जमाल के दोहे
गज बर कुंभहिं देखि तनु, कृशित होत मृगराज।
चंद लखत बिकसत कमल, कह जमाल किहि काज॥
हाथी के कुंभस्थल को देखकर, सिंह दुबला क्यों हो रहा है? और चंद्रमा को देखकर कमल क्यों विकासत हो रहा है? इन विपरीत कार्यों का क्या कारण है? अभिप्राय यह है कि नायिका के हाथी के कुंभस्थल समान स्तनों को बढ़ते देखकर सिंह अर्थात् कटि प्रदेश दुबला हो गया है। नायिका के चंद्रमुख को देखकर, नायक के कमल रूपी नेत्र विकसित हो जाते हैं।
जमला ऐसी प्रीत कर, ज्यूँ बालक की माय।
मन लै राखै पालणौ, तन पाणी कूँ जाय॥
प्रीति तो ऐसी करो जैसी एक माता अपने बालक से करती है। वह जब पानी भरने जाती है तब अपने मन को तो झूले में पड़े बालक के पास ही छोड़ जाती है। ( उसका तन तो उसकी संतान से दूर रहता है पर मन उसी में लगा रहता है)।
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जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी मच्छ कराय।
टुक एक जल थी बीछड़े, तड़फ-तड़फ मर जाय॥
प्रीत तो ऐसी करनी चाहिए जैसी मछली जल से करती है। जल से यदि वह थोड़ी देर भी अलग हो जाती है तो तड़प-तड़पकर मर जाती है।
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जमला लट्टू काठ का, रंग दिया करतार।
डोरी बाँधी प्रेम की, घूम रह्या संसार॥
विधाता ने काठ के लट्टू को रंगकर प्रेम की डोरी से बांधकर उसे फिरा दिया और वह संसार में चल रहा है।
अभिप्राय यह है कि पंचतत्त्व का यह मनुष्य शरीर विधाता ने रचा और सजाकर उसे जन्म दिया। यह शरीर संसार में अपने अस्तित्व को केवल प्रेम के ही कारण स्थिर रख रहा है।
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स्याम पूतरी, सेत हर, अरुण ब्रह्म चख लाल।
तीनों देवन बस करे, क्यौं मन रहै जमाल॥
हे प्रिय, तुम्हारे नयनों ने तीनों देवताओं को जब वश में कर लिया है, तब मेरा मन क्यों न तुम्हारे वश हो जाएगा? नेत्रों की श्याम पुतली ने विष्णु को, श्वेत कोयों ने शिव को और अरुणाई ने ब्रह्मा को मोह लिया है।
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नैणाँ का लडुवा करूँ, कुच का करूँ अनार।
सीस नाय आगे धरूँ, लेवो चतर जमाल॥
हे नागर, मैं नतमस्तक होकर लड्डू-समान नेत्रों और बंद अनार जैसे दृढ़ कुचों को आपके सम्मुख समर्पण करती हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें।
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सज्जन हित कंचन-कलश, तोरि निहारिय हाल।
दुर्जन हित कुमार-घट, बिनसिन जुरै जमाल॥
सज्जन पुरुष का प्रेम सुवर्ण के कलश के समान है जो कि टूट जाने पर जुड़ जाता है, पर दुर्जन का प्रेम मिट्टी के घड़े-सा है जो कि टूटने पर जुड़ ही नहीं सकता।
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पूरी माँगति प्रेम सो, तजी कचौरी प्रीत।
बराबरी के नेह में, कह जमाल का रीत॥
वह नायिका कचोड़ी न चाहकर पूरी मांगती है। बड़ा बड़ी (एक सूखी तरकारी) के प्रेम के कारण वह इस प्रकार क्यों आचरण कर रही है? अभिप्राय यह है कि नायिका अपने पति से पूरी (पूर्ण) प्रीति माँगती है, वह कचौरी (अधूरापन) नहीं चाहती। बराबरी के प्रेम में पूर्णता ही होती है।
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बाल पनैं धोले भये, तरुन पनैं भये लाल।
बिरध पनैं काले भये, कारन कवन जमाल॥
बचपन में भोले-भाले नेत्र श्वेत होते हैं। युवा होने पर चपल अनियारे नेत्र किसी के प्रेम में फँस कर उसकी प्रीति में अनुरंजित होकर रतनारे हो जाते हैं और वे ही नेत्र वृद्धावस्था में सभी कुटिलताओं का अनुभव करके म्लान होकर काले पड़ जाते
हैं।
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स्याम पूतरी, सेत हर, अरुण ब्रह्म चख लाल।
तीनों देवन बस करे, क्यों मन रहै जमाल॥
हे प्रिय, तुम्हारे नयनों ने तीनों देवताओं को जब वश में कर लिया है, तब मेरा मन क्यों न तुम्हारे वश हो जायगा? नेत्रों की श्याम पुतली ने विष्णु को, श्वेत कोयों ने शिव को और अरुणाई ने ब्रह्मा को मोह लिया है।
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जमला एक परब्ब छवि, चंद मधे विविचंद।
