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मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them.

मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल करेंगे—आधुनिक नारीवादी विमर्श में उभरे सबसे मुख़्तसर मगर सबसे असरदार बयानों में से एक है। यह मर्द और औरत के बीच मौजूद ख़ौफ़ की क़िस्म और उसकी शिद्दत में बसी सामाजिक असमानता को साफ़ तौर पर पेश करता है और दिखाता है कि पितृसत्तात्मक समाजों में सत्ता का बुनियादी असंतुलन किस तरह काम करता है। यह उद्धरण जटिल समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को एक आसान-सी दुहरी सचाई में प्रकट करता है कि मर्दों का डर ज़्यादातर उनकी सामाजिक इज़्ज़त और अहं से जुड़ा होता है, जबकि औरतों का डर उनकी जान और जिस्मानी सुरक्षा से।

यह उद्धरण किसी औपचारिक सिद्धांत की तरह पैदा नहीं हुआ, बल्कि 1980 के शुरुआती दौर में मार्गरेट एटवुड की एक निजी बातचीत से उभरकर सामने आया। उन्होंने बताया कि उन्होंने एक मर्द दोस्त से पूछा कि मर्द औरतों से क्यों ख़तरा महसूस करते हैं तो उसने फ़ौरी तौर पर कहा कि हमें डर लगता है कि औरतें हमारा मज़ाक़ उड़ाएँगी। उसके मुताबिक़, औरतों का यह तंज़ मर्द की दुनिया और उसके अहं को हिला देता है। एटवुड ने छात्राओं के एक समूह से जब पूछा कि औरतें मर्दों से क्यों डरती हैं तो उनका जवाब तेज़ और तीख़ा था कि वे उनके हाथों मारे जाने का डर रखती हैं।

यह वाक़िया इस गहरे द्वंद्व को सामने लाता है कि मर्द अपने डर को सामाजिक या मनोवैज्ञानिक शब्दों में बयान कर रहे थे, लेकिन औरतों ने सीधा अपनी ज़िंदगी पर ख़तरे की बात की। यही अंतर्विरोध—एक तरफ़ सामाजिक शर्मिंदगी तो दूसरी तरफ़ जान जाने का डर—इस उद्धरण को इतना असरदार और दशकों बाद भी प्रासंगिक बनाए रखता है। इसने निजी डर को सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा बना दिया और उस हक़ीक़त पर बात करने की जगह दी जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था।

मर्दों का यह डर कि औरतें उन पर हँस देंगी, पारंपरिक मर्दानगी की धारणाओं से जुड़ा है। विभिन्न समाजों में मर्द की पहचान उसकी ताक़त, काबिलियत, क़ाबू और एक तरह की संजीदा हैबत पर क़ायम होती है। उन्हें सरपरस्त, सहारा देने वाले और हावी किरदार के रूप में पाला जाता है। औरत की हँसी इस बनाई हुई छवि, उसकी कथित मर्दानगी पर सीधा वार करती है। यह एक तरह की समाजी जाँच-पड़ताल और अस्वीकार है, जिससे मर्द को महसूस हो सकता है कि वह ‘असल मर्द’ की अपेक्षा पर पूरा नहीं उतर रहा। यह डर मामूली नहीं, बल्कि दर्जे और समाजी स्थान से जुड़ा होता है। जिस औरत पर मर्द अपनी हुकूमत का दावा रखता है, उसी की तरफ़ से मज़ाक़ उड़ाया जाना मर्द की कथित बरतरी को चुनौती देता है। यह उस पहचान की नाज़ुक बुनियाद को चुनौती देता है, जिसे हमेशा दूसरों पर क़ाबू रखकर ही मज़बूत किया जा सकता है। एटवुड के मुताबिक़, औरत की तिरछी, तंज़िया मुस्कान भी मर्द की ख़ुद-एहतिरामी दीवारों को जमा देने वाले ठंडे झोंके की तरह महसूस हो सकती है, जो उसकी इज़्ज़त और क़द्र-ओ-क़ीमत पर सीधा वार हो।

इसके बरअक्स, औरतों का यह डर कि मर्द उन्हें नुक़सान पहुँचा सकते हैं, कोई वहम या कल्पना नहीं बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में महसूस होने वाली सचाई है। यह डर दुनिया भर में औरतों पर होने वाली हिंसा के आँकड़ों से साबित होता है। औरतों पर ज़्यादातर जिन्सी और जिस्मानी हमला मर्दों द्वारा ही किया जाता है। ख़ासतौर पर इनमें वे मर्द शामिल होते हैं जो उनके क़रीब होते हैं। कई औरतों के लिए यह डर कई छोटे-छोटे रोज़मर्रा के एहतियातों में बदल जाता है। यह एक ऐसी दुनिया में महफ़ूज़ रहने की कोशिश है, जहाँ हर मर्द एक संभावित ख़तरा समझा जाता है। यह क़ौल ध्यान दिलाता है कि समाज अक्सर औरतों के असली, जायज़ डर को कमतर आँकता है, जबकि मर्दों की समाजी असुरक्षा को बढ़ा-चढ़ाकर देखता है।

इस बयान की सच्ची ताक़त यह है कि यह सत्ता के असमान बँटवारे को कितनी साफ़ी से उजागर करता है। यह एक ऐसे समाज को दिखाता है जहाँ एक तबके की बुनियादी चिंता उसकी इज़्ज़त है, और दूसरे तबके की बुनियादी चिंता उसका अस्तित्व। यह उद्धरण पितृसत्तात्मक ढाँचे में मौजूद उन रिश्तों को सामने लाता है, जहाँ मर्द सामूहिक तौर पर ताक़त रखते हैं और हिंसा के ज़्यादातर ज़िम्मेदार होते हैं, जबकि औरतें सामूहिक तौर पर इसकी शिकार होती हैं। हिंसा का डर औरतों की ज़िंदगी में इतना आम है कि वह जैसे ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है। इसके मुक़ाबले, मर्दों का यह डर कि औरतें उन पर हँस देंगी, यह दिखाता है कि मर्द औरत की प्रतिक्रिया तक को क़ाबू में रखना चाहते हैं। जब इस बयान पर बात होती है, अक्सर मर्द ‘नॉट ऑल मेन’ वाली सफ़ाई भी देते हैं, जैसे उन पर नाइंसाफ़ी का इल्ज़ाम लगाया गया हो; जबकि यह क़ौल किसी एक शख्स के इरादे के बारे में नहीं, बल्कि एक पूरे ‘सिस्टम’ की समस्या के बारे में है। औरतें एक झटके में अच्छे और बुरे मर्दों की पहचान नहीं कर सकतीं, इसलिए उन्हें हमेशा ही एहतियात करनी पड़ती है।

मार्गरेट एटवुड का यह छोटा-सा बयान नारीवादी तन्क़ीद का एक हमेशा ज़िंदा रहने वाला बेहद पैना नमूना है। यह किसी मर्द या औरत पर इल्ज़ाम नहीं लगाता, बल्कि यह दिखाता है कि लैंगिक असमानता मनुष्यों के डर को किस तरह अलग-अलग शक्ल देती है। यह हमें उस कड़वे हक़ीक़त के सामने लाता है, जहाँ मर्द अपनी सत्ता के खोने से ख़ौफ़ज़दा हैं तो औरतें सत्ता में किसी दावेदारी भर में भी अपने अस्तित्व के ख़तरे की आशंका रखती हैं। दशकों बाद भी इस जुमले की अहमियत यही बताती है कि मर्दाना हिंसा के बुनियादी कारणों और ताक़त के असंतुलन को ख़त्म करने के लिए गहरे और व्यापक बदलाव बेहद ज़रूरी हैं—क्योंकि यही बातें इन दोनों बेहद अलग और बेहद नाबराबर डर को ज़िंदा बनाए रखती हैं।

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मार्गरेट एटवुड को और पढ़िए : मार्गरेट एटवुड के उद्धरण

शायक आलोक को और पढ़िए : कामू-कमला-सिसिफ़स | पाप से अछूती देवी नहीं, करुणा से पवित्र हुई पापिनी!

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