दिवेहि विढत्तउँ खाहि वढ़ संचि म एक्कु वि द्रम्मु।
को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु॥
हे मूर्ख, दिन-दिन कमाये धन को खा, एक भी दाम संचित मत कर। कोई भी ऐसा संकट आ पड़ेगा जिससे जीवन ही समाप्त हो जाएगा।
जइ केवँइ पावीसु पिउ अकिआ कुड्डु करीसु।
पाणिउ नवइ सरावि जिवं सब्बंगें पइसीसु॥
यदि किसी प्रकार प्रिय को पा लूँगी तो अनोखे खेल करूँगी। पानी नए पुरवा में जैसे प्रविष्ट हो जाता है, मैं भी सर्वांग से प्रिय (के अंग-अंग) में प्रवेश कर जाऊँगी।
जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह।
विहिं वि पयारेंहिं गइअ धण किं गज्जहिं खल मेह॥
यदि वह प्रेम में है (और प्रिय के साथ नहीं है) तो मर गई और यदि जीवित है व स्नेह से वंचित है (तब भी मर गई)। धन्या दोनों ही तरह से गई; हे दुष्ट मेघ, अब क्यों गरजते हो?
ओ गोरी-मुह-निज्जिअउ बद्दलि लुक्कु मियंकु।
अन्नु वि जो परिहविय-तणु सो किवँ भवइँ निसंकु॥
ओ देख! गोरी के मुँह (की सुंदरता) से पराजित होकर चंद्रमा बादल में छिप गया। और जो कोई हारे हुए तन वाला है वह निःशंक कैसे भ्रमण कर सकता है!
ढोल्ला मइँ तुहुँ वारिया मा कुरु दीहा माणु।
निद्दए गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु॥
हे ढोला, मैंने तुम्हें मना किया कि लंबे समय तक मान मत कर। रात नींद में ही चली जाएगी और शीघ्र ही विहान (सुबह) हो जाएगी।
जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु।
तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउँ सुअणस्सु॥
जो अपना गुण छिपाए और दूसरे का गुण प्रकट करे, कलिकाल में दुर्लभ उस सज्जन पर मैं बलि-बलि जाऊँ।
जे महु दिण्णा दिअहडा दइएँ पवसन्तेण।
ताण गणन्तिए अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण॥
जो दिन मुझे प्रवास पर जाते हुए प्रिय ने दिए थे, उन्हें गिनते हुए मेरी अंगुलियाँ नख से जर्जरित हो गईं।
एइ ति घोड़ा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग।
एत्थु मणीसिम जाणिअइ जो नवि वालइ वग्ग॥
ये वे घोड़े हैं, यह वह स्थली है, ये वे निशित खड्ग हैं, यहाँ यदि घोड़े की बाग न मोड़े तो पौरुष जानिए।
पुत्ते जाएँ कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुएण।
जा बप्पी की भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण॥
पुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ और उसके मरने से क्या हानि यदि पिता की भूमि शत्रु द्वारा दबा ली जाए!
खग्ग-विसाहिउ जहिँ लहहुँ पिय तहिंदेसहिँ जाहुँ।
रण-दुब्भिक्खें भग्गाइं विणु जुज्झें न वलाहुँ॥
हे प्रिय, जहाँ खड्ग का व्यवसाय हो उसी देश में चलें। रण के अभाव में हम क्षीण हो गए हैं, बिना युद्ध के स्वस्थ नहीं रह पाएँगे।
ब्रासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइ-सत्थु पमाणु।
मायहँ चलण नवंताहं दिवि-दिवि गंगा-एहाणु॥
व्यास महर्षि कहते हैं कि यदि श्रुति-शास्त्र प्रमाण है तो माताओं के चरणों में नमन करने वालों का दिन-दिन गंगा-स्नान है।
जइ रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा मुद्ध-सहाव।
लोहें फुट्टणएण जिवँ घणा सहेसइ ताव॥
हे मुग्ध स्वभाव वाले हृदय! जो जो देखा उसी पर यदि मुग्ध हो गया, तो फूटने वाले लोहे के समान बहुत ताप सहना पड़ेगा।
चलेहिँ चलन्तेहिँ लोअणेहिँ जे तइँ दिट्ठा बालि।
तहिं मयरद्धय दडवडउ पडइ अपूरइ कालि॥
हे बाले, जिनको तूने अस्थिर चंचल नयनों से देखा, उन पर समय से पहले ही मकरध्वज (कामदेव) का आक्रमण हो जाता है।
दिअहा जंति झडप्पडहिं पडहिँ मनोरह पच्छि।
जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि॥
दिन झटपट बीतते जाते हैं, मनोरथ पीछे पड़े रह जाते हैं। इसलिए जो है, उसी को मानिये। ‘होगा', यह सोचते हुए मत रहिए।
कहिं ससहरु कहिँ मयरहरु कहिँ बरिहिणु कहिं मेहु।
दूर-ठिाएँ वि सज्जणहँ होइ असड्ढलु नेहु॥
कहाँ चंद्रमा और कहाँ समुद्र! कहाँ मोर और कहाँ मेघ! दूर रहने पर भी सज्जनों का असाधारण स्नेह होता है।
तणहँ तइज्जी भंगि नवि तें अवड-यडि वसंति।
अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइँ मज्जंति॥
तृणों की तीसरी दशा नहीं है; वे अवट तट में बसते हैं। या तो लोग उनको पकड़कर पार उतरते हैं या वे उनके साथ स्वयं डूब जाते हैं।
जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण।
अह भग्गा अम्हहं तणा तो ते मारिअडेण॥
हे सखी, यदि शत्रु भागे हैं तो मेरे प्रिय (के डर) से, और यदि हमारे लोग भागे हैं तो उनके मारे जाने से।
जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु।
जइ आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु॥
उस देश में जाइए जहाँ प्रिय का पता मिले। यदि आए तो लाइए, अथवा वह मेरा निर्वाण हो।