होर्खे लुई बोर्खेस के उद्धरण
किसी की प्रशंसा या विरोध में लिखा हुआ न ही किसी को आहत करता है और न ही इनसे कोई क्षति पहुँचती है। मनुष्य अपने ख़ुद के लिखे से पूर्ण या अपूर्ण हो सकता है, किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके बारे में कही गई बातों से नहीं।
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संगीत, संवेदनाएं, पौराणिक कथाएँ, समय के साथ ढ़ल चुके चेहरे और कुछ जगहें हमें कुछ बताना चाहते हैं, या हमें कुछ बता रहे हैं जिनसे हमें चूकना नहीं चाहिए था या वे हमसे कुछ कहने वाले हैं, एक रहस्य का बहुत क़रीब से प्रकट होना, जिसे बनाया नहीं, जो शायद एक सुन्दर घटना है।
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सोचना भूलना है किसी अंतर का, विचार करने का अर्थ है एक अंतर को भूल जाना, चीज़ों का सामान्यीकरण करना, अमूर्त करना।
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एक लेखक की शुरुआत हमेशा बहुत जटिल होती है - वह कई खेल एक साथ खेल रहा होता है।
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दो सपनों की कहानी एक संयोग है, संयोग से खिंची गई एक रेखा, जैसे बादलों में बनती हैं घोड़े और शेर की आकृतियाँ।
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सच तो ये है कि हम सब बहुत कुछ पीछे छोड़ कर जीते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हम समझते हैं कि यह जीवन अनंत है। कभी न कभी हर मनुष्य सभी अनुभवों से गुजरेंगे।
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कभी कभी घर पर रखी बहुत सारी किताबों को देख कर मुझे महसूस होता है कि इससे पहले कि मैं हर क़िताब तक पहुँचू मैं इस दुनिया से चला जाऊंगा, लेकिन फिर भी नई क़िताबों को खरीदने का उत्साह मेरा कम नहीं होता। जब भी मैं किसी बुक स्टोर पर जाता हूँ और मुझे वहाँ मेरी पसंद की कोई क़िताब दिख जाती है तो मैं ख़ुद से यह बात कहता हूँ कि यह कितने दुःख की बात है कि मैं यह क़िताब ले नहीं सकता क्योंकी मेरे पास उसकी एक प्रति पहले से है।
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जिस तरह से तुम डॉलर और सेंट्स की माप करते हो उसी तरह से तुम समय को दिनों में माप नहीं सकते, क्योंकी डॉलर हर दिन एक जैसे होते हैं लेकिन हर दिन अलग होता है, हर पल अलग।
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मैंने जो भी लिखा है उसे दोबारा कभी नहीं पढ़ा। मैंने जो भी किया है उसके लिए मुझे डर है कि मैं शर्मिंदगी न महसूस करूँ।
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ये काफ़ी है कि अगर मैं किसी चीज़ का धनी हूँ तो वह उलझनें हैं, न की निश्चिन्त्ताएं।
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मैं ऐसा मानता हूँ कि जैसे जैसे समय बीतेगा हम एक ऐसे मक़ाम पर पहुँच चुके होंगे जहाँ हम सरकार से मुक्ति पा चुके होंगे।
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स्वर्ग के सारे फरिश्ते और धरती के ताम-झाम, एक शब्द में कहूँ तो संसार के विशाल फ्रेम में रचे गए सारे अंग मन के बिना कोई पदार्थ ही नहीं है… यानी उनका होना, उन्हें अवबोध में उतरना या जानना ही है।
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समय वह पदार्थ है जिससे मैं बना हूँ। समय कोई नदी है जो मुझे साथ बहाती है, लेकिन मैं ही नदी हूँ, शेर मेरा विनाश करता है, लेकिन मैं ही शेर हूँ; अग्नि मुझे भस्म करती है, लेकिन मैं ही अग्नि हूँ। संसार, दुर्भाग्यवश, वास्तविक है; मैं, दुर्भाग्यवश, बोर्खेज़ हूँ।
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समय, समय ही से बना है और प्रत्येक वर्तमान जिसमें कुछ न कुछ घटता है वह भी(समय से ही बना है)..इसलिए कहीं कोई अनुक्रम नहीं है।
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एक पुस्तक का अस्तित्व एकाकी नहीं हो सकता। वह एक सम्बन्ध है, कई सारे सम्बंधों की धुरी।
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जब तुम मेरी को पाओगे, तब तुम यह महसूस करोगे कि तुम चीज़ों को उससे बेहतर या कमतर नहीं बरत सकते थे जैसे कि तुमने उन्हें पहली दफ़े बरता।
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मैंने अपनी कमजोरियों से अपनी ताक़त बटोरी है, जिसने मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ा।
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ज़िन्दगी इतनी छुद्र है कि अमर्त्य तक नहीं हो सकती लेकिन हमारे पास हमारी छुद्रता का दृढ़ विश्वास भी नहीं है।
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प्रत्येक क्षण स्वायत्त है। प्रतिहिंसा न क्षमा न सज़ा न विस्मृति ही अभेद्य अतीत में कोई हेरफेर कर सकती है। मेरे अपने सोच में, उम्मीद और भय भी कोई कम निरर्थक नहीं लगते क्योंकि वे सदैव भावी घटनाओं के प्रति इशारा करते हैं यानी, ऐसी घटनाओं के प्रति जो हमारे साथ नहीं घटेंगी, जो महीन तफ़सील में वर्तमान हैं।
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कोई भी व्यक्ति केवल उसी चीज़ को खोता है जो उसके पास दरअसल कभी नहीं रही होती है।
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अकेलापन मुझे विचलित नहीं करता; जीवन पहले से संघर्षशील है, ख़ुद को समझना और ख़ुद की आदतों से जूझना।
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हम सच्चाई को इतनी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं - शायद इसलिए भी क्योंकी हम जानते हैं कि कहीं भी कुछ भी सच नहीं है।
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एक लेखक मरने के बाद अपनी क़िताबों में तब्दील हो जाता है।
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जैसे जैसे अंत निकट आता है, स्मृतियों के सभी चित्र धुंधले पद जाते हैं। सिर्फ़ शब्द बचते हैं।
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मनुष्य की अबोधता के लिए दुनिया के तौर तरीके बहुत जटिल हैं।
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1877 में ‘पेटर’ ने दृढ़ता से कहा था कि सभी कलाएँ संगीत का स्तर हासिल करने की कामना रखती हैं क्योंकि केवल, वह ही शुद्ध रूप है। संगीत, आनंद-की-दशाएँ, पौराणिक कथाएँ, काल से पके-तपे-घिसे चेहरे, कुछेक धुँधलके, और कुछेक विशिष्ट स्थान कुछ कहने की कोशिश करते हैं, या ऐसा कुछ कह चुके जिसे हम पकड़ नहीं पाए, या कुछ कहने को मुँह खोले हैं; 'कुछ' प्रकट होने की यह आसन्नता लेकिन वह 'कुछ' प्रकट हो नहीं, शायद यही सौंदर्यात्मक फेनोमना है।
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मैं, रात के एकांत में उपनगरों के अंदर घूमते-फिरते, ऐसा सोचना त्याग नहीं सकता कि रात हमें इसलिए भाती है क्योंकि वह निरर्थक ब्यौरों को दबा देती है-वैसे ही-कि जैसे हमारी स्मृति करती है।
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साहित्य को और (यदाकदा) अधिभौतिक जटिल मनन को समर्पित अपने जीवन के दौरान, मुझे समय के अस्तित्व के नकार का एहसास या पूर्वाभास हुआ, जिसमें मैं स्वयं यक्तीन नहीं करता, यद्यपि वह मेरे मन के भीतर, रात में और थके-माँदे धुँधलके में स्वयंसिद्धि की किसी मायावी ताक़त से ओतप्रोत हो नियमित विचरण करता रहता है। यह नकार मेरी सारी पुस्तकों में किसी-न-किसी रूप में मौजूद है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere