भी, हमारा आज का समाज भी दो दीमक लेने के लिए अपने पंख देने को तैयार है। चाहे उसका मूल्य दस हज़ार ही क्यों न हो। (ज़ाहिर है उनका इशारा बिहार चुनाव के नतीज़ों की ओर था।)

जय प्रकाश जी ने यह भी कहा—“मुक्तिबोध के समय के कई लेखक वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे, लेकिन समय के साथ उनमें से अधिकांश ने व्यावहारिक या निजी कारणों से वह रास्ता छोड़ दिया। इसके विपरीत, मुक्तिबोध शायद अकेले ऐसे लेखक थे जो आजीवन मार्क्सवादी बने रहे और न सिर्फ़ विचारधारा में, बल्कि अपने आचरण में भी उसे उतारते रहे। वह एक ‘ट्रू कम्युनिस्ट राइटर’ थे, जिन्होंने सिद्धांतों के अनुरूप जीवन जिया।”

इस सत्र का अध्यक्षता कर रहे संजीव कुमार ने कहा—“पाठकों को यह याद करना भी मुश्किल लगता है कि वे पहली बार मुक्तिबोध से कब परिचित हुए थे। जैसा कि ए. के. रामानुजन ने रामायण और महाभारत के संदर्भ में कहा था कि भारत में कोई भी इन कथाओं को पहली बार नहीं सुनता, क्योंकि वे बचपन से ही हमारी चेतना का हिस्सा बन जाती हैं; ठीक उसी प्रकार सत्तर और अस्सी के दशक के बाद साहित्यिक जगत में प्रवेश करने वालों के लिए मुक्तिबोध एक स्थापित साहित्यिक बोध का हिस्सा बन चुके थे। उनका नाम और उनकी शैली हिंदी की साहित्यिक चेतना में इस क़दर घुल-मिल गई थी कि उनसे पहला परिचय स्मृति में दर्ज ही नहीं हो पाया। लेकिन इस सर्वव्यापकता के ठीक विपरीत एक कड़वा सच यह है कि यह रुतबा उन्हें उनकी मृत्यु के बाद मिला। अपने जीवनकाल में मुक्तिबोध को बड़े पैमाने पर उपेक्षित किया गया। उनके विचारों की तीव्रता और मौलिकता के कारण उन्हें किसी भी स्थापित साहित्यिक गुट ने पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया। यह एक विडंबना ही है कि उनके महत्त्व और उनके साहित्य पर गंभीर चर्चाओं का दौर उनकी मृत्यु के साथ ही शुरू हुआ। उनकी मृत्यु उनके लिए एक दुखद घटना थी, लेकिन उनकी विरासत के लिए एक महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित हुई।

मुक्तिबोध का मार्क्सवाद उस आसान रास्ते को चुनौती देता था जो अपने अंदर के संस्कारों से बिना लड़े हुए मार्क्सवादी बन जाने की इज़ाज़त दे दे। वे उस पाखंड को अस्वीकार करते थे जहाँ कोई व्यक्ति मार्क्सवादी भी बना रहे और सामाजिक कुरीतियों का पालन भी करता रहे। जैसे, आप दहेज भी लीजिए, मार्क्सवादी भी बने रहिए, आप जाति के भीतर विवाह भी कीजिए, मार्क्सवादी भी बने रहिए। मुक्तिबोध के लिए यह अस्वीकार्य था और यही वजह थी कि वह कई लोगों के लिए असुविधाजनक थे, क्योंकि वह किसी भी विचारधारा को आँख मूँदकर स्वीकार करने वाले नहीं, बल्कि उसे आलोचनात्मक दृष्टि से परखने वाले बुद्धिजीवी थे।”

संजीव जी ने इस ओर भी ध्यानाकर्षण किया कि मुक्तिबोध केवल साहित्यिक सिद्धांतों तक ही सीमित नहीं थे; उन्होंने इतिहास और समाज की भी गहरी पड़ताल की। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भक्ति आंदोलन पर उनके क्रांतिकारी विचार हैं। उन्होंने (और उनसे कुछ साल पहले रांगेय राघव ने) यह तर्क दिया कि—“निर्गुण भक्ति धारा एक सामाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी शक्ति थी, जिसका लक्ष्य स्थापित सामाजिक ढाँचों को तोड़ना था।” यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि ये दोनों ही विचारक, मुक्तिबोध और रांगेय राघव, “हिंदी की अपनी परंपरा से नहीं आते थे” यानी वे मुख्यधारा के साहित्यिक प्रतिष्ठान के बाहर से अपनी आवाज़ उठा रहे थे। उनका सबसे विवादास्पद और मौलिक तर्क यह था कि—सगुण भक्ति ने इस क्रांतिकारी धारा के “नख दंत उखाड़ दिए” यानी उसकी मारक क्षमता को ख़त्म कर दिया।

सगुण भक्ति ने आंदोलन की सामाजिक परिवर्तन की शक्ति को सोख लिया और उसे एक “पालतू चीज” बनाकर रख दिया, जो यथास्थिति के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करती थी। यह बहस के लिए एक बेहद महत्त्वपूर्ण और वैध मुद्दा था, लेकिन उस समय के मुख्यधारा के प्रगतिशील साहित्यिक हलकों ने इसे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया और दबा दिया। यह घटना न केवल प्रगतिशील आंदोलन के भीतर के आंतरिक द्वंद्वों को उजागर करती है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि कैसे प्रतिष्ठान से बाहर के विचारों को हाशिये पर धकेल दिया जाता था।

मुक्तिबोध ने अपनी कहानियों में, विशेषकर अपने स्त्री पात्रों के चित्रण में, एक बिल्कुल नया सौंदर्यबोध स्थापित किया। उन्होंने पारंपरिक साहित्यिक सौंदर्य के मानकों को पूरी तरह से तोड़ दिया। उनकी कहानियों में नायिका का आकर्षण उसकी कोमलता, उसके गोरेपन या उसकी ललाई पर आधारित नहीं है। इसके बजाय, सौंदर्य का आधार स्त्री का संघर्ष, उसकी दृढ़ता और उसकी जीजीविषा है। उनकी कहानी ‘पक्षी और दीमक’ में नायक, जो व्यवस्था से समझौता करके एक भयानक अपराधबोध और ग्लानि से ग्रस्त है, अपनी नायिका में एक आदर्श देखता है। वह उसे ‘अनुकरणीय’ मानता है क्योंकि वह उस संघर्ष और सत्यनिष्ठा का प्रतीक है जिसे वह खो चुका है। इसी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में उस स्त्री का सौंदर्य परिभाषित होता है—उसके पैरों में, जो यथार्थ की कठोर ज़मीन पर टिके हैं। इस चित्रण से उनका क्रांतिकारी सौंदर्यबोध स्पष्ट होता है :

हवाई चप्पल पहने हुए धूल में भटक पैर मात्र हैं उनके। आदमी भी चल रही है, पैरों में बिवाइयाँ फटी है। ऐसी स्त्री प्रेमास्पद है।

यह परिप्रेक्ष्य पारंपरिक साहित्यिक सौंदर्यशास्त्र से एक क्रांतिकारी प्रस्थान था। यह स्त्री को केवल सौंदर्य की वस्तु नहीं, बल्कि एक नैतिक शक्ति के रूप में स्थापित करता है। यह दर्शाता है कि मुक्तिबोध का सौंदर्यबोध बनावटीपन से नहीं, बल्कि संघर्ष और यथार्थ की मिट्टी से उपजा था।

अपने वक्तय के अंत में संजीव कुमार कहते हैं—“पश्चिम में टी.एस. एलियट और वर्ड्सवर्थ जैसे कुछ ही लेखक हुए हैं, जो एक महान् कवि होने के साथ-साथ एक महान् सिद्धांतकार भी थे—जिन्होंने न केवल उत्कृष्ट साहित्य रचा, बल्कि उस साहित्य को समझने के लिए सैद्धांतिक ढाँचे भी दिए। हिंदी में यह दुर्लभ संगम मुक्तिबोध के व्यक्तित्व में मिलता है। वह केवल एक महान् रचनाकार ही नहीं, बल्कि एक महान् विचारक भी थे। उन्होंने हिंदी आलोचना को ऐसे मौलिक सूत्र दिए जो आज भी अकादमिक जगत में मील का पत्थर माने जाते हैं। जिस तरह एलियट का नाम ‘ऑब्जेक्टिव कोरिलेटिव’ (objective correlative) के सिद्धांत के साथ तुरंत जुड़ जाता है, उसी तरह मुक्तिबोध का नाम उनके इस अद्भुत सूत्र के साथ हमेशा के लिए जुड़ा हुआ है : ‘संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन’।

एक ही व्यक्ति में एक महान् कवि और एक महान् सिद्धांतकार का यह मेल अत्यंत दुर्लभ है। यह विशेषता मुक्तिबोध को न केवल हिंदी साहित्य में बल्कि वैश्विक साहित्यिक मंच पर भी अपने पश्चिमी समकक्षों के समानांतर खड़ा करती है।”

इसी बात के साथ प्रथम सत्र समाप्त होता है। कुछ देर का अवकाश होता है। लोग कचौड़ी खाने और चाय पीने के लिए सभागार से बाहर की ओर चल देते हैं।

द्वितीय सत्र में मुक्तिबोध की जीवनी—‘मैं अधूरी दीर्घ कविता’ (लेखक जय प्रकाश) पर बात हुई, जिसके मुख्य वक्ता प्रो. प्रणय कृष्ण थे। उन्होंने मुक्तिबोध की जीवनी पर चर्चा करते हुए, भारतीय साहित्य में जीवनी विधा के विकास की कमी और ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति समाज की उदासीनता पर प्रकाश डाला गया। उन्होंने अज्ञेय के लेख ‘आत्मकथा, संस्मरण और जीवनी’ का उल्लेख किया, जिसमें जीवनी विधा की चुनौतियों पर बात कही। वक्ता ने मुक्तिबोध की जीवनी को एक महत्त्वपूर्ण कार्य बताया, जिसमें उनकी रचना प्रक्रिया और जीवन के विभिन्न पहलुओं को गहराई से समझाया गया है। मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष, आत्म-आलोचना और आत्म-वियोग के स्वरों पर ज़ोर दिया गया है, जो उनके अनुभवों और विचारों से उत्पन्न हुए थे। वक्ता ने मुक्तिबोध के जीवन में वर्ग-परिवर्तन (डीक्लासिंग) के प्रयासों और उनकी व्यक्तिगत पसंदों का उल्लेख किया, जैसे कि निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के बीच रहना और उनके अनुभवों को अपनी रचनाओं में शामिल करना।

मुक्तिबोध के जीवन में विभिन्न बौद्धिक बहसों और उनके साथियों के साथ हुए संवादों का भी ज़िक्र किया गया, जिसमें मार्क्सवाद, लेनिनवाद और साहित्य से संबंधित चर्चाएँ शामिल थीं। वक्ता ने मुक्तिबोध की पत्रकारिता, समीक्षा लेखन और उनके नागपुर और राजनांदगाँव के जीवन के बारे में बताया, जिसमें उनके साहित्यिक योगदान और युवा कवियों के प्रति उनके स्नेह को दर्शाया गया। उन्होंने जीवनी की भाषा और शैली की प्रशंसा की, जिसमें मुक्तिबोध के जीवन और रचना संसार को बहुत ही सुगठित और सर्जनात्मक तरीक़े से प्रस्तुत किया गया है। वक्ता ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह जीवनी मुक्तिबोध के लेखन की परिस्थितियों और उनके साहित्यिक योगदान को समझने के लिए एक नई रोशनी प्रदान करती है।

इसके बाद इस सत्र में लेखकीय वक्तय के लिए आए जयप्रकाश जी—जिनका मुक्तिबोध और उनके निवास स्थान राजनांदगाँव से व्यक्तिगत जुड़ाव रहा है—ने इस परियोजना को पूरा करने में आई महत्त्वपूर्ण बाधाओं का वर्णन किया, जिसमें सबसे प्रमुख चुनौती प्रामाणिक जानकारी देने वाले प्राथमिक स्रोतों (समकालीनों) का जीवित न होना था। जीवनी का लेखन लगभग साढ़े तीन साल तक रुका रहा, लेकिन अंततः 2022 में इसे फिर से शुरू किया गया। इस कार्य को संभव बनाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका मोतीराम वर्मा द्वारा किए गए अभूतपूर्व शोध-कार्य की रही, जिन्होंने 70 के दशक में मुक्तिबोध के जीवन से जुड़े हर स्थान की यात्रा की और संबंधित लोगों से बातचीत को लगन से दर्ज किया। इसके अतिरिक्त, लक्ष्मण दत्त गौतम और शांति कुमार जैन की पुस्तकों तथा मित्रों द्वारा लिखे गए संस्मरणों ने भी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रदान की।

ध्यातव्य हो कि इन दोनों सत्रों का संचालन डॉ. अमितेश कुमार ने बड़े ही सुंदर ढंग से किया। इसके बाद कार्यक्रम के तृतीय और आख़िरी सत्र में युवा कवियों का काव्यपाठ हुआ, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि हरिशचंद्र पांडे कर रहे थे और संचालन अंशु मालवीय।

प्रज्वल चतुर्वेदी ने अपनी कविताएँ ‘डर गया’, ‘हर शाख का उल्लू’, ‘नीला रंग फूलों में’, ‘चेष्टा’ और ‘आख़िरी दिन’ प्रस्तुत कीं। उनकी कविताओं में मनुष्य के अंतर्द्वंद्व, सामाजिक समस्याओं और आस-पास की राजनीति पर विचार व्यक्त किए गए हैं।

प्रदीप्त ‘प्रीत’ ने अपनी कविताएँ ‘निकम्मापन’, ‘मेरे सपनों का रंग नीला क्यों है?’, ‘मैं कविता करना भूल जाना चाहता हूँ’ और ‘नोट’ सुनाईं। उनकी कविताओं में सामाजिक विषमताओं, निराशा और व्यक्तिगत अनुभवों का चित्रण है।

सविता एकांशी ने अपनी कविताएँ ‘पहाड़ों के उत्पाद’, ‘उजाला’, ‘तैरता अस्तित्व’ और ‘आख़िरी कविता : लाल रंग’ प्रस्तुत कीं। उनकी कविताओं में प्रकृति, सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत पहचान के मुद्दे उठाए गए।

आशीष मिश्र ने अपनी कविताएँ ‘एक किसान धान लगाता है’, ‘जाति’, ‘लौटना’, ‘जवानी में बुढ़ापा’, ‘सेमल का पेड़’ और एक अज्ञात शीर्षक वाली कविता सुनाई। उनकी कविताओं में ग्रामीण जीवन, सामाजिक भेदभाव और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

इसके बाद मंच का संचालन कर रहे कवि अंशु मालवीय ने भी एक कविता सुनाई जिसका शीर्षक ‘लाशों की गिनती का विज्ञान’ था। इसके बाद सबसे अंत में कवि हरीशचंद्र पांडे आए, जयप्रकाश जी को उनकी कृति के लिए बधाई दी और फिर उन्होंने ‘बाक़ी सब बनारस’,’सोने की जगह’ और ‘बदनाम गली’ शीर्षक की कविताएँ पढ़ी। बनारस के वर्णन में बताया गया कि कैसे काशी—स्नान, ध्यान और दान के लिए आते हैं, जबकि बाक़ी लोग बनारस खाते जाते हैं। ‘सोने की जगह’ कविता में आदमी के सोने की जगह का वर्णन किया गया, जिसमें एक आदमी पुल के नीचे सो रहा है, जिसने घूम-घूम कर सामान बेचकर नींद ख़रीदी है। ‘बदनाम गली’ जो ‘लांगरी’ नामक कविता का दूसरा भाग है—प्रस्तुत किया, जिसमें एक माँ और बेटे के रिश्ते का वर्णन है, जहाँ बेटा अपनी माँ से अपने पिता के बारे में प्रश्न पूछता है। कविता में बेटे के प्रश्नों का रुख़ बाहर की ओर होने और माँ के सपनों में उसकी नींद पूरी होने का वर्णन किया गया है।

इसी कविता के बाद बसंत सर ने आभार ज्ञापन करते हुए कार्यक्रम के समाप्ति की घोषणा की। वक्ताओं ने मुक्तिबोध को एक ऐसे कवि के रूप में वर्णित किया, जिनकी पीढ़ियाँ बढ़ती रहेंगी और जो अपनी मृत्यु के बाद भी प्रासंगिक बने रहेंगे, क्योंकि वे मनुष्य की नियति, पराधीनता और समाज के अंतर्द्वंद्व के बीच रिश्तों की तलाश जारी रखेंगे।

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