लुडविग विट्गेन्स्टाइन के उद्धरण
मैं समझता हूँ कि बेकार राज्य-प्रबंधन बेकार परिवार-प्रबंधन को प्रोत्साहित करता है। हमेशा हड़ताल पर जाने को तत्पर मज़दूर अपने बच्चों को भी व्यवस्था के प्रति आदर-भाव नहीं सिखा सकता।
किसी विशुद्ध ‘बकवास’ को प्रदर्शित करना, और बोध के द्वारा भाषा की सीमाओं से सिर फोड़ने से आई चोटों को दिखाना दर्शन के परिणाम हैं। इन चोटों से हमें खोज की महत्ता पता चलती है।
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जब मैं भाषा के माध्यम से विचार करता हूँ तो मौखिक अभिव्यक्तियों के अतिरिक्त मेरे मन में कोई दूसरे ‘अर्थ’ नहीं होते : भाषा तो स्वयं ही विचार की वाहक होती है।
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क्या निजी भाषा के नियम, नियमों की प्रतिच्छाया हैं?—जिस तुला पर प्रतिच्छाया को तोला जाता है, वह तुला की प्रतिच्छाया नहीं होती।
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शब्द कैसे कार्य करते हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमें उनके प्रयोग का ‘निरीक्षण’ करना और उससे सीखना पड़ता है।
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हे भगवान! दार्शनिक को सभी व्यक्तियों की आँखों के सामने रखी वस्तुओं को देखने की अंतर्दृष्टि प्रदान कर।
पलस्तर उखाड़ना पत्थर हिलाने से कहीं अधिक आसान है : निस्संदेह कोई काम तो आपको पहले करना ही होगा।
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संबंधित विषय : पत्थर
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विचार के साथ और विचार के बिना बोलने की तुलना संगीत को विचार के साथ, और विचार के बिना बजाने से ही करनी चाहिए।
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जिन शब्दों से मैं अपनी स्मृति को अभिव्यक्त करता हूँ, वे मेरी स्मृति-प्रतिक्रियाएँ हैं।
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प्रतिभा का मानदंड तो चरित्र है—यद्यपि चरित्र अपने आपसे प्रतिभा ‘नहीं’ बन जाता। ‘योग्यता और चरित्र’ मिलकर प्रतिभा नहीं बनते, अपितु प्रतिभा तो चरित्र की एक विशेष योग्यता के रूप में अभिव्यक्त है।
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प्रतिभा के कारण हम योग्य व्यक्ति की उच्चतम योग्यता को भी भूल जाते हैं।
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संबंधित विषय : मनुष्य
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निस्संदेह जब बर्तन में पानी खौलता है तो उससे भाप निकलती है और चित्रित बर्तन से चित्रित भाप निकलती है। किंतु क्या हो जब कोई यह कहने का हठ करे कि चित्रित बर्तन में भी कुछ खौल रहा होना चाहिए।
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संबंधित विषय : पानी
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महान् कलाकारों की रचनाएँ तो हमारे बीच उदित और अस्त होने वाले सूर्य जैसी हैं। प्रत्येक महान् कृति जो आज अस्ताचल की ओर चली गई है, वही कल उदयाचल में प्रकट होगी।
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क्या हमें किसी ऐसे व्यक्ति की कल्पना नहीं करना चाहिए, जिसने कभी संगीत नहीं सुना हो, और जो एक दिन अचानक शोपां की कोई अंतर्गुम्फित रचना सुने और यह मान बैठे कि यह एक ऐसी गुप्त भाषा है, जिसके अर्थों को दुनिया उससे छुपाए रखना चाहती है?
मेरे लेखन का कोई वाक्य ही कभी-कभार विचार को आगे की ओर बढ़ाता है; बाक़ी वाक्य तो नाई की क़ैंची के समान हैं जिसे वह लगातार इसलिए चलाता रहता है, जिससे सही क्षण पर वह बाल काट सके।
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वस्तुतः मैं अपनी क़लम के माध्यम से सोचता हूँ, क्योंकि मेरे मस्तिष्क को तो बहुधा पता ही नहीं होता कि मेरे हाथ क्या लिख रहे हैं।
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‘चित्र’ ने हमें बाँध लिया है। और हम उससे बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि वह हमारी भाषा में ही था और हमें ऐसा लगता है कि भाषा इसे निरपवाद रूप से दुहराती रहती है।
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संबंधित विषय : भाषा
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किसी विषय को अपने से ऊँचा बताने और मानने का अधिकार केवल प्रकृति को ही है, किसी अन्य को नहीं।
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संबंधित विषय : प्रकृति
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बहस के धरातल पर नया शब्द विवेचन की भूमि में डाले गए नए बीज बोने जैसा है। किसी बात के अभिप्राय को स्पष्ट करने की लालसा अति तीव्र होती है।
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मेरा अपनी हस्तलिपि से इकतरफ़ा संबंध है। यह संबंध मुझे अपनी लिपि को दूसरों के बराबर रखने से रोकता है और मुझे उसकी दूसरों की लिपि से तुलना भी नहीं करने देता।
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कमज़ोर नज़र वाले व्यक्ति को कहीं जाने की राह बताना कठिन होता है; क्योंकि उसे आप यह नहीं कह सकते, ‘‘दस मील दूर स्थित उस चर्च की मीनार को देखो और उसी दिशा में चलते चले जाओ।’’
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संबंधित विषय : मनुष्य
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प्रतिभा एक ऐसा स्रोत है जिससे निरंतर निर्मल जल बहता रहता है, परंतु यदि इस स्रोत का सही उपयोग न किया जाए तो इसकी उपादेयता समाप्त हो जाती है।
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रूपकों के दुरुपयोग ने जितना क़हर गणित में ढाया है, उतना तो उनके दुरुपयोग ने किसी धार्मिक संप्रदाय में भी नहीं ढहाया।
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आपको अपनी शैली की कमियों को, अपने चेहरे के दाग़ की तरह, स्वीकार करना होगा।
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जब आप अहंकार के साथ चढ़ावा चढ़ाते हैं तो आप और आपका चढ़ावा दोनों ही पतित हो जाते हैं।
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संबंधित विषय : अहंकार
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थोड़ा भी शालीन व्यक्ति अपने आपको बेहद अपूर्ण मानता है, किंतु धार्मिक मनुष्य हो अपने आपको ‘दयनीय’ मानता
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यदि कोई ईश्वर पर पूरा भरोसा कर सकता है तो दूसरों के मन (की सत्ता) पर क्यों नहीं?
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यदि आप तर्कशास्त्र में चालबाज़ी करते हैं तो आप अपने सिवाय किसे धोखा देते हैं?
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मानव-दृष्टि में वस्तुओं को प्रेय बनाने की सामर्थ्य है, यद्यपि यह सच ही है कि इसी कारण वस्तुएँ बहुमूल्य भी बन जाती हैं।
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कला में कुछ भी कहना कठिन है : कुछ कहना कुछ न कहने जैसा ही है।
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पुरानी शैली को नई शैली में अनूदित किया जा सकता है, कहा जा सकता है कि इसे तो हम अपने देश-काल के अनुकूल नए सिरे से उत्पन्न कर सकते हैं। यह तो अनुकृति ही है। मेरा निर्माण-कार्य भी यही था।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere