कृष्ण बलदेव वैद के उद्धरण
अगर इनसान पैसे और शोहरत का मोह छोड़ दे तो वह ख़तरनाक हो जाता है, कोई उसे बरदाश्त नहीं कर पाता, सब उससे दूर भागते हैं, या उसे पैसा और शोहरत देकर फिर मोह के जाल में फाँस लेना चाहते हैं।
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पीते वक़्त ख़्वाहिश होती है अच्छा संगीत सुनूँ, और संगीत के इर्द-गिर्द ख़ामोशी हो।
पुराने दोस्त पी लेने के बाद और पराए हो जाते हैं। पी लेने के बाद दोस्तों की ज़बान खुल जाती है, दिल नहीं।
अगर इस दुनिया को ईश्वर का ख़्वाब समझ लिए जाए तो ईश्वर से अपेक्षा कम हो जाए, हमदर्दी ज़्यादा।
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महफ़िल में पीना दूसरे दर्जे का पीना है, महफ़िल के लिए लिखना दूसरे दर्जे का लिखना।
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पीते वक़्त अगर लिखने की-सी कैफ़ियत पैदा हो जाए तो पीना सिर्फ़ पीना नहीं रहता।
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यह कड़वी हक़ीक़त कि हम हिंदी के लेखक एक-दूसरे को शौक़, प्यार और उदारता से नहीं पढ़ते। अक्सर तो पढ़ते ही नहीं। पढ़ भी लें तो बता नहीं देते कि पढ़ लिया है।
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डायरी में भी सब कुछ दर्ज नहीं किया जाता। उस डायरी में भी नहीं जो छपवाई नहीं जानी है। मतलब यह कि ख़ुफ़िया डायरी पर भी यह ख़ौफ़ हावी रहता है कि कोई मुझे पढ़ लेगा।
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लिखते वक़्त अगर बग़ैर पिए पीने का-सा सरूर आ जाए तो लिखने में भी पीने की-सी कैफ़ियत पैदा हो जाती है।
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मैं पैसे और शोहरत के मोह से मुक्त होने की कोशिश में हूँ, इसीलिए बहुत से लोग मुझसे दूर भागते रहते हैं।
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मैं पैदाइशी ‘अछूत’ हूँ। मुझे किसी संस्था में कोई आस्था नहीं। बकवास और ख़ुराफ़ात मुझसे बरदाश्त नहीं होते। स्याह को सफ़ेद या भूरा मैं नहीं कह सकता। खेल मैं नहीं खेलता।
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अचानक उसने कहा—बताओ तो तुमने जीवन से क्या दानाई हासिल की? मैंने कहा—मेरा सारा लेखन संशय केंद्रित है।
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संबंधित विषय : आत्म
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कड़वाहट का गोला जब गले में पिघलता है तो आँखों में आँसुओं की चुभन शुरू हो जाती है।
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जीते जी मर जाने को यह मतलब नहीं कि आप कोई हरकत ही न करें या किसी भी हरकत पर हैरान या परेशान न हों।
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ज़िंदगी का राज़ या अर्थ तो शायद ही हाथ लगे, फूलों और पत्तों और परिंदों से ही प्यार करते रहना चाहिए।
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मौत में ही मुक्ति है। जीवनमुक्त लोगों से ईर्ष्या होती है, मैं उन लोगों में नहीं हो सकता क्योंकि मैं लेखक हूँ।
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हिंदुस्तानी डाकख़ाना एक डरावनी जगह है। उस माहौल में काम करने वाले बाबू पागल क्यों नहीं हो जाते?
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अपने बीवी-बच्चों से, दोस्तों से, कोई अपेक्षा नहीं होनी चाहिए, अपने आपसे भी।
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अपने अहं को मार देने और अपने आत्मसम्मान को मार देने में फ़र्क़ है।
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ख़्वाहिशें ख़त्म नहीं होती। वे हो भी जाएँ, ख़्वाहिश ख़त्म नहीं होती।
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दुख गहराई और शांति देता है, मरने में मदद करता है, हलीमी सिखाता है, सुख का सतहीपन सामने लाता है। मुझे दुख का शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
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जो बूढ़े आख़िर तक संसार में ही फँसे रहे उनकी सूरत से कोई किरण नहीं फूटती।
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सच्चे अर्थों में धार्मिक और आध्यात्मिक बूढ़े भी बावक़ार होते हैं।
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नशा उतर जाने के बाद हदें फिर हावी हो जाती हैं। लेकिन क्षणिक या अस्थायी ‘बेहदी’ भी बुरी नहीं होती।
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जिन बूढ़ों के चेहरों पर चैन का उजाला न हो उन्हें देख दुख होता है।
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हर इनसान असीर। कोई व्यतीत का, कोई वर्तमान का, कोई भविष्य का, कोई तीनों का। कोई पैसे का, कोई प्यार का। कोई घर का, कोई बाहर का। कोई शोहरत का, कोई अज़मत का। कोई ख़ुदा का, बहुत से इनसान बहुत-सी बीमारियों के असीर।
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किसी से कोई ज़्यादती नहीं करनी चाहिए। अगर हो जाए तो मुआफ़ी माँग लेनी चाहिए। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि आदमी बिल्कुल संवेदनशून्य हो जाए।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere