नल
हमारी बस्ती में एक ही नल था जिसका पानी रुक-रुक कर, यूँ कहिए, रो-रोकर निकलता था। सुबह-शाम इस नल के इर्द-गिर्द एक भारी भीड़ मक्खियों की भाँति टूट पड़ती थी, लेकिन नल की धार किसी दुर्लभ चीज़ की तरह मुश्किल से निकलती। दोपहर को पानी एकदम बंद रहता, क्योंकि