श्रीनरेश मेहता के उद्धरण
मनुष्य वह कोई हो; यही सोचता है कि परिवर्तन, बाधाएँ, अवरोध, पतन आदि सब दूसरों के लिए ही हैं।
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व्यक्ति का मन भी अजीब है कि वह अस्वीकृति या निषेध की ओर ही भागता है।
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दुःख उठाने वाला प्रायः टूट जाया करता है, परंतु दुःख का साक्षात् करने वाला निश्चय ही आत्मजयी होता है।
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स्त्री और सब कुछ भूल सकती है, परंतु विवाह के तत्काल बाद जो उसे एकांत-व्यवहार पति के द्वारा मिलता हे वह अमिट होता है।
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सच तो यह है कि समय अपने बीतने के लिए किसी की भी स्वीकृति की प्रतीक्षा नहीं करता।
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अनंत के सापेक्ष में समय की संज्ञा, काल है तथा देश के सापेक्ष में काल की संज्ञा, समय है।
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देश-कालातीत इच्छाओं के वृत्तों की टकराहट ही है जो वस्तुतः पुरुषार्थों की स्फीति है।
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पुरुष नहीं जानता कि उसके मनुष्य बने रहने में ज्ञात-अज्ञात रूप से स्त्री का कितना बड़ा हाथ होता है।
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पुरुषार्थ के बल पर जो लौकिकता अर्जित हुई रहती है, एक सीमा के बाद उसी में से वे कुतर्क जन्म लेने लगते हैं जो पुरुषार्थ को नगण्य करने लगते हैं।
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दुःख उठाना एक बात है और दुःख का साक्षात् करना सर्वथा भिन्न है।
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एक संपूर्ण समाप्ति के पूर्व शताधिक खंडित समाप्तियाँ चलती रहती हैं।
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इस्लाम ने भारतीयता की स्थूलता को एक हज़ार वर्ष में छिन्न-भिन्न किया तो उसे ही सूक्ष्म स्तर पर पहले ईसाइयत ने और बाद में साम्यवादी-दर्शन ने गत पचास वर्षों में संपन्न किया।
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किसी के लिए जीवन भर भाषा, मात्र गाली होती है तो किसी के लिए भाषा मंत्र होती है।
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प्रत्येक वृत्त एक ऊँचाई की प्राप्ति के बाद अनिवार्यतः अपनी भूमि की ओर लौटने को बाध्य होता है।
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यह सापेक्ष समय जब बीतता है तो हमें वैसे ही तराशता चलता है जैसे कि जल अपनी मसृणता में भी, कैसी ही चट्टान क्यों न हो, शताब्दियों तक टकराते-टकराते अंततः ढहा कर रख देता है।
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स्त्री के पार्श्व में पहुँचकर पुरुष सबसे निरीह होता है।
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कोई नहीं जानता कि आदिम प्रकाश का वह प्रथम, बीज-ज्योति-कण या समय का वह प्रथम बीज-क्षण इतने गणनातीत वर्षों के बीत जाने पर भी महाज्रोति या महाकाल तक पहुँचा है कि नहीं।
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जीवन या यथार्थ को जब तक रचने का भाव लेखक में नहीं होगा, तब तक उस लिखने का कोई अर्थ ही नहीं है।
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सामान्य जीवन में बहुत बुरा जिस प्रकार असहनीय होता है, उसी प्रकार बहुत अच्छा होना भी कष्टदायक ही होता है।
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विवेक के कारण अनात्म होते ही आप ‘पुरुष’ हो जाते हैं और तब ‘इच्छा’ आपकी इच्छा पर निर्भर होने लगती है।
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लेखक रचता है इसीलिए वह कथा-सृष्टा है, मात्र प्रस्तुत नहीं करता इसीलिए वह कथा-वाचक नहीं है।
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उस परा-शून्य में आकार-प्रकार के सारे शून्य विलीन होकर केवल ‘महत्’ हो जाते हैं।
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जब समय ही अपरिमेय है; तब काल और महाकाल क्या हैं, यह कोई नहीं जानता।
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मृत्यु कोई बाहर से आई हुई सांघातिकता नहीं होती है, वह जन्म और जीवन की अविभाज्यता ही है।
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प्रलय-पूर्व की देव-संस्कृति, क्यों और कैसे विनष्ट हुई इस आधारभूत एवं तात्विक समस्या को जब तक नहीं सुलझाया जाता, तब तक मनुष्यता और इतिहास के बारे में प्रतिपादित सारे आधुनिक सिद्धांत नितांत अवैज्ञानिक हैं।
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जो जितना ही संवेदनशील और संस्पर्शी व्यक्ति होता है, उसके लिए जीवन प्रत्यक्ष से अधिक अप्रत्यक्ष होता है।
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इच्छा, वृत्त को न केवल जन्म ही देती है बल्कि अग्रसर होते हुए विकास, फैलाव चाहती है; परंतु विवेक, वृत्त को समेटने के लिए कहता है ताकि अन्य के लिए प्रति-वृत्त न बने।
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रचना का बड़प्पन उनके स्वत्व के बौनेपन के लिए चुनौती होता है, इसलिए जब भी उन्हें ऐसा कुछ दिखता-मिलता है; वे असुविधा अनुभव करते हैं।
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सृष्टि है, निश्चित ही है; संरचना भी है : परंतु विनष्ट होने के लिए है।
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...घटना का दर्द सीमित होने पर भी आसन्नता हमारे सारे व्यक्तित्व को निरंतर थरथराती होती है।
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मनुष्य अपने अंतर में उठने वाले आनंद को उत्सव का, पर्व का रूप देकर गान-नृत्य, गंध-वर्ण में परिणत कर देता है।
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स्त्री स्वतः अभिव्यक्त नहीं हो सकती, उसे माध्यम चाहिए; और ऐसा माध्यम पुरुष ही हो सकता है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere