लोलिता के लेखक नाबोकोव साहित्य-शिक्षक के रूप में
निर्मल वर्मा
25 अक्तूबर 2025
हमारे यहाँ अनेक लेखक हैं, जो अध्यापन करते हैं। अनेक ऐसे छात्र होंगे, जिन्होंने क्लास में बैठकर उनके लेक्चरों के नोट्स लिए होंगे। परीक्षोपयोगी महत्त्व तो उनका अवश्य होगा—किंतु वह तो उन शिक्षकों का भी होता है, जो लेखक नहीं हैं। एक लेखक-अध्यापक के लेक्चर कुछ कामकाजू, तात्कालिक प्रयोजन से अलग अपने में एक असाधारण आकर्षण और साहित्यिक विशिष्टता रख सकते हैं, इसकी एक झलक नाबोकोव के उन क्लास-नोट्स में मिली, जो उनकी मृत्यु के बाद उनके काग़ज़ों में पाए गए। हाल ही में वे पुस्तक-रूप (Nabokove’s Lectures on Literature) में प्रकाशित हुए हैं। शायद ही किसी आधुनिक उपन्यासकार ने उपन्यास की कला के बारे में इतनी चुभती हुई, चमत्कारिक, चुटीली और चुटकुली भाषा में दो-टूक बातें कही हैं, जैसी नाबोकोव ने अपनी क्लास के छात्र-छात्राओं के सामने। एक व्यावसायिक, ठेठ आलोचक की तर्क-मीमांसाओं से बिल्कुल अलग, एक कहानी-लेखक सिर्फ़ अपनी कल्पना की चमकदार नोक से साहित्य का मर्म कुरेद सकता है; उसी कल्पनाशील उज्ज्वलता से—जिससे उसकी कहानियों-उपन्यास ने जन्म लिया है—वर्जीनिया वुल्फ़ के बाद शायद नाबोकोव अकेले लेखक हैं, जिन्होंने इस अद्वितीय प्रतिभा का परिचय दिया है।
नाबोकोव कहीं भी अपने दुराग्रह और पूर्वग्रह नहीं छिपाते—उनमें वे उतने ही जीवंत और मौलिक जान पड़ते हैं, जितना साहित्य की महान् कृतियों के प्रति उनका अगाध, मांसल, चाक्षुष प्रेम दिखाई देता है।
यह प्रेम केवल मांसल हो सकता है, जिसे हम साहित्य की रूखी, समाज-शास्त्रीय टीकाओं-तले अक्सर दबा देते हैं। कलाकृतियों के बारे में नाबोकोव का यह सहज, उजला सत्य उन्हें आज के साहित्यिक वातावरण में काफ़ी अकेला छोड़ देता है। अकेला, लेकिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण; एक झटके से किसी उपन्यास का मर्म हमारे सामने बिजली की तरह कौंध जाता है। मदाम बावेरी के बारे में वह कहते हैं : “यह कितना बड़ा अन्याय होगा, यदि हम इस उपन्यास को केवल इस दृष्टि से पढ़ें कि उसमें लेखक ने बुर्ज़ुआ वर्ग की निंदा की है। हमें सदा याद रखना चाहिए कि एक कलाकृति एक सर्वथा नूतन विश्व की रचना करती है, इसलिए किसी पुस्तक को पढ़ते हुए हमें इस नए विश्व को बहुत गहराई से देखना चाहिए, जिसका उन दुनियाओं से कोई नाता नहीं, जिनसे हम परिचित हैं। उपन्यास जिस नई दुनिया को जन्म देता है, उसका अध्ययन करने के बाद ही हम उसका रिश्ता अपनी जानी-पहचानी दुनिया से जोड़ सकते हैं।”
इसी से जुड़ा एक दूसरा प्रश्न है : क्या हम किसी उपन्यास से—किसी महान् उपन्यास से—किसी देश-काल की विश्वस्त सूचना प्राप्त करने की आशा कर सकते हैं? नाबोकोव के विचार में यह आशा अपने में ही मूर्खतापूर्ण है—“क्या जेन ऑस्टिन से हमें इंग्लैंड की ज़मींदारी प्रथा का कोई चित्र मिल सकता है या डिकेंस के अद्भुत, रहस्यमय लंदन के रोमांस से हमें सौ साल पहले लंदन का कोई परिचय मिल सकता है? सत्य यह है कि महान् उपन्यास असल में महान् परी-कथाएँ होती हैं। समय और स्थान, मौसम के बदलते रंग, मस्तिष्क और पुट्ठों के गतिपान स्पंदन—एक महान् लेखक के लिए इनके रहस्य ऐसे नहीं हैं, जिन्हें सार्वजनिक सत्यों की पब्लिक लायब्रेरी से उधार लिया जा सके, बल्कि वे ऐसे अद्भुत विस्मयकारी चमत्कार हैं, जिन्हें एक कलाकार अपने अद्भुत विस्मयकारी ढंग से ही अभिव्यक्त कर सकता है।”
एक दूसरी जगह नाबोकोव अपने छात्रों को सुझाव देते हुए कहते हैं : “आप किताब को पढ़ नहीं सकते, जब तक आप उसे दुबारा नहीं पढ़ते। एक अच्छा पाठक हमेशा दुबारा पढ़नेवाला पाठक ही हो सकता है। मैं आपको बताता हूँ, ऐसा क्यों? जब हम पहली बार पुस्तक पढ़ते हैं—तब पढ़ने की शारीरिक प्रक्रिया, बाएँ से दाएँ तक आँखें घुमाना, एक पंक्ति के बाद दूसरी पंक्ति पढ़ना, एक पृष्ठ के बाद दूसरा पृष्ठ पलटना, ये क्रियाएँ ख़ुद में आप और पुस्तक के रसास्वादन के बीच बाधा बन जाती हैं। जब हम किसी पेंटिंग को देखते हैं तो हम अपनी आँखें उसी तरह नहीं घुमाते हालाँकि उसमें भी गहराई और विकास के तत्त्व मौजूद रहते हैं। जब हम किसी पेंटिंग से पहली बार संपर्क बनाते हैं, तो उसमें समय हस्तक्षेप नहीं करता, किन्तु एक किताब ने संपर्क बनाने के लिए समय का होना ज़रूरी है। हमारे पास ऐसी कोई दैहिक इंद्रिय नहीं है (जैसे पेंटिंग को देखने के लिए आँख है) जो एक पुस्तक को एक चित्र की तरह—अपनी समग्रता में देख सके और साथ-ही-साथ उसकी तफ़सीलों का रसास्वादन भी करा सके। किंतु यदि हम पुस्तक को दुबारा, तिबारा या चौथी बार पढ़ें, तो हम उसे वैसे ही ‘देख’ सकते हैं, जैसे किसी चित्र को।”
सिद्धांत नहीं तफ़सीलें, डिटेल, छोटी-छोटी बातें—नाबोकोव की दृष्टि में एक उपन्यास के प्राण उसके सूक्ष्म ब्यौरों में वास करते हैं; कमरे का फ़र्नीचर या आँखों का रंग, कमरे, कपड़े, बातचीत का तरीक़ा और रहन-सहन का ढंग—ये वे महीन तंतु हैं, जिनसे एक ‘मास्टर पीस’ का ताना-बाना बुना जाता है। इनके साक्षात से ही पाठक की कल्पना स्फुरित होती है; उत्कृष्ट कल्पना वह नहीं है, जब हम उपन्यास में किसी स्थान या लैंडस्केप या अतीत के प्रति मोहित होने लगते हैं; सबसे निकृष्ट कल्पना तो वह है जब कोई पाठक उपन्यास के नायक में अपने को ढूँढ़ने लगता है। महान् साहित्य का आनंद लेने के लिए ठंडी, शांत, निर्वैयवितक कल्पना की ज़रूरत है, जो अपने को तटस्थ और निस्संग रख सके—तभी एक किताब पूरी सार्थकता के साथ हमारी आत्मा में कंपन, रीढ़ की हड्डी के ऊपर फुरफुरी जगा सकती है। एक आदर्श पाठक के भीतर पागल मतवालापन और वैज्ञानिक विवेक—दोनों का समन्वय होना चाहिए।
नाबोकोव की राय में साहित्य एक आविष्कार है। क़िस्सा हमेशा क़िस्सा रहेगा। किसी कहानी को ‘सत्यकथा’ कहना, नाबोकोव की दृष्टि में, कला और सत्य दोनों का निरादर करना है। हर महान् कथाकार छली होता है। स्वयं प्रकृति सबसे ज़्यादा छल करती है—तितलियाँ और पक्षी आत्मरक्षा के लिए कैसे अजीब रंगों का वेश बदलते रहते हैं! साहित्य का जन्म उस दिन हुआ—जब वह लड़का भेड़िया-भेड़िया चिल्लाता हुआ आया था, जबकि उसके पीछे कोई भेड़िया नहीं था। लंबी घास में छिपे भेड़िये और लड़के के मनघड़न्त भेड़िये के बीच जो झिलमिलाता जाला है, वही साहित्य की कला है। वह लड़का आख़िर में अपने झूठ के कारण मारा गया, यह सही है; लेकिन यह भी सही है कि वह लड़का छोटा-सा जादूगरं था, एक आविष्कारकर्ता, दुनिया का पहला कथाकार।
तीन दृष्टिकोणों से एक लेखक को जाँचा जा सकता है—कथावाचक, शिक्षक, जादूगर। एक बड़े लेखक में तीनों के तत्त्व होते हैं, किंतु जादू का तत्त्व ही उसे महान् बनाता है। “मेरे विचार में एक उपन्यास को जाँचने की सबसे अच्छी कसौटी यह है कि उसमें कविता की आत्यन्तिकता और विज्ञान की अंतर्दृष्टि दोनों मौजूद हों। कला के जादू से सराबोर होने के लिए एक बुद्धिमान पाठक किसी उत्कृष्ट पुस्तक को सिर्फ़ दिल से नहीं, सिर्फ़ दिमाग़ से नहीं, बल्कि अपनी रीढ़ से छूता है, क्योंकि कला का आनंद यहीं स्पंदित होता है। नाबोकोव का पक्का विश्वास है कि वही लेखक जादूगर हो सकता है, जो सामान्य बुद्धि, व्यावहारिक समझ (common sense) को नष्ट करने का साहस कर सके। यह कॉमनसेंस ही है—जिसने अजीब, सुंदर चित्रों पर इसलिए कीचड़ उछाली, क्योंकि उनमें नीले पेड़ थे। कॉमनसेंस हर चीज़ को अवमूल्यित कर देती है। कॉमनसेंस चौकोर है, जबकि जीवन की सबसे मूल्यवान चीज़ें गोल होती हैं, विश्व की तरह गोल, बच्चे की आँखों की तरह गोल, जब वह पहली बार सर्कस देखता है... हर व्यक्ति जो कॉमनसेंस को ठुकराकर चलता है, उसे सबसे ज़्यादा जोखिम उठाना पड़ता है, वह चाहे मसीहा हो, गुफ़ा में छिपा जादूगर, क्षुब्ध कलाकार, स्कूल का शैतान लड़का—सबको एक पवित्र क़िस्म के ख़तरे का सामना करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति अपने मन में एक बम लेकर चलते हैं, एक प्राइवेट बम...” नाबोकोव का सुझाव है कि यह बम कॉमनसेंस के आदर्श-नगर पर गिरा देना चाहिए, उसके विस्फोटन से जो लपटें निकलेंगी उसके प्रकाश में हम असली कला को पहचान सकेंगे। यह अतार्किक कल्पना की तर्कसंगत कॉमनसेंस पर सबसे बड़ी विजय होगी।
“अतार्किक कल्पना से मेरा क्या मतलब है? मेरा मतलब है, सामान्य के साम्राज्य पर छोटी तफ़सील की विजय; अंश हमेशा समग्र की अपेक्षा अधिक प्राणवान होता है; मेरा मतलब उन छोटी तफ़सीलों से है, जिसे मनुष्य सँजोकर रखता है, जबकि लोगों की भीड़ एक सामान्य प्रवृत्ति से मदमत्त होकर एक सामान्य लक्ष्य की तरफ़ भागती है। मैं उस आदमी का आदर करूँगा जो अपने पड़ोसी के जलते मकान में घुसकर छोटे-से बच्चे को निकाल लाता है, किंतु यदि वह बच्चे के साथ उसके प्रिय खिलौने को भी ले आता है, तो उससे हाथ मिलाऊँगा। मुझे एक कार्टून याद है, जिसमें सात मंजिल से नीचे गिरता हुआ आदमी, तीसरी मंजिल की दुकान के साइनबोर्ड को देखकर हैरान होता है कि उसके हिज्जे क्यों ग़लत हैं और अब तक किसी ने उन्हें ठीक क्यों नहीं किया? छोटी, नगण्य चीज़ों पर विस्मय करने की सामर्थ्य में ही आत्मा अपने स्वगत वचन बोलती है—ज़िंदगी के नीचे लिखे इन फ़ुटनोट्स में ही सबसे ऊँची चेतना की अभिव्यक्ति होती है, जो तर्क और कॉमनसेंस की होशियारी से बहुत अलग है।”
