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विश्वनाथ शर्मा ‘विमलेश’ से सुरेंद्र शर्मा तक

उनका पूरा नाम विश्वनाथ शर्मा ‘विमलेश’ था। ‘विमलेश राजस्थानी’ भी उन्हें कहा जाता था और कवियों के बीच वह विमलेशजी के नाम से मशहूर थे।

विमलेशजी की चार लाइनों और उनके पढ़ने की नक़ल करने वाले सुरेंद्र शर्मा को जानने वाले यह नहीं जानते कि छठवें और सातवें दशक के कवि-सम्मेलनों के विमलेशजी सितारा कवि थे। उस समय वह कवि-सम्मेलनों में सर्वाधिक पारश्रमिक पाने वाले कवि थे। वह गोपालदास नीरज और काका हाथरसी से भी अधिक पैसा लेते थे। उस समय कलकत्ता और बम्बई में जब भी कवि-सम्मेलन होता सब एक ही सवाल पूछते : विमलेशजी आ रहे हैं क्या? उस वक़्त विमलेश के बिना हिंदी-कवि-सम्मेलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

उस समय काका हाथरसी, अल्हड़ बीकानेरी, गोपाल प्रसाद व्यास जैसे धुरंधर हास्य-व्यंग्य-कवि थे। उनके बीच शेखावाटी भाषा के एक हास्य-व्यंग्य-कवि ने कवि-सम्मेलनों में अपनी ख़ास जगह बनाई।

वे लोग जो हिंदी-कवि-सम्मेलनों की संस्कृति से थोड़ा भी वाक़िफ़ हैं, उन्होंने रामरिख मनहर का नाम ज़रूर सुना होगा। वह मंच-संचालक थे और उनके ठहाके बहुत मशहूर थे। वह ‘मंगलदीप’ नाम से एक साहित्य-वार्षिकी भी निकालते थे। मनहरजी ने कवि-सम्मेलनों को व्यवसाय में बदल दिया। विमलेशजी और मनहरजी दोनों शेखावाटी के रहने वाले थे और मित्र थे।

एक बार कहा जाता है कि बम्बई में शराब की महफ़िल में विमलेशजी और रामरिख मनहर में झगड़ा हो गया। दोनों भिड़ गए। मनहरजी का कहना कि विमलेश को विमलेश मैंने बनाया तो विमलेशजी का कहना यह कि मेरी लोकप्रियता के कारण मनहर का कवि-सम्मेलन-व्यवसाय चल रहा। झगड़े का अंत इस तरह हुआ कि अगले कवि-सम्मेलन में रामरिख मनहर ने विमलेशजी की फूहड़ नक़ल करने वाले एक युवा-हास्य-कवि सुरेंद्र शर्मा को विमलेशजी की जगह पेश किया।

सुरेंद्र शर्मा न केवल विमलेशजी की प्रस्तुतिकरण की नक़ल करते थे, बल्कि कविताओं के विषय भी वही उठाते थे—विमलेशजी वाले; यथा चार लाइनें, पत्नी से छेड़छाड़, काली पत्नी, लंबा आदमी, रामलीला के प्रसंग इत्यादि। इस तरह हिंदी-कवि-सम्मेलनों को नया मसख़रा या नया हास्य-कवि सुरेंद्र शर्मा प्राप्त हुए। विमलेशजी के अवसान के बाद अब सुरेंद्र शर्मा हिंदी-कवि-सम्मेलनों की नई सनसनी थे।

लेकिन विश्वनाथ शर्मा ‘विमलेश’ को केवल हास्य-व्यंग्य-कवि नहीं कहा जा सकता। वह विद्वान कवि थे, प्रोफ़ेसर थे और इन पंक्तियों के लेखक के गुरु भी थे। विमलेशजी ने ‘रामायण’ और अन्य ग्रंथों का राजस्थानी-शेखावाटी-भाषा में अनुवाद किया। उन्होंने कई काव्य सृजित किए। उनकी काव्य-कृतियों में बदलते हुए समाज और देश का मिज़ाज झलकता है। उनकी कविताओं में पहली बार वोट डालने वाली स्त्रियों की छवियाँ हैं तो शेखावाटी-क्षेत्र में पहली बग़ैर घूँघट यानी उघाड़े-मुँह हुई शादी की घटना भी दर्ज है।

विमलेशजी में ब्लैक-ह्यूमर था। उनकी काव्य-पाठ-शैली अद्भुत थी। ‘काली औरत’ नामक उनकी एक काव्य-शृंखला बहुत लोकप्रिय थी जिसे शायद स्त्री-विरोधी-टेक्स्ट भी कहा जा सकता है, लेकिन उसमें जो विट और ह्यूमर है—वह बेजोड़ है; जैसे : एक काली औरत अपने पति से शिकायत करती है कि पड़ोस का आदमी बहुत ताका-झाँकी करता है तो पति कहता है एक बार घूँघट उठा कर अपना चेहरा दिखा दे! दूसरी कविता में पिता बेटे से सवाल करता है कि सुबह बाथरूम में जो लक्स की सफ़ेद बट्टी/साबुन रखी थी, वह काली कैसे हो गई तो बेटा जवाब देता है कि कुछ देर पहले माँ नहा कर गई है!

…और विमलेशजी के ब्लैक-ह्यूमर का उत्कर्ष तो यह है कि 1975 में इमरजेंसी के दौरान एक आदमी, जिसकी नसबंदी हो चुकी है, डॉक्टर के पास जाकर कहता है : हे डॉक्टरजी, जब कनेक्शन काट दिया है तो यह मीटर भी उतार लो!

विमलेशजी आंचलिक कवि थे। उनकी भाषा में अद्भुत विट और विदग्धता थी। आज हम जिस हास्य-कवि सुरेंद्र शर्मा को जानते हैं, उनकी तुलना विमलेशजी से किसी भी तरह नहीं की जा सकती। सुरेंद्र शर्मा विश्वनाथ शर्मा ‘विमलेश’ का एक फूहड़, पर सफल अनुवाद भर हैं।

इस तरह देखें तो इस बात को कहने में क्या हर्ज कि गंभीर-कवियों की तरह हास्य-कवियों की भी एक परंपरा चली आती है!

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