जयशंकर प्रसाद के उद्धरण

अन्य देश मनुष्यों की जन्मभूमि है, लेकिन भारत मानवता की जन्मभूमि है।
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असंभव कहकर किसी काम को करने से पहले, कर्मक्षेत्र में काँपकर लड़खड़ाओ मत।
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प्रेम महान है, प्रेम उदार है। प्रेमियों को भी वह उदार और महान बनाता है। प्रेम का मुख्य अर्थ है—‘आत्मत्याग’।
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परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है, निश्चेष्ट शांति मरण है।
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जीवन विश्व की संपत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या दुःख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं।
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कोई समाज और धर्म स्त्रियों के नहीं। बहन! सब पुरुषों के हैं। सब हृदय को कुचलने वाले क्रूर हैं, फिर भी मैं समझती हूँ कि स्त्रियों का एक धर्म है, वह है आघात सहने की क्षमता रखना। दुर्देव के विधान ने उसके लिए यही पूर्णता बना दी है। यह उनकी रचना है।


वही शरीर है, वही रूप है, वही हृदय है; पर छिन गया अधिकार और मनुष्य का मान-दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन लज्जा की रंगभूमि बन रहा है।
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पुरुषों के प्रति स्त्रियों का हृदय, प्रायः विषम और प्रतिकूल रहता है। जब लोग कहते हैं कि वे एक आँख से रोती हैं तो दूसरी से हँसती हैं, तब कोई भूल नहीं करते। हाँ, यह बात दूसरी है कि पुरुषों के इस विचार में व्यंग्यपूर्ण दृष्टिकोण का अंश है।

प्रत्येक जाति में मनुष्य को बाल्यकाल ही में एक धर्म-संघ का सदस्य बना देने की मूर्खतापूर्ण प्रथा चली आ रही है। जब उसमें जिज्ञासा नहीं, प्रेरणा नहीं, तब उसके धर्मग्रहण करने का क्या तात्पर्य हो सकता है?
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देशभक्त, जननी का सच्चा पुत्र है।

इस भीषण संसार में एक प्रेम करने वाले हृदय को दबा देना सबसे बड़ी हानि है।
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क्षमा पर केवल मनुष्य का अधिकार है, वह हमें पशु के पास नहीं मिलती।
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सहनशील होना अच्छी बात है, पर अन्याय का विरोध करना उससे भी उत्तम है।
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स्त्रियों का यह जन्मसिद्ध अधिकार है। मंगल! उसे खोजिना, परखना नहीं होता, कहीं से ले आना नहीं होता। वह बिखरा रहता है असावधानी से —धनकुबेर की विभूति के समान! उसे सम्हालकर केवल एक और व्यय करना पड़ता है।
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धर्म जब व्यापार हो गया और उसका कारबार चलने लगा, फिर तो उसमें हानि और लाभ दोनों होगा।
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स्त्री, जल-सदृश कोमल एवं अधिक से अधिक निरीह है। बाधा देने की सामर्थ्य नहीं, तब भी उसमें एक धारा है, एक गति है, पत्थरों की रुकावट की भी उपेक्षा करके कतराकर वह चली हो जाती है। अपनी संधि खोज ही लेती है, और सब उसके लिए पथ छोड़ देते हैं, सब झुकते हैं, सब लोहा मानते हैं।
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स्त्रियों का स्नेह-विश्वास भंग कर देना, कोमल तंतु को तोड़ने से भी सहज है, परंतु सहज होकर उसका परिणाम भी सोच लो।
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दो प्यार करने वाले हृदयों के बीच में स्वर्गीय ज्योति का निवास होता है।
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अधिक हर्ष और उन्नति के बाद ही अधिक दुःख और पतन की बारी आती है।
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जो अपने कर्मों को ईश्वर का कर्म समझकर करता है, वही ईश्वर का अवतार है।
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निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है। घोर दु:ख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है।
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भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न करके ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है। किंतु तुम लोगों की दस्युवृति ने उन्हें लूटा है।
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नारी हृदय, जिसके मध्य-बिंदु से हट कर, शास्त्र का एक मंत्र, कील की तरह गड़ गया है और उसे अपने सरल प्रवर्तन-चक्र में घूमने से रोक रहा है।
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स्त्रियों को उनकी आर्थिक पराधीनता के कारण जब हम स्नेह करने के लिए बाध्य करते हैं, तब उनके मन में विद्रोह की सृष्टि भी स्वाभाविक है!
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जिसकी भुजाओं में दम न हो, उसके मस्तिष्क में तो कुछ होना ही चाहिए।
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अतीत सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य के लिए भय क्यों, और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँगा, फिर चिंता किस बात की?

पुरुष है कुतूहल और प्रश्न; और स्त्री है विश्लेषण, उत्तर और सब बातों का समाधान।
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दरिद्रता सब पापों की जननी है तथा लोभ उसकी सबसे बड़ी संतान है।
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मनुष्य के भीतर जो कुछ वास्तविक है, उसे छिपाने के लिए जब वह सभ्यता और शिष्टाचार का चोला पहनता है, तब उसे संभालने के लिए व्यस्त होकर कभी-कभी अपनी आँखों में ही उसको तुच्छ बनना पड़ता है।


स्त्री जिससे प्रेम करती है, उसी पर सर्वस्व वार देने को प्रस्तुत हो जाती है।
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मनुष्य दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, और अपना चलना बंद कर देता है।
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संसार में छल, प्रवंचना और हत्याओं को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत ही नरक है।
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मैं तो गृहस्थ नारी की मंगलमयी कृति का भक्त हूँ। वह इस साधारण संन्यास से भी दुष्कर और दंभविहीन उपासना है।
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स्त्रियाँ बहुत शीघ्र उत्साहित हो जाती हैं, और उतने ही अधिक परिणाम में निराशावादिनी भी होती हैं।
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संसार ही युद्ध क्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ?
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अभावमयी लघुता में मनुष्य अपने को महत्त्वपूर्ण दिखाने का अभिनय न करे तो क्या अच्छा नहीं है?
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हम जितनी कठिनता से दूसरों को दबाए रखेंगे, उतनी ही हमारी कठिनता बढ़ती जाएगी।
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