कहानीकार की प्रेरणा का क्या उत्स है; कौन-सा वह आत्मलोक है, जहाँ उसे अपने उपन्यास का पहला दृश्य दिखाई देता है? नाबोकोव इसका उत्तर स्मृति के अप्रत्याशित स्फुरण में खोजते हैं। “एक आदमी चला जा रहा है। अचानक वह सीटी बजाने लगता है और उसी क्षण आपकी नज़र पानी के गड़हे में डोलती पेड़ की छाया पर पड़ती है... और तभी आपको एक पुरानी वाटिका की याद आती है, भीगे पत्तों और पक्षियों की याद, जिसमें एक पुराना मित्र (जो मुद्दत पहले मर चुका है) अचानक अतीत से बाहर निकलता हुआ दिखाई देता है, मुस्कुराता हुआ, अपनी भीगी छतरी को बंद करता हुआ... सारी चीज़ एक उज्ज्वल क्षण में घट जाती है, जिसमें बहते हुए दृश्य और इम्प्रेशन की गति इतनी तेज़ है कि आप समझ नहीं पाते, क्यों इस गड़हे को ही देखकर यह याद कौंध आई, सीटी की इस आवाज़ को सुनकर ही क्यों? और इन दो चीज़ों—आवाज़ और दृश्य—के सम्मिश्रण के नियम क्या हैं, जिन्हें मस्तिष्क नहीं समझ सकता लेकिन फिर भी एक अद्भुत जादू जैसा कँपकँपाता अनुभव होता है—जैसे भीतर किसी का पुनर्जन्म हुआ है, एक ऐसा रसायन जिसने देखते-देखते एक मृत आदमी को जीवित कर दिया है। यह अनुभव ही उसका आधार है, जिसे हम प्रेरणा कहते हैं; सीटी की धुन, पत्ते, बारिश, इन सबके भीतर एक सहज क़िस्म का स्फुरण उत्पन्न होता है। यह उन लोगों को भी महसूस होता है, जो लेखक नहीं हैं, किंतु कुछ लोग इसकी ओर ध्यान भी नहीं देते।”
नाबोकोव के इस उदाहरण में स्मृति एक अनोखी किंतु अवचेतन भूमिका अदा करती है, जिसमें सब कुछ वर्तमान और अतीत के संपूर्ण गुम्फन पर निर्भर करता है। प्रेरणा इसे तीसरा आयाम देती है—अतीत और वर्तमान तो हैं ही—अब उसमें तीसरा तत्त्व भविष्य भी शामिल हो जाता है, एक ऐसा समय जिसमें कहानी का जन्म होता है। अतः एक क्षण की कौंध में समय अपना समूचा वृत्त बना लेता है, जिसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि समय का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाता है। “लगता है, जैसे समूचा विश्व आपके भीतर प्रवेश कर गया है और आप समूचे विश्व के भीतर घुल गए हों। अहं या ईगो की दीवार सहसा ढह जाती है और अहं का इतर संसार बाहर से भागता हुआ भीतर के बंदी को बचाने आ जाता है, जबकि वह—बंदी—पहले से ही खुले में नाच रहा है।”