ता मध्ये होय नीकसे, केहर चढ़े गयंद॥
एक अवसर पर यह दिखाई पड़ा कि चाँद के बीच दो चाँद हैं और इसी बीच हाथी पर चढ़ा हुआ एक सिंह निकला। गूढ़ अभिप्राय यह है कि नायिका के चंद्र-मुख पर जो दो नेत्र शोभित हैं, उनमें नायक के चंद्र-मुख का प्रतिबिंब पड़ रहा है । इस प्रकार नायिका के चंद्र-मुख में दो चंद्र और दीख पड़े। नायिका वहाँ से हटी तो हाथी के समान उसकी जाँघों पर सिंह की-सी पतली कमर को देखकर कवि ने इस दृश्य को गूढ़ार्थ में अंकित किया।
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सज्जन एहा चाहिये, जेहा तरवर ताल।
फल भच्छत पानी पियत, नाहि न करत जमाल॥
सज्जन को तालाब और वृक्ष-सा परोपकारी होना चाहिए। ये दोनों पानी पीने और फल खाने के लिए किसी को मना नहीं करते हैं।
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जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी हिंदू जोय।
पूत पराये कारणे, जल बल कोयला होय॥
प्रीति तो ऐसी करनी जैसी कि एक हिंदू स्त्री करती है। वह पराए मर्द के लिए (अपना पति हो जाने पर) समय पड़ने पर स्वयं को जलाकर (सती होकर) राख बना देती है।
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प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।
नथ उतारि धरि नाक तं, कह जमाल का जान॥
सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय न जान सका । नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया ? अभिप्राय यह है कि नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है, ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।
या तन की भट्टी करूँ, मन कूँ करूँ कलाल।
नैणाँ का प्याला करूँ, भर-भर पियो जमाल॥
इस शरीर को भट्टी (आसव के बनाने का चूल्हा) और मन को कलाल (मदिरा विक्रेता) बना लूँगी। पर तुम नयनों के प्यालों में प्रेम (भक्ति) की मदिरा भर-भर कब पिओगे।
जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी निस अर चंद।
चंदे बिन निस सांवली, निस बिन चंदो मंद॥
प्रीति तो ऐसी करनी चाहिए कि जैसी निशा और चंद्र करते हैं। बिना चंद्र के निशा काली (मलीन) रहती है और बिना निशा के चंद्र भी कांति-हीन रहता है।
राधे की बेसर बिचै, बनी अमोलक बाल।
नंदकुमार निरखत रहैं, आठों पहर जमाल॥
नथ पहनने पर राधिका अत्यंत मोहक हो जाती थीं, इसलिए श्री कृष्ण आठों पहर उनके रूप को देखते रहने पर भी अघाते नहीं हैं।
नयन रँगीले कुच कठिन, मधुर बयण पिक लाल।
कामण चली गयंद गति, सब बिधि वणी, जमाल॥
हे प्रिय, उस नायिका के प्रेम भरे नेत्र अनुराग के कारण लाल हैं। उन्नत स्तन, कोयल-सी मधुर वाणी वाली सब प्रकार से सजी हुई गजगामिनी कामिनी चली जा रही है।
प्रीत ज कीजै देह धर, उत्तम कुल सूँ लाल।
चकमक जुग जल में रहै, अगन न तजै जमाल॥
हे प्रिय! संसार में देह धारण करके (जन्म लेकर) प्रेम उच्च कुल वाले से ही करना चाहिए। चकमक पत्थर यदि युगों तक जल में भी डूबा रहे तो वह अपनी अग्नि को नहीं छोड़ सकता।
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सकल क्षत्रपति बस किये, अपणे ही बल बाल।
सबल कुँ अबला कहै, मूरख लोग जमाल॥
स्त्री अपने (लावण्य के) बल पर बड़े-बड़े महाराजाओं को वश में कर लेती है। इतने पर भी इस प्रकार की सबला (स्त्री) को अबला कहना, (और असावधान रहना) अज्ञानियों का काम है।
तरवर पत्त निपत्त भयो, फिर पतयो ततकाल।
जोबन पत्त निपत्त भयो, फिर पतयौ न जमाल॥
पतझड़ में पेड़ पत्तों से रहित हुआ पर तुरंत ही फिर पल्लवित हो गया। पर यौवन-रूपी तरुवर पत्तों से रहित होकर फिर लावण्य युक्त नहीं हुआ।
जमला जोबन फूल है, फूलत ही कुमलाय।
जाण बटाऊ पंथसरि, वैसे ही उठ जाय॥
यौवन एक फूल है जो कि फूलने के बाद शीघ्र ही कुम्हला जाता है। वह तो पथिक-सा है जो मार्ग में तनिक-सा विश्राम लेकर,अपनी राह लेता है।
हरै पीर तापैं हरी बिरद् कहावत लाल।
मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥
हे परमात्मा ! तू पीर ( वेदना ) हरण कर लेता है इसी से तुम्हें विरद हरि कहा गया है। पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया!
