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दास्तान-ए-गुरुज्जीस-2

पहली कड़ी से आगे...

हमने जैसे-तैसे पाँचवीं कक्षा पास कर ली, या ऐसे कहें कि मास्टर की पोती होने के एवज में हमें पाँचवा दर्जा डका दिया गया और हम से किसी ने यह न पूछा कि क्या आप पाँचवी पास से तेज़ हैं? क्योंकि जब भी हमसे कोई प्रश्न पूछा जाता, जवाब में उसे हमारी छलकती आँखें नसीब होती; जो उसकी मूर्खता पर प्रतिप्रश्न करती-सी प्रतीत होती। हमने तब तक साड़ी का किनारा बनाना सीख लिया था, पर गणित में दो अंकों की बड़ी से बड़ी संख्या अभी भी हमसे पर्याप्त दूरी बनाए हुए थी।

अब हमारे ऊपर पिता की कृपा बरसनी शुरू होने वाली थी, जिससे हम लगभग अनभिज्ञ फराक के फाड़ा में भिज्ञ मक्खियों के बीच गुड़ और लाई खाने का व्यस्ततम उपक्रम कर रहे थे और हमारे पीठ पीछे यह आदेश पारित हो चुका था कि—अब इ इहाँ ना पढ़िहे! विश्वासघात हुआ था हमारे साथ! हम अपने कट्टी-बट्टी मित्रों द्वारा घमंडी की उपाधि के साथ बहिष्कृत किए गए।

पिता ने हमें अपनी उच्च प्राथमिक शिक्षा के लिए उसी ऐतिहासिक धरा-धाम पर ले जाकर पटक दिया, जहाँ से नामवर सिंह ने भी अपनी उच्च प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की थी; जिससे यह क़स्बा इतना अनजान है, जितना वह अपनी तोंद पर बैठी मक्खियों-मच्छरों और गुलाबजामुन के सिर्रे में पड़े चींटों से रहता है। यह क़स्बा अपनी उपलब्धियों पर ग़ुरूर नहीं करता। यह महाकुंभ के महासंतो जैसा निर्लोभी है और जो आपने किसी उच्च सम्मानित से यह पूछा लिया कि क्या आप उन्हें जानते हैं? उत्तर आयेगा—कवन? ऊ जीयनपुर वाला बाऊ साब!

हालाँकि हमें भी यह बात तब पता चली जब हम एम.ए. के अदहन में चाऊर के माफ़िक पिता और परम मित्रों के अप्रत्यक्ष दबाव में खदबदाने लगे। यह अप्रत्यक्ष दबाव डालते पिता और परम मित्र हमारे जीवन के बेहद ख़तरनाक जीव रहे, जिसे बचने का सिर्फ़ प्रयास किया जा सकता है। इन्हें देखते ही ज़बान पर एक ही सूत्र आता है—कर्म करो फल की चिंता मत करो, हालाँकि यह दूसरी बात है कि हमें हमेशा कर्म की चिंता लगी रहती है।

छठवीं कक्षा हम मौसी की शादी में चार महीना ननिहाल रहकर बिना इम्तिहान दिए ही पास कर गए और अब हमारे लिए दूसरे तरह के इम्तिहान की तैयारी उस अदृश्य भगवान द्वारा शुरू कर दी गई थी—जिसे हमारे बाऊजी (बाबा) जीवन के अंतिम दिनों में “इ ससुर भगवनवा” से संबोधित करते थे।

इस बात को सुनते हुए, हम हमेशा उनसे पूछते थे कि इ तोहार ससुर कइसे हो गईनअ! गाँव में तब ‘ससुर’ और ‘साला’ को गालियाँ नहीं समझा जाता था, लेकिन बच्चे जो मन के सच्चे तो थे, पर ज़बान के विकेटकीपर थे—के लिए ये गालियाँ वर्जित थी। स्त्री-पुरुष की गालियाँ तब बँटी हुई थीं। स्त्रियाँ, स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग गालियों का व्यवहार करती थीं और पुरुष, स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग गालियों का व्यवहार करता था। हालाँकि अब वहाँ जेंडर इक्विलिटी आ गई है, अब कोई भी, किसी को भी, कैसी भी गाली दे सकता है। गाँव विकसित हो रहा है—यह लिखते हुए हम यह ज़रूर लिखना चाहेंगे कि हम गालियों के पक्षधर नहीं हैं, अन्यथा हमें यहाँ गालीभाजन बनना पड़ सकता है।

अब हम आए सातवीं में, जहाँ हम जैसे कच्ची मिट्टियों को ठोंकना कम पीटना ज़्यादा के प्रमेय के अंतर्गत घड़ा बनाने की सिद्धकारी प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इस कुट्टमस में एक दिन हमारे प्रांगण में पूरनमासी उतरी, जो हमारे विद्यालय के संरक्षक थे—लगभग पचहत्तर से ऊपर थे। कानों में सुनने वाली मशीन लगाए, लऽऽकदऽऽक कुर्ता-धोती में, धोती का एक छोर हाथ की चिटकी से पकड़े, झकझक-चकमक करते धीरे-धीरे हमारी कक्षा की ओर बढ़े आ रहे थे। हमें बताया गया कि यह हमारे सरजी के बाऊजी हैं, जो किसी विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं और हम भी इन्हें बाऊजी ही संबोधित करें। बाऊजी बुलाने के अतिरिक्त जितनी भी बातें थीं, हमें सब बेकार लगीं और एक्वा को फेल करते फ़िल्टर की भाँति हमने सारी बातें फ़िल्टर कर दी। बाऊजी ने एक घंटे तक हमें अलंकार पढ़ाया और ब्रेंच (जिसे अब पढ़े-लिखे लोग बेंच बोलते हैं) के नीचे हम हाथ जोड़े बैठे रहे कि ये अब जाये या तब जाये! क्योंकि विसर्जनालय हमारी प्रतिक्षा में था। बाऊजी को सरजी ने आकर बताया कि बच्चे थक जाएँगे और आप भी, कृपया अब रहने दें! हमें बख़्या गया। बाऊ जी ने फिर आने का वादा किया और जब तक वह चलने-फिरने में समर्थ रहे, सालभर में हमारी दो-चार कक्षाओं की लानत-मलामत करते रहे। (हमने उन्हें देखा-सुना-पढ़ा यह हमारा सौभाग्य रहा।)

हम जब एम.ए. में आए, तब पता चला वह कुछ थे और हम सब अपनी मूर्खताओं में गोबर थे, गुबरैले थे और अब गुब्बारे हुए जा रहे हैं।

हमने कसम खाई है, हम मूर्खता के लिए और मूर्खता हमारे लिए सदैव ग्राह्य रहेगी।

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अगली बेला में जारी...

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