नाबोकोव ने अतार्किक ज्ञान की बात कही है—जिसमें पहेलियाँ हैं, लेकिन उत्तर नहीं। गोगोल के ग़रीब पात्र का ओवरकोट चुरा लिया जाता है और काफ़्का का इंश्योरेंस एजेंट अचानक एक सुबह एक कीड़े में बदल जाता है। इन सब घटनाओं का क्या मतलब है? हम काफ़्का की कहानी के सब कल-पुर्जे निकालकर भीतर झाँकें, क्या है इसका अंदरूनी ढाँचा? हम यह पता चला सकते हैं, कैसे एक टुकड़ा दूसरे टुकड़े से जुड़ा है, कैसे कहानी का पैटर्न तैयार हुआ है किंतु असली भेद की थाह लेने के लिए आपके भीतर कोई ऐसा अणु, कीटाणु होना चाहिए जो आपके भीतर होनेवाली उथल-पुथल का उत्तर दे सके, जिसे आप न परिभाषित कर सकते हैं, न नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। सौंदर्य और दया—शायद इनके ज़रिए हम कला की परिभाषा के सबसे निकट आ सकते हैं। जहाँ सौंदर्य है, वहाँ दया है, क्योंकि सीधी-सी बात यह है कि सौंदर्य को मर जाना है। सौंदर्य हमेशा मर जाता है, चीज़ के साथ रूप मर जाता है और दुनिया व्यक्ति के साथ मर जाती है।
और अंत में नाबोकोव थोड़ा-सा झुककर लेखक की मेज़ पर नज़र डालते हैं : “कोरे पन्ने पड़े हैं लेकिन चमत्कार की बात यह है कि सारे शब्द वहाँ हैं, अदृश्य स्याही में लिखे हुए, दृश्य बनने को आतुर। आप तस्वीर का कोई भी पहलू उभार सकते हैं, कहीं से भी शुरू कर सकते हैं क्योंकि जहाँ तक लेखक की बात है, उसके लिए किसी भी क्रमबद्ध सिलसिले के कोई माने नहीं। क्रम इसलिए है क्योंकि शब्दों को एक-दूसरे के बाद अलग-अलग पन्नों पर लिखना पड़ता है। समय और सिलसिला लेखक के मस्तिष्क में नहीं है क्योंकि न समय ने, न स्पेस ने उसके प्रारम्भिक ‘दृश्य’ (vision) को निर्धारित किया था। अगर पुस्तक को हम वैसे ही पढ़ सकते, जैसे चित्र को देखते हैं—एक नजर में, दाएँ और बाएँ, शुरू और अंत के झंझट से मुक्त होकर—तो यह उपन्यास के रसास्वादन करने का आदर्श ढंग होता, क्योंकि सचमुच इसी ढंग से लेखक ने भी अपनी पुस्तक को गर्भाधान के क्षण में देखा था।
“अच्छा तो, अब वह लिखने के लिए तैयार है। अब वह सब ज़रूरी चीज़ों से लैस है। उसका फ़ाउंटेन पेन अच्छी तरह भरा है। घर ख़ामोश है, तमाखू और माचिस एक-दूसरे के साथ हैं; रात अभी जवान है... हमें उसे इस आरामदेह हालत में छोड़कर दबे पाँव बाहर आ जाना चाहिए, दरवाज़ा ओड़ देना चाहिए और घर से बाहर आते हुए यदि हमें कहीं अँधेरे में सीढ़ियों पर ‘कॉमनसेंस’ का राक्षस दिखाई दे जाए, यह बुड़बुड़ाता हुआ कि भीतर बैठे लेखक की पुस्तक सामान्य लोगों में लोकप्रिय नहीं होगी, कि वह पुस्तक नहीं बिकेगी... तो इससे पहले कि वह इस शब्द ‘बिक्री’ को मुँह से निकाले, हमें इस झूठे कॉमनसेंस को गोली मार देनी चाहिए।”
यह हैं ‘लोलिता’ के लेखक के उपन्यास-रचना पर विचार... लेकिन जैसे वह लेखक को उसके कमरे में छोड़कर बाहर आ गए थे, हमें भी नाबोकोव को उनके क्लासरूम में छोड़कर चले आना चाहिए, इस अफ़सोस और ईर्ष्या के साथ कि एक ज़माने में हम उनके छात्र नहीं थे, जिन्हें वह हर रोज़ साहित्य और कला के रहस्यमय, जादू-भरे मंत्र, इतने प्यार और पागलपन के साथ समझाते थे।
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