मोहनदास करमचंद गांधी के उद्धरण
अहिंसा केवल बुद्धि का विषय नहीं है, यह श्रद्धा और भक्ति का विषय है। यदि आपका विश्वास अपनी आत्मा पर नहीं है, ईश्वर और प्रार्थना पर नहीं है, अहिंसा आपके काम आने वाली चीज़ नहीं है।
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पशुबल अस्थायी है और अध्यात्मबल या आत्मबल या चैतन्यवाद एक शाश्वत बल है। वह हमेशा रहने वाला है क्योंकि वह सत्य है। जड़वाद तो एक निकम्मी चीज़ है।
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सबसे अच्छा तो यही है कि झूठ का कोई जवाब ही न दिया जाए। झूठ अपनी मौत मर जाता है। उसकी अपनी कोई शक्ति नहीं होती। विरोध पर वह फलता-फूलता है।
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पढ़ने की बीमारी वाले मैंने यहाँ और दूसरी जगह बहुत देखे हैं। यह रोग तुम्हें भी सता रहा है। इस रोग से मुक्त होने के लिए भ्रमण करो, ईश्वर की लीला देखो, कुदरत की किताब पढ़ो, पेड़ों की भाषा समझो, आकाश में होने वाला गान सुनो, वहाँ रोज़ रात को होने वाला नाटक देखो। दिन में कातो, थकावट लगे तब सोओ, बढ़ई का काम हो सके तो करो, मोची का काम करो।
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अस्पृश्य तो वे हैं जो परमात्मा होते हैं। एक सारी जाति को अस्पृश्य बनाना एक बड़ा कलंक है।
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भूतकाल हमारा है, हम भूतकाल के नहीं हैं। हम वर्तमान के हैं और भविष्य को बनाने वाले हैं, भविष्य के नहीं।
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जो बात शुद्ध अर्थशास्त्र के विरुद्ध हो, वह अहिंसा नहीं हो सकती। जिसमें परमार्थ है वही अर्थशास्त्र शुद्ध है। अहिंसा का व्यापार घाटे का व्यापार नहीं होता।
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अनासक्ति एक परीक्षा है कि मनुष्य रामनाम लेकर सोने के समय एक क्षण में सो सकता है।
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अहिंसापूर्वक सत्य का आचरण करके आप संसार को अपने चरणों में झुका सकते हैं।
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अस्पृश्यता सहस्त्र फनों वाला सर्प है और जिसके एक-एक फन में विषैले दाँत हैं। इसकी कोई परिभाषा संभव ही नहीं है। उसे मनुष्य अन्य प्राचीन स्मृतिकारों की आज्ञा से भी कुछ लेना-देना नहीं है। उसकी अपनी निजी और स्थानीय स्मृतियाँ हैं।
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आत्मशुद्धि सबसे पहली चीज़ है, वह सेवा की अनिवार्य शर्त है।
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आत्मशुद्धि के बिना अहिंसा धर्म का पालन थोथा स्वप्न ही रहेगा।
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अहिंसा श्रद्धा और अनुभव की वस्तु है, एक सीमा से आगे तर्क की चीज़ वह नहीं है।
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क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अँग्रेज़ी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किस लिए?
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जिसका आत्मबल पर विश्वास है, उसकी हार नहीं होती, क्योंकि आत्म-बल की पराकाष्ठा का अर्थ है, मरने की तैयारी।
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जीवमात्र ईश्वर के अवतार हैं, परंतु लौकिक भाषा में हम सबको अवतार नहीं कहते। जो पुरुष अपने युग में सबसे श्रेष्ठ धर्मवान् पुरुष होता है, उसे भविष्य की प्रजा अवतार के रूप में पूजती है। इसमें मुझे कोई दोष नहीं मालूम होता।
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जगत् मात्र की सेवा करने की भावना पैदा होने के कारण अनासक्ति सहज ही आ सकती है।
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जो व्यक्ति स्वयं अपने सम्मान का ख़याल नहीं करता वह दास ही बन जाता है।
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आत्मा की शक्ति को पहचानना ही आत्म-ज्ञान है। आत्मा तो बैठे-बैठे दुनिया को हिला सकती है।
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सच्चा अर्थशास्त्र तो न्याय-बुद्धि पर आधारित अर्थशास्त्र है।
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आत्महत्या का विचार करना सरल है, आत्महत्या करना सरल नहीं।
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अपने गुण आप देखें और उसकी स्तुति दूसरों से करें, उससे बढ़ के नीचता कैसी होगी?
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आत्मविश्वास रावण का-सा नहीं होना चाहिए, जो समझता था कि मेरी बराबरी का कोई है ही नहीं। आत्मविश्वास होना चाहिए विभीषण-जैसा, प्रह्लाद-जैसा। उनके जी में यह भाव था कि हम निर्बल हैं मगर ईश्वर हमारे साथ है और इस कारण हमारी शक्ति अनंत है।
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आत्मसंयम, अनुशासन और बलिदान के बिना राहत या मुक्ति की आशा नहीं की जा सकती। अनुशासनहीन बलिदान से भी काम नहीं चलेगा।
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अंतःकरण के विषयों में, बहुमत के नियम का कोई स्थान नहीं है।
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अनुचित इच्छाएँ तो उठती ही रहेंगी। उनका हम ज्यों-ज्यों दमन करेंगे त्यों-त्यों दृढ़ बनेंगे और हमारा आत्मबल बढ़ेगा।
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मेरे सामने जब कोई असत्य बोलता है तब मुझे उस पर क्रोध होने के बजाए स्वयं अपने ही ऊपर अधिक कोप होता है, क्योंकि में जानता हूँ कि अभी मेरे अंदर—तह में—असत्य का वास है।
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जो हम करते हैं वह दूसरे भी कर सकते हैं—ऐसा मानें। न मानें तो हम अहंकारी ठहरेंगे।
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हमें अँग्रेज़ी की आवश्यकता है, किंतु अपनी भाषा का नाश करने के लिए नहीं।
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सुवर्ण नियम यह है कि जो चीज़ लाखों को नहीं मिल सकती, उसे लेने से हम दृढ़तापूर्वक इंकार कर दें।
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न्याय की अदालतों से भी एक बड़ी अदालत होती है। वह अदालत अंतर की आवाज़ की है और वह अन्य सब अदालतों से ऊपर की अदालत है।
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मनुष्य जीवन का उद्देश्य आत्मदर्शन है। और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एकमात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीव-मात्र की सेवा करना है, उसमें तन्मयता तथा अद्वैत के दर्शन करना है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere