रघुवीर सहाय के उद्धरण
सुकवि की मुश्किल को कौन समझे, सुकवि की मुश्किल। सुकवि की मुश्किल। किसी ने उनसे नहीं कहा था कि आइए आप काव्य रचिए।
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अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ और ढहाता हूँ और आप कहते है कि कविता की है।
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इस सभ्यता में पैदल आदमियों के संगठित समूह की कल्पना नहीं, भीड़ की कल्पना है।
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देखो वृक्ष को देखो वह कुछ कर रहा है।
किताबी होगा कवि जो कहेगा कि हाय पत्ता झर रहा है।
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बड़े राष्ट्र की पहचान यही है कि अपने समाजों में साथ-साथ रहने-पहनने का चाव और स्वीकारने-अस्वीकारने का माद्दा जगाता है।
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हर रचना अपने व्यक्तित्व को बिखरने से बचाने का प्रयत्न है।
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अगर कवि की कोई यात्रा हो सकती है तो वह अवश्य ही किसी ऐसी जगह जाने की होगी जिसको वह जानता नहीं।
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इस सामाजिक व्यवस्था में ही नहीं, एक जीवंत और उल्लसित भावी व्यवस्था में भी ज्ञान का माध्यम सदा कष्ट ही रहेगा।
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संगठित राजनीति और रचना में तनाव का रिश्ता होना चाहिए और सत्ता और रचना में भी तनाव का रिश्ता होना चाहिए।
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किसी एक व्यक्ति से उसके एकांत में कोई ईमानदार बात सुनने की आशा भी करो तो अकेला नहीं मिलता है।
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फूल को शक्ति के संसार में धकेलकर प्रवेश करने वाली संस्कृति का एक चिह्न गुलाब का फूल है। इस धक्के में जिस फूल को चोट आई है वह गेंदा है।
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सेना किसी राष्ट्र के आंतरिक शौर्य का कुल जमा हासिल होती है, उस शौर्य से अपने राष्ट्र को ‘सबक़’ नहीं सिखाया जाता।
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नया तरीक़ा यह है कि राजनीति विकल्प नहीं खोजती है, बदल खोजती है।
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यात्रा-साहित्य खोज और विश्लेषण से जुड़ा है। यह लेखक के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपनी यात्राओं में किन चीज़ों को महत्त्व देता है।
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जब से भारतीय राजनीति में प्रतिद्वंद्विता का नया तरीक़ा शुरू हुआ है, राजनीति की शक्ल ही बदल गई है।
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हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है—बहुत बोलने वाली बहुत खाने वाली बहुत सोने वाली।
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राज्य और व्यक्ति के संबंध को अधिकाधिक समझना आधुनिक संवेदना की शर्त है।
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लोग भूल गए हैं एक तरह के डर को जिसका कुछ उपाय था। एक और तरह का डर अब वे जानते हैं जिसका कारण भी नहीं पता।
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कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध इनमें क्या भेद है, यह आज अप्रासंगिक है।
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कहानी लिखना केवल कहानी ही लिखना नहीं है, गद्य लिखना भी है।
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कविता के संसार में कोई बड़ा परिवर्तन समाज के संसार में उतने ही बड़े प्रयत्न के बिना संभव नहीं है।
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किसी भी आदमी को कविता की जाँच के लिए कविता में दी गई शर्तों के अलावा किन्ही शर्तों की इजाज़त नहीं दी जा सकती।
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साहित्य की विधाओं के अलग-अलग ख़ेमे बनाकर रहना लेखक को और भी असहाय करेगा।
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कविता एक बनाई हुई चीज़ है, इस बात को बिल्कुल खुले दिल से और सारा गँवारपन छोड़ करके मानना चाहिए।
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कविता... जीने का उद्देश्य बता नहीं देती। वह स्वयं उद्देश्य बन जाती है।
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पीले और बसंती के बीच फ़र्क़ न कर पाना एक तरह की आलोचना है, जो पीला रंग बसंती कहकर बेचने वाले पंसारियों ने हमारे ऊपर थोप दी है।
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चेहरा कितनी विकट चीज़ है जैसे-जैसे उम्र गुज़रती है वह या तो एक दोस्त होता जाता है या तो दुश्मन।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere