रविवासरीय : 3.0 : एक समय की बात है और नहीं भी...
अविनाश मिश्र
30 मार्च 2025

• गत ‘रविवासरीय’ पढ़कर मेरे बचपन के दोस्त अनूप सोनकर ने कानपुर से मुझे फ़ोन पर एक कहानी सुनाई। उसे भी नहीं पता कि यह कहानी उसने कहाँ से अपने ज़ेहन में उतारी और मुझे भी यह अनसुनी-अनपढ़ी लगी! आइए इसे पढ़ते हैं, क्योंकि इधर की कुछेक घटनाओं से इसका एक संबंध बनता है। इसका मूल स्रोत बताने वाले व्यक्ति का रविवासरीयकार सदैव आभारी रहेगा। कहानी :
एक समय की बात है—कानपुर के एक सबसे धनवान व्यक्ति के पास संसार की सबसे महँगी शराबें थीं। उसके आवास का एक स्थान इस प्रकार की शराबों से भरा हुआ था। वह इस भंडार के अहंकार में बसता-जीता था। उसके अहंकार को इस बात से भी बल मिलता था कि उसके संग्रह में बहुत-बहुत-बहुत पुरानी शराब से भरी हुई कुछ बोतलें भी थीं, जिन्हें उसने किसी बेहद ख़ास मौक़े के लिए सँजोया हुआ था।
एक बार जब उसके यहाँ उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का आना हुआ, तब उसने सोचा कि इस गवर्नर को इतनी पुरानी शराब पीने को क्यों दूँ!
एक बार यों भी हुआ कि उसके यहाँ तीन प्रदेशों के मुख्यमंत्री आए, लेकिन उसने सोचा कि ये न जाने क्या-क्या पीते रहते हैं, मैं इन्हें इतनी पुरानी शराब पीने को क्यों दूँ! ये तो इस मय की महानता-महक-माया को समझ ही नहीं पाएँगे।
एक अवसर उसके जीवन-काल में यों भी आया कि उसके यहाँ रात्रिभोज पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का आना हुआ; लेकिन उसने इस मौक़े पर भी अपनी सँजोई हुई बहुत-बहुत-बहुत पुरानी शराब को किसी सत्ता, शक्ति और पद से कमतर नहीं होने दिया।
इस प्रकार वर्ष पर वर्ष गुज़रते रहे, लेकिन उसने वह शराब किसी के आगे नहीं परोसी।
एक रोज़ उसकी मृत्यु हो गई। उसकी लाश को भगवतदास घाट पर जला दिया गया।
इसके कुछ रोज़ बाद उस राजा निरबंसिया की संपत्ति की लूट में संसार की दूसरी शराबों की बोतलों के साथ-साथ बहुत-बहुत-बहुत पुरानी शराब से भरी हुई वे कुछ बोतलें भी लूटी गईं जिन्हें अत्यंत अपघाती जीवन जीने वाले जाहिल और बद-ज़ौक़ लुटेरों ने मन-तन भरने तक काम में लिया। उन्हें प्राचीनता का कोई ज्ञान नहीं था। उनके लिए सब शराबें एक-सी थीं—साधारण!
• कथा को बोर और बोगस दो चीज़ें बनाती हैं—एक : जब आपके पास कहने की कोई तकनीक नहीं होती और दो : जब आपके पास कहने को कुछ नया नहीं होता। इस प्रकार हमारी कथात्मक असफलताएँ आकार लेती हैं और कथेतर का ज़ोर बढ़ता जाता है—यह भूलकर कि इस संसार में कथा से इतर कुछ भी नहीं है।
• सब कुछ कथा है, फिर भी कविता बहुत ज़्यादा नज़र आती है। यह वैसे ही जैसे प्रचलन और समाचारों-सूचनाओं के दबाव में आकर कथाकार बहुत ज़्यादा राजनीतिक होते हुए नज़र आते हैं। राजनीतिक कथाकार आलोचकों-समीक्षकों-टिप्पणीकारों के लिए एक बड़ी सहूलत होते हैं, क्योंकि उन पर आलोचना-समीक्षा-टिप्पणी किसी भी भाषा में सबसे सरल कार्यभार होती है। उन्हें कहीं से भी देखो, छुओ, तोड़ो और समय पर चढ़ा दो। समय प्रसन्न हो जाता है और सफलता का आशीर्वाद, पुरस्कार और अनुवाद दे देता है। इस प्रक्रिया में राजनीतिक कथाकार और-और नाज़ुक होते जाते हैं। उन्हें देखना, छूना, तोड़ना, चढ़ाना और आसान होता जाता है। इन आसानियों में राजनीतिक कथाकार अपनी कथा-दुनिया में अपना राजनीतिक होना भूल से भी कहीं-कभी भूलते नहीं हैं, लेकिन एक सजग और ईमानदार कथाकार के पास दो रास्ते नहीं होते। वह अगर अपनी ज़िंदगी में राजनीतिक है, तभी अपनी कथा में भी हो सकेगा। वह अगर अपनी रोज़ की दुनिया में अपनी पक्षधरता भूलने लगेगा, तो उसे अपनी कथा-दुनिया में भी अपनी पक्षधरता गँवाते देर नहीं लगेगी। कवियों और आलोचकों के मुक़ाबले इसलिए ही कथाकारों को बेनक़ाब करना अपेक्षाकृत आसान रहा आया है। कथाकारों को बहुत शब्द चाहिए होते हैं और बहुत अनुशासन। उन्हें बहुत काम करना पड़ता है और वे जितना ज़्यादा काम करते हैं, उन पर संकट उतना ही ज़्यादा बढ़ता जाता है।
