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लल्लेश्वरी

1320 - 1392 | श्रीनगर, जम्मू कश्मीर

लल्लेश्वरी की संपूर्ण रचनाएँ

सवैया 1

 

उद्धरण 9

अभी में अल्पायु बाला थी। दम भर में ही पूर्ण-यौवना बनी। अभी मैं चलती-फिरती थी और अभी जलकर राख बन गई।

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विचारहीन लोग धर्मग्रंथों को उसी प्रकार बाँचते रहते हैं, जिस प्रकार पिंजरे में तोता राम-राम की रट लगाता है।

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भूख-प्यास से इस देह को तड़पाना नहीं। ज्यों ही बुझने लगे, त्योंही इसे सँभालना। तेरे व्रत-उपवास और साज-सिंगार पर धिक्कार। उपकार कर यही तेरा परम कर्तव्य-कर्म है।

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खान-पान के अतिरेक से किसी उद्देश्य को नहीं पाएगा और निराहार बनकर अहंकारी बन जाएगा। भोजन युक्त हो (न कम, अधिक) उसी से समरसता रहेगी। समरसतायुक्त आहार-विहार से ही बंद द्वार खुल जाएँगे।

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हे मूढ़! व्रतधारण और साज-सज्जा कर्तव्य कर्म नहीं है। ही मात्र काया की रक्षा कर्तव्य कर्म है। भोले मानव! देह की सार-संभाल ही कर्तव्य कर्म नहीं। सहज विचार (आत्म-तत्त्वचिंतन) वास्तविक उपदेश है।

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