मज़दूर पर उद्धरण
देश-दुनिया में पूँजीवाद
के प्रसार के साथ वंचित-शोषित तबकों के सरोकार को आवाज़ देना कविता ने अपना प्रमुख कर्तव्य स्वीकार किया है। इस क्रम में अर्थव्यवस्था को अपने कंधे पर ढोते मज़दूर पर्याप्त सहानुभूति और प्रतिरोध कोण से देखे गए हैं। इस चयन में मज़दूरों के संवादों-सरोकारों को विषय बनाती कविताओं का संकलन किया गया है।

मैं समझता हूँ कि बेकार राज्य-प्रबंधन बेकार परिवार-प्रबंधन को प्रोत्साहित करता है। हमेशा हड़ताल पर जाने को तत्पर मज़दूर अपने बच्चों को भी व्यवस्था के प्रति आदर-भाव नहीं सिखा सकता।

जीवट की भाषा उनके बीच होती हैऔर जैसे-जैसे उससे हम दूर होते जाते हैं—चाहे वे तेलगू बोलने वाले हों, चाहे वे तमिल बोलने वाले हों, चाहे हिंदी बोलने वाले हों—भाषा मरती जाती है। लेकिन भाषा का वह मूल रूप, स्त्रियों और श्रमिकों के बीच जीवित रहता है। वे ही भाषा को बनाते हैं। इसलिए भाषा मूलतः जीवित रूप में वहाँ से प्राप्त हुई।
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कम-से-कम काम करके अधिक-से-अधिक सुख प्राप्त करना श्रम विभाग का ध्येय है।
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शासक वर्गों को साम्यवादी क्रांति होने पर काँपने दो। सर्वहाराओं पर अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं, जिसकी हानि होगी। जीतने के लिए उनके सामने एक संसार है। सभी देशों के श्रमिकों संगठित बनो।

शरीर-श्रम के सिद्धांत में से ही स्वदेशी धर्म का उद्भव होता है।

मनुष्य को जो अपने गुज़र के लिए कठिन श्रम करना पड़ता है, यह प्रकृति का कोप नहीं बल्कि अनुग्रह है

दिनभर के सफ़र के बाद यात्री कहीं पहुँचता है तो उसे थकान के साथ संतोष महसूस होता है।

मज़दूरों को यदि अपनी स्थिति को दुरूस्त करना है; तो उनको यह भूल जाना है कि उनके जो हक़ हैं, वे धर्म-पालने में से पैदा नहीं होते।

मालिक और मज़दूर के स्वार्थ, एक-दूसरे के विरोधी हैं।
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जीवन के आवश्यक पदार्थ उत्पन्न करने के लिए स्वयं शारीरिक परिश्रम करना, यह अस्तेय और अपरिग्रह में से निकलने वाला सोधा नियम है।

खादी मज़दूरों की सेवा करती है, मिल का कपड़ा उनका शोषण करता है।

जीवन-विषयक ग़लत दृष्टिकोणों ने, मज़दूरों के प्रश्न को उलझा दिया है।

मनुष्य को बाह्य साधनों का इतना अधिक मुहताज नहीं बना देना चाहिए कि उसकी श्रम करने की स्वाभाविक शक्ति का ह्रास हो जाए।

ख़ूब यांत्रिक सुधार करके, दो या चार घंटे के श्रम से ही जीवन की आवश्यकताएँ पूरी कर लेनी चाहिए।

अत्यंत सूक्ष्म श्रम-विभाग करके, मज़दूर को जड़-यंत्र जैसा बना देकर, दो-चार घंटे की नीरस यांत्रिक क्रिया में उसे जोतना और फिर मौज-चैन या शौक की बातों के लिए छोड़ देना—इससे मनुष्य जाति का कल्याण न होगा।

सरस्वती के साम्राज्य में हम मज़दूरी ही करते रहते हैं।
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संबंधित विषय : रवींद्रनाथ ठाकुर

परिश्रम के बिना जो पदार्थ नहीं उपजते और जिनके बिना जीवन निभ नहीं सकता, उनके लिए शारीरिक श्रम किए बिना उनका उपभोग करें तो जगत के प्रति हम चोर ठहरते हैं।

उसके निर्वाह की परमेश्वर चिंता करता है जो शक्ति होने पर पूरा-पूरा श्रम करता है और श्रम करने में ही प्रतिष्ठा समझता है, पर अपरिग्रही रहता है।

हमारे लिए अस्तेयादि व्रतों की ओर क़दम उठाने में ज़रूरी क़दम यह है कि अपनी आवश्यकताओं को, और निजी परिग्रह को जितना बने उतना घटाते जाना और उत्पादक-श्रम के लिए तथा अनर्थकारी पदार्थों की योग्य व्यवस्था के लिए, निष्काम भाव से और यज्ञ बुद्धि से नियम-पूर्वक अपने निजी श्रम के रूप में हाथ बँटाना।

आगे का कलाकार मेहनतकश की ओर देखता है।

ऐसे दुष्ट बहुत होने चाहिए। हम पर उनका उपकार है। वे हमारे पापों का प्रक्षालन, बिना कोई मूल्य लिए और बिना साबुन के करते हैं। वे मुफ़्त में मज़दूर हैं जो हमारा बोझा ढोते हैं। वे हमें भवसागर से पार कर देते हैं और स्वयं नरक चले जाते हैं।

कवि और किंकर, मालिक और मज़दूर, सेठ और नौकर, सेठानी और दासी सब को लोक-कल्याण के अर्थ-श्रम अवश्य करना चाहिए।