• उर्दू की नई पीढ़ी के उत्कृष्ट हस्ताक्षर तसनीफ़ हैदर की कथा-कृति ‘नया नगर’ का पारायण इस अर्थ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि यहाँ कथा-लेखक कहने की तकनीक में बहुत नहीं गया है; क्योंकि उसने जो कहा है, वह उसके बहुत बीच रहा आया है। उसे भाषा आती है; लेकिन उसे भाषा से खेलने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वास्तव में भाषा खेलने की चीज़ है ही नहीं।
• भाषा खोलने की चीज़ है।
• कुछ उपन्यास एक लंबी रात की तरह होते हैं, जिनमें मच्छर भी होते हैं।
कुछ उपन्यास एक बहुत लंबे सफ़र पर निकली रेल की तरह होते हैं, लेकिन ख़ाली।
कुछ उपन्यास एक ऊँची इमारत की तरह होते हैं, जिसमें आग लग गई होती है और सुरक्षा-बचावकर्मी उसमें से एक-एक करके लाशें निकाल रहे होते हैं।
इस दौर में यह एक सुख है कि ‘नया नगर’ इस प्रकार का उपन्यास नहीं है।
• उर्दू की नई पीढ़ी में कथाकार, कथाएँ और कथापरक महत्त्वाकांक्षाएँ लगभग नहीं हैं। सबने जल्द से जल्द नज़र में आने को आसान रास्ते ले लिए हैं या ले रहे हैं। ‘नया नगर’ इन रास्तों की दुःख, ग़ुस्से और व्यंग्य से रची हुई जाँच है। यह उपन्यास एक स्थानीयता में एक परिवार और समकालीन उर्दू-साहित्य-संसार की कहानी बयान करता है। इसमें उर्दू के कुछ साहित्यिक विवादों का वास्तविक एजेंडा नए सिरे से खुलता नज़र आता है। यहाँ की जा चुकी बहसों को एक बार फिर से करने की चुनौती भरी दावत है। इसमें ख़तरें हैं; लेकिन लेखक ने उन्हें बहुत तार्किक, मार्मिक और साहसिक ढंग से उठाया है। इसकी शैली पूर्वाग्रह और घृणा और आरोप की शैली नहीं है, इस शैली में ज़िम्मेदारी का गंभीर एहसास है। यहाँ भाषा का व्यर्थ और भड़काऊ और पतित प्रदर्शन नहीं, बल्कि सूझ-समझ का सहज रचाव है। इस प्रकार देखें तो ‘नया नगर’ हमारी नई तहज़ीब में हिन्दुस्तानी राग का मूल्यमय, प्रतिबद्ध और प्रभावकारी विस्तार है। यह कहीं-कहीं मस्तिष्क को शांत कर देता है, कहीं-कहीं को मन को उद्विग्न, कहीं-कहीं आँखों को पनीला...
• सुर जिसका सबसे सहज है, साधना उसकी सबसे कठिन है। — रवींद्रनाथ ठाकुर
• एक बड़ी और बेहतर रचना के कई अंत होते हैं। वह कभी प्रेम के दुखांत पर समाप्त होती प्रतीत होती है तो कभी उसकी द्वंद्व-दुविधा पर, वह कभी आघात और आत्म-धिक्कार पर समाप्त होती प्रतीत होती है तो कभी अपराधबोध के अचरजकारी विस्तार पर... वह—यानी एक बड़ी और बेहतर रचना—अंततः इतने सारे अंतों से युक्त-संयुक्त नज़र आती है कि उससे गुज़र चुका प्रत्येक व्यक्ति उसके लिए एक अंत प्रस्तावित कर सकता है। ‘नया नगर’ में भी अंत-प्रस्ताव के अंतहीन आमंत्रण हैं। यों यह कथा-सद्गति है।
• उर्दू अदब के समकालीन कथाभाव में तसनीफ़ हैदर ‘नया नगर’ के ज़रिये आगे का जीवन और रास्ता तलाशते हुए नज़र आते हैं। इस मंज़र में उनके सामने भारतीय परिदृश्य में कहें तो पूरा मैदान ही ख़ाली पड़ा है। यह अफ़सोस की बात भी हो सकती है, लेकिन ख़ुशी की बात भी है! दरअस्ल, तसनीफ़ का रचना-आकाश बेहद प्रौढ़ है और हम सबके लिए कारण और उदाहरण है।
• ‘नया नगर’ सरीखी रचनाएँ हिंदी में लिप्यंतरित-अनूदित होकर रातों-रात आ जानी चाहिए, लेकिन जैसा कि सब जानते हैं : हिंदी-प्रकाशन-संसार ‘अप्रतिम’ मानदंडों से संचालित है। वह स्थापितों को ही स्थापित करता रहता है या स्थापितों के कहने पर उन्हें, जिन्हें कभी भूल से भी स्थापित नहीं करना चाहिए। इसलिए ‘नया नगर’ सरीखी रचनाओं के हिंदी में लिप्यंतरित-अनूदित होकर आने में वर्षों लग जाते हैं।
बहरहाल, ‘नया नगर’ अब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका है।
‘नया नगर’ के इस नए अवतरण का हिंदी-नगर में भरपूर स्वागत किया ही जाना चाहिए।
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