हरै पीर तापैं हरी, बिरद कहावत लाल।
मो तन में वेदन भरी, सो नहिं हरी जमाल॥
हे परमात्मा ! तू पीर (वेदना) हरण कर लेता है इसी से तेरा विरद हरी कहा गया है, पर मेरे शरीर में व्याप्त पीड़ा को तूने अभी तक क्यों नहीं हरण किया।
नैन मिलैं तैं मन मिलैं, होई साट दर हाल।
इह तौ सौदा सहज का, जोर न चलत जमाल॥
नयनों के मिलन से मन भी मिल जाता है। अर्थात दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। यह तो प्रेम का स्वाभाविक सौदा है इसमें बल पूर्वक कुछ नहीं प्राप्त किया जा सकता।
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या तन की सारैं करूँ, प्रीत जु पासे लाल।
सतगुरु दाँव बताइया, चौपर रमे जमाल॥
शरीर को गोटें (मोहरें) और प्रीति के पासे हैं, सतगुरु दांव (चाल) बता रहे हैं; और चौपड़ का खेल खेल रहा हूँ।
जमला जा सूँ प्रीत कर, प्रीत सहित रह पास।
ना वह मिलै न बीछड़ै, ना तो होय निरास॥
उसी से प्रीत करो जो कि सदा प्रेमपूर्वक संग रहे। वह कभी मिले या बिछुड़े नहीं, जिससे निराश न होना पड़े।
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अगर चँदण की सिर घड़ी, बिच बींटली गुलाल।
एक ज दरसण हम कियो, तीरथ जात जमाल॥
सामान्य अर्थ : अगर और चंदन के दो घड़े, जिन के मध्य में गुलाल रंग की बींटली थी, तीर्थ यात्रा को जाते हुए ऐसे दृश्य के दर्शन हुए॥
गूढ़ार्थ : कवि ने किसी स्त्री के अगर तथा चंदन से चर्चित कुचों को देखा जिनकी घुंडी लाल रंग से रँगी थी। स्वेत, श्याम और लाल रँग से, सौंदर्य-प्रेमी कवि को त्रिवेणी (गंगा, यमुना और सरस्वती) के दर्शन हो गए, तब भला वह तीर्थ जाने की यात्रा का क्यों कष्ट झेलता?
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सागर तट गागर भरति, नागरि नजरि छिपाय।
रहि-रहि रुख मुख लखति क्यों, कह जमाल समुझाय॥
सामान्य अर्थ :वह स्त्री सरोवर तट पर अपनी गागर भरते समय सबकी आँख बचाकर बार-बार अपना मुख पानी में क्यों देखती है?
गूढ़ार्थ : वह अपने मुख पर पड़े पिय के दंतक्षत के चिह्न सबकी दृष्टि से छिपा कर पानी में देख रही है।
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सज्जन हित कंचन-कलश, तोरि निहारिय हाल।
दुर्जन हित कुमार-घट, बिनसिन जुरै जमाल॥
सज्जन पुरुष का प्रेम स्वर्ण-कलश के समान है जो कि टूट जाने पर भी जुड़ जाता है, पर दुर्जन का प्रेम मिट्टी के घड़े-सा है जो कि टूटने पर जुड़ ही नहीं सकता।
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या तन की भट्टी करूँ, मन कूँ करूँ कलाल।
नैणाँ का प्याला करूँ, भर भर पियो जमाल॥
इस शरीर को भट्टी (आसव बनाने का चूल्हा) और मन को कलाल (मदिरा-विक्रेता) बनाऊँगी, पर तुम नयनों के प्यालों में प्रेम (भक्ति) की मदिरा भर-भर कब पियोगे?
