रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण
हर शिशु इस संदेश के साथ जन्मता है कि इश्वर अभी तक मनुष्यों के कारण शर्मसार नहीं है।
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मृत्यु का अर्थ रौशनी को बुझाना नहीं; सिर्फ़ दीपक को दूर रखना है क्यूंकि सवेरा हो चुका है।
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प्रेम का उपहार दिया नहीं जा सकता, वह प्रतीक्षा करता है कि उसे स्वीकार किया जाए।
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हम दुनिया को ग़लत आँकते हैं और कहते हैं कि उसने हमें छला है।
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तुम जो हो तुम उसे नहीं देखते, तुम उसे देखते हो जो तुम्हारी परछाईं है।
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जैसे अँधेरे में घिरा एक तरुण पौधा प्रकाश में आने को अपने अँगूठों से उचकता है। उसी तरह जब मृत्यु एकाएक आत्मा पर नकार का अँधेरा डालती है तो यह आत्मा रौशनी में उठने की कोशिश करती है। किस दुःख की तुलना इस अवस्था से की जा सकती है, जिसमें अँधेरा अँधेरे से बाहर निकलने का रास्ता रोकता है।
मिट्टी स्वयं अपमान पाती है और बदले में अपने पुष्प अर्पित करती है।
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अत्याचारी स्वतंत्रता का नष्ट करने और फिर भी अपने लिए स्वतंत्रता रखने के लिए स्वतंत्रता का दावा करता है।
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तेरह-चौदह वर्ष के अनाथ बच्चों का चेहरा और मन का भाव लगभग बिना मालिक के राह के कुत्ते जैसा हो जाता है।
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दुःख से होने वाला मिलन टूटने वाला नहीं है। इसमें न भय है और न संशय। आँसुओं से जो हँसी फूटती है वह रहती है, रहती और चिर दिन रहती है।
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अपना जब पराया हो जाता है तब उससे बिल्कुल नाता तोड़ देने के अतिरिक्त कोई गति नहीं रहती।
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यूरोप का अनुकरण करने से काम नहीं चलेगा, किंतु यूरोप से हमें शिक्षा लेनी पड़ेगी। शिक्षा लेना और अनुकरण करना एक ही बात नहीं है। वस्तुतः अच्छी तरह शिक्षा लेने से ही अनुकरण करने के रोग से छुटकारा मिलता है।
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जब लोग दरिद्र हो जाते हैं, तब बाहर की ओर गौरव की खोज में भटकते हैं। तब वे केवल बातें कहकर गौरव करना चाहते हैं, तब वे पुस्तकों से श्लोक निकालकर गौरव का माल-मसाला भग्न स्तूप से संचय करते रहते हैं।
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मेरा मानना है कि प्यार और सम्मान करने की क्षमता, मनुष्य को दिया हुआ ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है।
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होश में या अनजाने में मैंने ऐसे कई काम किए होंगे जो असत्य थे। लेकिन मैंने अपनी कविता में कभी भी कुछ भी असत्य नहीं कहा। यह वह अभयारण्य है, जहाँ मेरे जीवन के सबसे गहरे सत्य शरण पाते हैं।
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यदि स्मृतियों में बनी छवियों को हम शब्दों का रूप दे सकें तो वे साहित्य में एक स्थान पाने योग्य हैं।
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जिसकी शुरुआत नहीं हुई हो, उसे ऐसा प्रतीत हो सकता है कि एक फूल अचानक आ गया है। बीज से उसकी यात्रा की कथा अज्ञात बनी हुई है। मेरी कविता का भी यही सच है। ऐसा मेरा अनुभव है।
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अंतिम परिणाम मात्र एक घटना है। यह स्वयं के भीतर का निर्माता है जो निरंतरता और दृढ़ता से भविष्य के आगमन को तैयार कर रहा है, बिना अंत को जाने; किंतु व्यापकता के लिए एक शाश्वत अर्थ लिए। बाँसुरी-वादक और उसकी बाँसुरी की तरह। वह धुन पैदा तो करता है, लेकिन संगीत एक चिरस्थायी संगीतकार की अभिरक्षा में है।
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स्वयं को जानना सरल नहीं है। कठिन है जीवन के अनगिनत अनुभवों को एक संपूर्णता में एकीकृत करना। यदि ईश्वर ने मुझे लंबी आयु न दी होती, यदि उसने मुझे सत्तर वर्ष की आयु तक पहुँचने की अनुमति न दी होती तो बहुत दुर्लभता से मुझे मेरी आत्म-छवि दिखती। मैंने अपने जीवन के होने का अर्थ अलग-अलग समयों में विभिन्न कार्यकलापों और अनुभवों से स्थापित किया है। अपने बारे में एकमात्र निष्कर्ष जो मैं निकाल पाया हूँ वह यह है—मैं एक कवि हूँ, और कुछ भी नहीं। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मैंने अपने जीवन के साथ और क्या किया।
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एक आँसू या एक मुस्कान की तरह, कविता उसकी छवि है जो भीतर घट रहा है।
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किसी भी वस्तु का सही तरीक़े से उपयोग करना सीखने का एकमात्र तरीक़ा उसके दुरुपयोग से है।
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कविता सुनने के बाद जब कोई यह कहता है कि उसे वह समझ नहीं आई तो मैं आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। यदि एक फूल को सूँघकर कोई मनुष्य यह कहे कि उसे वह समझ नहीं आया, तो मेरा यही उत्तर होगा—यहाँ समझने को कुछ भी नहीं है। वह सिर्फ़ एक सुगंध है। फिर भी यदि वह कहे, “मुझे मालूम है, लेकिन इसका अर्थ क्या है?’’ तब किसी एक को संवाद का विषय बदलना होगा या फिर उसके अर्थ अव्यक्त करते हुए मैं कहूँगा, ”सुगंध सार्वभौमिक आनंद का आकार है जो कि एक फूल में उपस्थित है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere