
शाश्वत साहित्य लिखनेवाला क्रांतदर्शी साहित्यकार भी रेडियो के अहलकारों के सामने झिझककर बात करता है।
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आकाशवाणी की तरंगों में विचार के लिए कोई स्थान न पहले था, न आज है। कभी कोई विचार सुनाई पड़ जाए तो रेडियो को खड़खड़ाकर देखना पड़ता है कि यह विचार कहा से अनधिकृत घुस आया।