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कथ्य-शिल्प : दो बिछड़े भाइयों की दास्तान

शिल्प और कथ्य जुड़वाँ भाई थे!

शिल्प और कथ्य के माता-पिता कोरोना के क्रूर काल के ग्रास बन चुके थे। दोनों भाई बहुत प्रेम से रहते थे। एक झाड़ू लगाता था एक पोंछा। एक दाल बनाता था तो दूसरा रोटी। इसी तरह जीवन गुज़र रहा था।

दोनों भाई इस बार के कुंभ के मेले में स्नान करने गए। मकर संक्रांति के दिन निपट भोर में, वे त्रिवेणी में स्नान करके अपने तंबू की तरफ़ लौट रहे थे कि भयानक भगदड़ मच गई। सब इधर-उधर भागने लगे—एक-दूसरे को कुचलते हुए।

इसी भगदड़ में दोनों भाई बिछड़ गए।

शिल्प का गमछा फट गया था और पाँव में चोट लगी। शिल्प बचते-बचाते जैसे-तैसे इलाहाबाद अर्थात् प्रयागराज की तरफ़ निकल गया। तभी शिल्प को एक सभागार दिखाई दिया, जहाँ एक साहित्यिक गोष्ठी में स्मृति सम्मान व्याख्यान होने वाला था। वह शिल्प सभागार में घुस गया, जहाँ अभी लेखक बुद्धिजीवी समोसा-चाय का सेवन कर रहे थे।

शिल्प ने भी चार समोसे खाए और गर्मागर्म चाय पी और सभागार में एक कुर्सी में धँस गया। शिल्प ने गिनकर देखा, कुल पैंतीस लोग वहाँ उपस्थित थे। शिल्प थका हुआ था। आँखों में नींद घिर आई थी। कमल भारती का व्याख्यान चल रहा था और शिल्प को नींद आ गई।

कार्यक्रम समाप्त हुआ। सभागार ख़ाली हो चुका था। तभी कार्यक्रम के संयोजक प्रोफ़ेसर सरोद तिवारी की नज़र शिल्प पर पड़ी। प्रोफ़ेसर ने पूछा, “तुम कौन हो?”

आँखें मसलते हुए शिल्प ने कहा, “मैं शिल्प हूँ।”

पूछने पर शिल्प ने अपनी कहानी बयान की। शिल्प ने बताया कि वह अनाथ है और कुंभ स्नान के लिए भाई के साथ आया था, लेकिन भगदड़ में भाई बिछड़ गया।

शिल्प सुंदर नौजवान था। प्रोफ़ेसर को अपने काम-काज के लिए एक व्यक्ति की आवश्यकता थी। उसने शिल्प को कहा कि तुम मेरे साथ दिल्ली चलो। तुम्हारे रहने-खाने-पहनने का इंतिज़ाम मैं करूँगा। मरता क्या न करता। शिल्प अपनी गठरी उठाए प्रोफ़ेसर सरोद तिवारी के साथ दिल्ली आ गया।

“मुझे क्या करना होगा?”—शिल्प ने रेलगाड़ी में प्रोफ़ेसर से पूछा।

प्रोफ़ेसर सरोद तिवारी ने कहा कि मैं प्रोफ़ेसर हूँ और एक पत्रिका भी निकालता हूँ। घर का काम-काज और पत्रिका के बंडल इत्यादि बनाकर डाकघर जाने का काम करना होगा।

“आप प्रोफ़ेसर होकर पत्रिका भी निकालते हैं। यह तो बहुत अच्छी बात है।”—शिल्प बोला।

“पत्रिका ही नहीं; घर के बाहर मेरी फ़ोटोस्टेट की दुकान भी है, उसे भी सँभालना पड़ता है।”—प्रोफ़ेसर ने कहा।

दिल्ली पहुँचकर प्रोफ़ेसर साहेब ने सबसे पहला काम शिल्प के आधार कार्ड में नाम बदलवाने का किया। अब शिल्प, शिल्प नहीं, शिल्प तिवारी था।

इन दिनों शिल्प तिवारी प्रोफ़ेसर सरोद तिवारी के घर का काम-काज करता है; फ़ोटोस्टेट की दुकान सँभालता है और पत्रिका के बंडल बनाकर डाकघर जाने का काम करता है, लेकिन उसे अपने बिछड़े हुए भाई कथ्य की बहुत याद आती है।

उधर उस दिन कुंभ की भगदड़ में कथ्य घायल हो गया था। बेहोश हो गया था। उसे किसने वहाँ से उठाया कुछ याद नहीं। जब उसकी आँख खुली तो उसने अपने आप को बनारस के एक अस्पताल में पाया। उसने देखा कि वहाँ कुंभ में घायल हुए लोगों का जमावड़ा है।

कथ्य कुछ भी याद नहीं कर पा रहा था। देह दुःख रही थी। फिर भी उसने अपनी ताक़त बटोरी और अपनी गठरी सँभालते हुए अस्पताल के बाहर आ गया।

कथ्य बनारस में भटकते हुए अस्सी घाट पर पप्पू चायवाले की दुकान पर पहुँच गया। चाय पीने की इच्छा थी, लेकिन पैसे नहीं थे—इसलिए वह चुपचाप एक पटिये पर बैठ गया।

अस्सी घाट की यह पप्पू की चाय दुकान इन दिनों हिंदी साहित्य में चर्चा में थी। यहाँ पर बिखरे हुए क़िस्सों को भदेस भाषा में लिखकर एक लेखक मशहूर हो चुके थे। इसी किताब पर उन्हें साहित्य अकादेमी सम्मान मिला, सिनेमा बना।

बनारस के बहुत से युवा लेखक इस दुकान पर चक्कर काटने लगे कि एक लेखक के रूप में प्रसिद्ध होने के लिए यह जगह बहुत मुफ़ीद है। इन दिनों कुंदन पांडेय नामक युवा लेखक भी यहाँ आकर घंटों बैठा करता था।

आज कुंदन पांडेय ने पप्पू की दुकान पर चाय पीते हुए कथ्य की तरफ़ देखा जो अपनी गठरी सँभाले बैठा था। कुंदन पांडेय ने उसे पूछा, “चाय पीओगे?” कथ्य ने मुंडी हिलाई।

“तुम कौन हो और कहाँ से आए हो?” यह पूछने पर कथ्य ने कहा—“मुझे कुछ भी याद नहीं है। मैं अपने नाम के अलावा सब कुछ भूल चुका हूँ।”

“सब कुछ भूल चुके हो? कमाल है। नाम क्या है तुम्हारा?”—कुंदन पांडेय के पूछने पर कथ्य ने अपना नाम बताया और कहा—“बस, और कुछ भी याद नहीं।”

कुंदन पांडेय ने कथ्य को कहा—“तुम आराम से बैठो, खाओ-पीओ, चाय लो; तब तक मैं एक कहानी लिख लेता हूँ।” कुंदन पांडेय ने अस्सी घाट की पप्पू की दुकान के पटरे पर बैठकर एक कहानी लिखी—‘भूलना’!

युवा लेखक कुंदन पांडेय को कहानियाँ लिखने का चस्का था, लेकिन अभी तक उसकी कोई कहानी प्रकाशित नहीं हुई थी। खेदप्रकाश के साथ लौट आती थी। कुंदन पांडेय ने कहानी लिखी और वहीं पास की दुकान से टाइप कराकर युवा लेखकों का मसीहा समझने वाले संपादक को भेज दी।

[यह तो बाद की बात है कि कुंदन पांडेय की यह कहानी प्रकाशित ही नहीं हुई, बल्कि संजीव की ‘अपराध’ और अखिलेश की ‘चिट्ठी’ कहानी की तरह हिट भी हो गई और कुंदन पांडेय एक प्रतिभाशाली युवा लेखक की तरह हिंदी-संसार में मशहूर हो गया।]

कुंदन पांडेय को लगा कि यह कथ्य नामक लड़का तो उसके लिए बहुत भाग्यशाली है और काम का है। उसने कथ्य को कहा, “मेरे साथ चलोगे? तुम्हारे खाने-पहनने-रहने की व्यवस्था मैं करूँगा।”

कथ्य को क्या एतराज़ हो सकता था। पूछा—“यह तो ठीक है, लेकिन मुझे करना क्या होगा?”

कुंदन पांडेय ने भी पहला काम यही किया कि कथ्य के आधार कार्ड में उसका नाम बदलवाया। अब कथ्य, कथ्य पांडेय था। कुंदन पांडेय ने सोचा कि बनारस में तो हिंदी के लेखक कथ्य के पीछे पड़ जाएँगे, इसलिए उसने चुपचाप कलकत्ता की रेल-टिकट कटाई और कथ्य को लेकर कलकत्ता की ओर चल पड़ा।

कथ्य ने फिर पूछा, “हम कहाँ चल रहे हैं और मुझे करना क्या होगा?”

“मैं तुम्हें गोबर पट्टी से दूर शस्य श्यामला धरती पर ले जा रहा हूँ। हम आरोग्य निकेतन चल रहे हैं, जहाँ तुम्हारा इलाज करवाया जाएगा।”

“लेकिन मुझे करना क्या होगा?”—कथ्य ने फिर पूछा।

“कुछ नहीं, तुम्हें भूलते रहना होगा। तुम भूलते जाओगे और मैं लिखता जाऊँगा।”

तब से कथ्य आरोग्य निकेतन में रहते हुए लगातार भूलता जाता है और कुंदन पांडेय लिखता जाता है।

इस दौरान कुंदन पांडेय ने एक तन्वंगी उपन्यास त्रयी लिखी। अब वह हिंदी का विख्यात लेखक है और उसे गोबर पट्टी का काफ़्का कहा जाता है। उसे विश्वास हो चला है कि कुछ बरस बाद काफ़्का को प्राग का कुंदन पांडेय कहा जाएगा।

कथ्य हर रोज़ भूलता जाता है और कुंदन पांडेय लिखता जाता है और उधर कथ्य का बिछड़ा हुए भाई शिल्प की डाकख़ाने आते-जाते चप्पल घिस रही है और जीवन चल रहा है।

कभी-कभी शिल्प को अपने बिछड़े हुए भाई कथ्य की बहुत याद आती है। वह चुपचाप अपने आँसू पोंछता रहता है और प्रोफ़ेसर सरोद तिवारी की पत्रिका के लिफ़ाफे बनाता रहता है और फ़ोटोस्टेट करता रहता है।

तब से हिंदी-साहित्य-संसार में मिलने की आशा में दो भाई शिल्प और कथ्य बिछड़े हुए हैं!

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