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आदि शंकराचार्य

700 AD - 750 AD

समादृत भारतीय दार्शनिक, विद्वान और आचार्य। 'अद्वैत वेदांत' के प्रणेता।

समादृत भारतीय दार्शनिक, विद्वान और आचार्य। 'अद्वैत वेदांत' के प्रणेता।

आदि शंकराचार्य के उद्धरण

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अज्ञान की निवृत्ति में ज्ञान ही समर्थ है, कर्म नहीं, क्योंकि उसका अज्ञान से विरोध नहीं है और अज्ञान की निवृत्ति हुए बिना राग-द्वेष का भी अभाव नहीं हो सकता।

ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं—मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों की संगति।

जो व्यक्ति ज्ञान की तलवार से तृष्णा को काटकर, विज्ञान की नौका से अज्ञान रूपी भवसागर को पार कर, विष्णुपद को प्राप्त करता है, वह धन्य है।

बिजली की तरह क्षणिक क्या है? धन, यौवन और आयु।

मैं जन्म लेता हूँ, बड़ा होता हूँ, नष्ट होता हूँ। प्रकृति से उत्पन्न सभी धर्म देह के कहे जाते हैं। कर्तृत्व आदि अहंकार के होते हैं। चिन्मय आत्मा के नहीं। मैं स्वयं शिव हूँ।

मेरे लिए मृत्यु है, भय, जाति-भेद, पिता माता, जन्म, बंधु, मित्र और गुरु। मैं चिदानंद रूप हूँ। मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

अंग गल गए हैं, बाल सफ़ेद हो गए हैं, दाँत गिर गए हैं, काँपते हाथों में डंडा लिया हुआ है, फिर भी आशा मनुष्य का पिंड नहीं छोड़ती।

मैं बाहर-भीतर विद्यमान, प्राचीनता से रहित तथा जन्म-मृत्यु और वृद्धत्व से रहित आत्मा हूँ—ऐसा जो जानता है वह किसी से क्यों डर सकता है।

मैं निर्विकल्प (परिवर्तन रहित) निराकार, विभुत्व के कारण सर्वव्यापी, सब इंद्रियों के स्पर्श से परे हूँ। मैं मुक्ति हूँ मेय (मापने में आने वाले)। मैं विदानंद रूप हूँ। मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

जिसने पर ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया, उसके लिए सारा जगत नंदनवन है, सब वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, सब जल गंगाजल है, उसकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उसकी वाणी चाहे प्राकृत हो या संस्कृत-वेद का सार है, उसके लिए सारी पृथ्वी काशी है और उसकी सारी चेष्टाएँ परमात्मामयी है।

हे मूढ़मति! तू कौन है? मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया? मेरी माता कौन है? मेरा पिता कौन है? ऐसा विचार कर इस असार स्वप्न सदृश विश्व को त्यागकर निरंतर भगवान की उपासना कर।

मैं सत् हूँ, असत् हूँ और उभयरूप हूँ। मैं तो केवल शिव हूँ। मेरे लिए संध्या है, रात्रि है, और दिन है, क्योंकि मैं नित्य साक्षीस्वरूप हूँ।

वात्सल्य, अभयदान की प्रतिज्ञा, आर्त-दुःख-निवारण, उदारता, पाप के विनाश और असंख्य कल्याण पदों की प्राप्ति कराने के कारण सभी लोकों के लिए लक्ष्मीपति नारायण ही सेव्य हैं। इस विषय में प्रह्लाद, विभीषण, गजेंद्र, द्रौपदी, अहल्या और ध्रुव- ये सभी साक्षी हैं।

संपूर्ण प्राणियों में मुझसे भिन्न कोई और योद्धा नहीं है, तथा मैं समस्त कर्मों का द्रष्टा, साक्षी, प्रकाशक, नित्य, निर्गुण और अद्वय हूँ।

जिस प्रकार दीपक को प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य दीपक की अपेक्षा नहीं होती, उसी प्रकार बोध आत्म-स्वरूप होने के कारण उसे किसी अन्य बोध की अपेक्षा नहीं होती।

आत्मलाभ ही परम लाभ है- ऐसा शास्त्र का सिद्धांत है। अन्य पदार्थों का लाभ तो अलाभ ही है। इसलिए अनात्मबुद्धि का त्याग करना चाहिए।

अपने स्वरूप के अनुसंधान को ही 'भक्ति' कहते हैं।

जीवित ही मृत के समान कौन है? जो पुरुषार्थहीन है।

जो कुछ दृश्य है वह असत् है- यह बात निश्चित है।

मैं ब्रह्म हूँ, मैं सर्वरूप हूँ, अतः मैं सदा ही निर्विकार और बोध-स्वरूप हूँ। सब ओर से अजन्मा तथा अजर-अमर और अक्षय हूँ।

निश्चयपूर्वक तीव्र वेग से जिस वस्तु की भावना की जाती है, पुरुष वही शीघ्र हो जाता है। यह बात कीट-भृगन्याय से समझनी चाहिए।

ब्रह्म का ही चिंतन, ब्रह्म का ही कथन, ब्रह्म का ही परस्पर बोधन और ब्रह्म की ही एकमात्र कामना करना इसको विद्वानों के द्वारा 'ब्रह्माभ्यास' कहा जाता है।

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