गाय पर उद्धरण
गाय भारतीय सांस्कृतिक
परंपरा में एक मूल्यवान और पवित्र पशु की हैसियत रखती है और लोक-जीवन का अभिन्न अंग रही है। उसे आम और सरल के प्रतीक रूप में भी देखा जाता है। गाय के नाम पर हत्याओं ने इसे कविता में एक राजनीतिक संदर्भ भी प्रदान किया है।
जनसंघ के अंधविश्वासी लोग कहते हैं कि गाय भारतीय संस्कृति की अंग है, तो वह जानते नहीं कि अनजाने में कितनी बड़ी सच्चाई कह गए हैं।
गौ-सेवा के बारे में दिल की बात कहूँ तो आप रोने लग जाएँ, और मैं रोने लग जाऊँ... इतना दर्द मेरे दिल में भरा हुआ है।
आर्यों के ज़माने में गाय एक कविता थी, लेकिन भारत के पतन के साथ वह एक धर्म बन गई।
मैं गाय की भक्ति और पूजा में किसी से पीछे नहीं हूँ; लेकिन वह भक्ति और श्रद्धा, क़ानून के ज़रिए किसी पर लादी नहीं जा सकती।
हिंदुओ की धार्मिक दृष्टि के संतोषार्थ ही नहीं, हिंदुस्तान की आर्थिक दृष्टि से भी गोवध की मना ही होनी चाहिए।
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गाय की कुरबानी फ़र्ज़ नहीं है, यह समझकर मुसलमान गाय की कुरबानी बंद कर दे तो यह उनका परम सत्कृत्य समझा जाएगा।
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गुणवान कुल में उत्पन्न होकर भी यदि कोई स्वयं गुणहीन है, तो वह पूजा का पात्र नहीं हो सकता, जैसे दुधारी गाय से उत्पन्न होने पर भी यदि गो वंध्या है तो उसका उपयोग कौन करेगा?
अंतर्यामी ईश्वर से भी बड़े बहिर्गत साकार राम हैं,क्योंकि जिस प्रकार कुछ ही समय पूर्व व्यापी गो अपने बच्चे का शब्द सुनते ही स्तनों में दूध उतार दौड़ी आती है, उसी प्रकार वे भी नाम लेते ही दौड़े आते हैं। तुलसीदास तो अपनी समझ की बात कहता है, ऐसी बावली बातें दूसरे लोगों से कहे जाने योग्य नहीं हुआ करती, प्रह्लाद के प्रतिज्ञा करने पर उसके लिए प्रभु पत्थर से ही प्रकट हो गए, हृदय से नहीं।
गाएँ सब प्राणियों की माताएँ हैं तथा सब सुख प्रदान करने वाली होती हैं।
गौओं का नाम ही 'अघ्न्या' (अवध्य) है, फिर इन गौओं को कौन काट सकता है? जो लोग गौ को या बैल को मारते हैं, वे बड़ा अयोग्य कर्म करते हैं।
गाय भारत के निराश भक्तियुग की प्रतीक है।
गाय को भी हम माता मानेंगे, लेकिन अपनी उपेक्षा से उसके कंकाल बना देंगे। मूलतः यह रवैया अधार्मिक और अनार्य है, लेकिन वह भारतीय है। भारत मूलतः एक अनार्य और अधार्मिक देश है।
गाय मूर्तिमंत करुणामयी कविता है।
हिंदू धर्म में गोपालन को धार्मिक महत्त्व दिया गया है और गोवध महापाप माना गया है तथा गोरक्षा राजाओं और वैश्यो का एक विशेष कर्तव्य बताया गया है।
आज हिंदुस्तान की वही शक्ल है, जो उसकी गायों की है। हम गायों की तरह मरियल हैं और हमारी हड्डियाँ निकल रही हैं। जो हाल आर्य गायों की संतानों का है, वही आर्य पुरुषों की संतानों का भी है।
पूजा के घुटन-भरे दायरे से निकालकर उसे सौंदर्य और उपयोगिता के स्तर पर प्रतिष्ठित करें। जिस देश की खेती गिरी हुई, जहाँ दूध मिलावट का हो और घी ग़ायब होता जा रहा हो, जहाँ दुनिया की सबसे ज़्यादा गाएँ सबसे कम दूध देती हों—वहाँ गो-पूजा एक बेमतलब, बेजान चीज़ है। गो-पूजा दरअसल गो-उपेक्षा का दूसरा नाम है और उसका बहाना है।