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गीता पर उद्धरण

तुमने मांसभोजी क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खाएँ या खाएँ, वे ही हिंदू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता है, जिनको तुम महत् और सुंदर देखते हो।उपनिषद् किन्होंने लिखी थी? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों नें धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा, उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्याससूत्र पढ़ो, या किसी से सुन लो। गीता में भक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परंतु व्यास ग़रीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दयारूपी नदी के प्रवाह में बाधा खड़ी हो जाएगी? अगर वह ऐसा ही है, तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं।

स्वामी विवेकानन्द

युद्ध के बीच कही गई गीता भी, युद्ध में उपस्थित धर्मसंकट का ही समाधान बताती है। यह भी कहा जा सकता है कि वहाँ भी युद्ध का ‘समर्थन’ है। पर सच पूछें तो गीता धर्म-संकट का उतर, कर्म की धारणा को कर्म के साधारण व्यवहार-निष्ठ धरातल से हटा कर ही देती है—उससे ऊपर आरोहण कर जाती है।

मुकुंद लाठ

धर्म की उलटबाँसियों, विडंबनाओं के भीतर भी धर्मप्रज्ञा जागरूक रहती है, और कृष्ण ने ठीक ही कहा है कि धर्मप्रज्ञा को किसी स्थिर तत्त्व या विधान से बाँधा नहीं जा सकता।

मुकुंद लाठ

गीता, गंगा, गायत्री और गोविंद—इन गकार-युक्त चार नामों को हृदय में धारण कर लेने पर मनुष्य का फिर इस संसार में जन्म नहीं होता।

वेदव्यास

गीता ने उपदेश तो फलासक्ति के त्याग का दिया था; किन्तु साधकों ने कर्मन्यास का अर्थ फलासक्ति का त्याग नहीं, कर्म मात्र का त्याग लगा लिया।

रामधारी सिंह दिनकर

अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने की क्या आवश्यकता है? गीता का ही अच्छी तरह से गान करना चाहिए, क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के मुख कमल से निकली हुई है।

वेदव्यास

जीवन और मृत्यु के अभिन्न ताल का शब्द-रूप प्रतीक है गीता।

दुर्गा भागवत

गीता विश्व का शास्त्र है, उसका प्रभाव मानवजाति के मस्तिष्क पर हमेशा तक रहेगा।

वासुदेवशरण अग्रवाल

मैं गीता का सेवक हूँ। गीता सिखाती है कि स्वधर्म का पालन करो और अपने ही क्षेत्र में बने रहो।

महात्मा गांधी

गीता जिस कर्म का प्रतिपादन करती है, वह मानव-कर्म नहीं अपितु दिव्य कर्म है।

श्री अरविंद

ज्ञान-भक्ति-युक्त कर्मयोग ही गीता का सार है।

बाल गंगाधर तिलक

सब उपनिषद् यदि गौएँ हैं, तो गीता उनका दूध है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

कृष्ण के उच्च स्वरूप की पराकाष्ठा हमारे लिए गीता में हैं।

वासुदेवशरण अग्रवाल