सिस्टम पर उद्धरण
'सिस्टम ही ख़राब है'
के आशय और अभिव्यक्ति में शासन-व्यवस्था या विधि-व्यवस्था पर आम-अवाम का असंतोष और आक्रोश दैनिक अनुभवों में प्रकट होता रहता है। कई बार यह कटाक्ष या व्यंग्यात्मक लहज़े में भी प्रकट होता है। ऐसे 'सिस्टम' पर टिप्पणी में कविता की भी मुखर भूमिका रही है।
वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।
स्वेच्छापूर्ति साधना ही जिसका स्वभाव है; ऐसा मनुष्य व्यवस्था की ओर झुके भी तो केवल इसलिए झुक सकता है, क्योंकि उसकी इच्छा अन्य को भी अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाना चाहती है—ऐसे में दंड का ही साम्राज्य हो सकता है, व्यवस्था उभरे भी तो दास-व्यवस्था ही उभरेगी, कोई परस्पर-भाव-जन्य ‘समझौता’ कैसे बनेगा?
कुछ दिन पहले इस देश में यह शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सींग-पूँछ का जानवर होता है। उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत-से लड़कों ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दीं और स्कूलों पर हमला बोल दिया।
तुम्हारे विचार बहुत ऊँचें हैं पर कुल मिलाकर उससे यही साबित होता है कि तुम गधे हो।
प्राचीन समाज-व्यवस्था में चाहे आदमी जिस जाति का हो, लेकिन उस जाति को छिपाता नहीं था। उस जाति का होने में भी अपने-आपमें एक सम्मान अनुभव करता था। आज वह मनुष्य ज्यादा उपेक्षित, पीड़ित, दलित और पतित मान लिया गया है।
पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर न मरें कि उनका मुक़दमा अधूरा ही पड़ा रहा। इसके सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।
कुव्यवस्था से चिपके रहने के कारण उसे व्यवस्था का सहज अंग मानने की आदत पड़ जाती है और संवेदना—जो सृजन की बुनियादी शर्त है—भोथरी पड़ने लगती है।
ये अदालतें लोगों के भले के लिए नहीं हैं। जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतों के ज़रिए लोगों को बस में रखते हैं।
रुप्पन बाबू अठारह साल के थे। वे स्थानीय कॉलिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से और ख़ासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।
क़स्बे अब शहर बन गए हैं पर महानगरों के पास आने की जगह और दूर चले गए हैं, भले नई संचार व्यवस्था यह दावा करते नहीं थकती कि उसने भौगोलिक और सामाजिक दूरियाँ मिटा दी हैं।
त्याग के और ज़िंदगी से इनकार करने के ख़याल लोगों में उस वक़्त पैदा होते हैं, जब राजनीतिक या आर्थिक मायूसी का उन्हें सामना करना पड़ता है।
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व्यवस्था या पद्धति के विरुद्ध झगड़ना शोभा देता है, पर व्यवस्थापक के विरुद्ध झगड़ा करना तो अपने विरुद्ध झगड़ने के समान है।
अराजक देश में अलंकृत मनुष्य प्रसन्न अश्वों और रथों पर चढ़कर नहीं चल सकते।
हमारी शिक्षा की दूध पीने की छोटी बोतल लगभग ख़ाली है, और स्वास्थ्य-विज्ञान हताश होकर अपना अँगूठा चूस रहा है।
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अराजक देश में दूर की यात्रा करने वाले वणिक बहुत सी पण्य-सामग्री लेकर कुशलपूर्वक मार्गों में नहीं चल सकते।
अराजक देश में बाण चलाने का अभ्यास करने वाले योद्धाओं का टंकारघोष नहीं सुनाई पड़ता।
भारत में वर्ग-संघर्ष न होने का कारण यह है कि अपने वर्ग-चरित्र का सबने त्याग कर दिया है, और वर्तमान व्यवस्था में सबके निहित स्वार्थ फँसे हुए हैं।
अराजक देश में योग और क्षेम का नाश हो जाता है। अराजक राष्ट्र की सेना शत्रुओं से युद्ध नहीं करती।
प्रगतिशील देशों के सामने एक ही आदर्श है—अमरीका। अमरीका जैसा बनना ही उनका उद्देश्य है। लेकिन अमरीका में भी कुछ लोगों को संभवतः मालूम है कि वह व्यवस्था ज़हरीली है।
पुलिस की लीला अपरम्पार है।
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बहुत सारी समस्याएँ थीं, जहाँ भी देखो दुष्टता अपना सिर उठा रही थी।
दरख़्वास्त को किसी भी समय ख़ारिज कराया जा सकता है।
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अराजक देश में जितेंद्रिय पुरुष माला, मिष्ठान और दक्षिणा से देवताओं की पूजा नहीं कर सकते।
आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना-कचहरी का मुँह देखना पड़ता है।
मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था। दारोग़ाजी उस पर बैठे भी थे, लेटे भी थे।
जैसे बिना जल के नदी, बिना घास के वन और बिना गोपाल के गौएँ होती हैं—वैसे ही बिना राजा का राष्ट्र होता है।
वे दुर्व्यवहार, हत्याओं, भ्रष्टाचार, जासूसी, अलगाव, भय को भूल गए थे, डरावनी कहानियाँ मिथक बन गई थीं। हर किसी के पास नौकरी थी और इतना अपराध नहीं था।
व्यवस्था द्वारा दिखाया न्याय गया भ्रम होता है।