हजारीप्रसाद द्विवेदी के उद्धरण
वह लोक कितना नीरस और भोंडा होता होगा जहाँ विरह-वेदना के आँसू निकलते ही नहीं और प्रिय-वियोग की कल्पना से जहाँ ह्रदय में ऐसी टीस पैदा ही नहीं होती, जिसे शब्दों में व्यक्त न किया जा सके।
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तुम झूठ से शायद घृणा करते हो, मैं भी करता हूँ; परंतु जो समाजव्यवस्था झूठ को आश्रय देने के लिए ही तैयार की गई है, उसे मानकर अगर कोई कल्याण-कार्य करना चाहो, तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना पड़ेगा।
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व्यक्ति का आत्मबल उसकी जड़-पूजा से अवरुद्ध हो जाता है। जिसके पास ये जड़-बंधन जितने ही कम होते हैं, वह उतना ही जल्दी सत्यपरायण हो जाता है।
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उपनिषदों के उद्धरण भी जब हम अँग्रेज़ी में उद्धृत करते हैं, तो अपने ज्ञान का दिवाला प्रकट करते हैं।
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देश की जनता के साथ देश के शिक्षितों के व्यवधान का एक प्रमुख कारण विदेशी भाषा का माध्यम है।
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जिन विषयों के गंभीर अध्ययन से मनुष्य का मस्तिष्क परिष्कृत और ह्रदय सुसंस्कृत होता है, उसमें श्रम लगता है और उसके लिए बाज़ार आसानी से नहीं मिलता।
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छोटेपन में अहंकार का दर्प इतना प्रचंड होता है कि वह अपने को ही खंडित करता रहता है।
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लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं होती, अंधानुकरण में होती है। अविवेकपूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर-माथे चढ़ा लेना, अंध-भाव से अनुकरण करना, जातिगत हीनता का परिणाम है। जहाँ मनुष्य विवेक को ताक़ पर रखकर सब कुछ की अंध भाव से नक़ल करता है, वहाँ उसका मानसिक दैन्य और सांस्कृतिक दारिद्र्य प्रकट होता है, किंतु जहाँ वह सोच-समझकर ग्रहण करता है और अपनी त्रुटियों को कम करने का प्रयत्न करता है, वहाँ वह अपने जीवंत स्वभाव का परिचय देता है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere