प्रायश्चित पर उद्धरण
किसी दुष्कर्म या पाप
के फल भोग से बचने के लिए किए जाने वाले शास्त्र-विहित कर्म को प्रायश्चित कहा जाता है। प्रायश्चित की भावना में बहुधा ग्लानि की भावना का उत्प्रेरण कार्य करता है। जैन धर्म में आलोचना, प्रतिक्रणण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना—नौ प्रकार के प्रायश्चितों का विधान किया गया है।

अपने लिए अफ़सोस मत करो। केवल बेवक़ूफ़ ही ऐसा करते हैं।

पाप कर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करने वाला मनुष्य उस पाप से छूट जाता है तथा फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूँगा, ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी मुक्त हो जाता है।


मित्र-द्रोही, कृतघ्न स्त्री हत्यारे और गुरु-घाती—इन चारों का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है।

न झुकने वाला व्यक्ति तड़प सकता है और विद्रोह कर सकता है, पश्चात्ताप तो निर्बल व्यक्ति करते हैं।

अन्याय करके पछताने की आदत बुरी नहीं है।

बहुत कम यादें पछतावे से अछूती होती हैं।

यादों का दूसरा नाम पछतावा।

किसी से कोई ज़्यादती नहीं करनी चाहिए। अगर हो जाए तो मुआफ़ी माँग लेनी चाहिए। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि आदमी बिल्कुल संवेदनशून्य हो जाए।