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पूनम चाँद कसूँभ रँग, नदी तीर द्रम डाल।
रेत, भींत,भुस लिपणो, ऐ थिर नहीं जमाल॥
पूर्णिमा का चंद्रमा, कुसुंभी रंग, नदी तट के पेड़ की डाल, रेत की बनी भींत और भूसी से लिपा स्थान, ये कभी स्थिर नहीं रहते (इनका क्षय निश्चय है)।
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पूरी माँगति प्रेम सो, तजी कचौरी प्रीत।
बराबरी के नेह में, कह जमाल का रीत॥
सामान्य अर्थ : वह नायिका कचोड़ी न चाहकर पूरी मांगती है। बड़ा-बड़ी (एक सूखी तरकारी) के प्रेम के कारण वह इस प्रकार क्यों आचरण कर रही है?
गूढ़ार्थ : वह नायिका अपने पति से पूरी (पूर्ण) प्रीति माँगती है, वह कचौरी (अधूरी) नहीं चाहती। बराबरी के (समान) प्रेम में पूर्णता ही होती है।
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जमला करै त क्या डरैं, कर-कर क्या पछताय।
रोपै पेड़ बबूल का, आम कहाँ तें खाय॥
तू कर्म करता हुआ क्यों डरता है और कर्म करके पछताता क्यों है? बबूल वृक्ष को बो कर फिर आम खाने को कहाँ से मिलेगें?
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मिलै प्रीत न होत है, सब काहू कैं लाल।
बिना मिले मन में हरष, साँची प्रीत जमाल॥
हे लाल! (प्रिय) मिलने पर तो सभी के मन में प्रेम उपजता है पर साची प्रीति तो वही कही जाएगी जो बिना मिले ही (स्मृति द्वारा) आनंद उत्पन्न करती रहे।
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जग सागर है अति गहर, लहरि विषैं अति लाल।
चढ़ि जिहाज अति नाम की, उतरें पार जमाल॥
संसार सागर बहुत गहरा है, विषय वासनाओं की लहरें भयंकर उठ रही हैं। बिना प्रभु के नाम की नौका के पार उतरना कठिन है।
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नयन रँगीले कुच कठिन, मधुर बयण पिक लाल।
कामण चली गयंद गति, सब बिधि बणी जमाल॥
हे प्रिय, उस नायिका के प्रेम भरे नेत्र अनुराग के कारण लाल हैं। उन्नत स्तनों और कोयल-सी मधुर वाणी वाली सब प्रकार से सजी हुई गजगामिनी कामिनी चली जा रही है।
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संबंधित विषय : सौंदर्य
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अबसि चैन-चित रैण-दिन, भजहीं खगाधिपध्याय।
सीता-पति-पद-पद्म-चह, कह जमाल गुण गाय॥
पक्षी आदि भी जिसकी आराधना कर निर्भय रहते हैं, तू भी उन्हीं के गुण गाकर भगवान राम के चरणों में आश्रय पाने की चाह कर।
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सब घट माँही राम है, ज्यौं गिरिसुत में लाल।
ज्ञान गुरु चकमक बिना, प्रकट न होत जमाल॥
पर्वत में स्थित रत्नों के समान राम प्रत्येक शरीर में व्याप्त है। किंतु, बिना गुरु से ज्ञान प्राप्त किए वह (राम) प्रकट नहीं होता।
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रे हितियारे अधरमी, तू न आवत लाल।
जोबन अजुंरी नीर सम, छिन घट जात जमाल॥
प्रियतम! तुम कितने कठोर हृदय वाले और अन्यायी हो। अंजलि में भरे पानी के समान यौवन अस्थिर है; वह चला जाएगा। तुम आते क्यों नहीं हो?
चंपा हनुमत रूप अलि, ला अक्षर लिखि बाम।
प्रेमी प्रति पतिया दियो, कह जमाल किहि काम॥
उस प्रेमिका ने अपने पति को पत्र में चंपा-पुष्प, हनुमान, भौंरा और ला अक्षर क्यों लिखकर दिया? गूढ़ार्थ यह है कि प्रेमिका अपना संदेश व्यक्त करना चाहती है कि उसकी और प्रेमी की दशा, चंपा और भ्रमर-सी हो रही है। दोनों मिल नहीं रहे हैं। इस हेतु वह स्त्री (चंपा) दूत (हनुमान) से कह रही है कि तू जाकर मेरे प्रेमी (भ्रमर) से कह कि मुझे मिलने की लालसा (ला) है। 'ला' का अर्थ यहाँ लाने का भी हो सकता है, मानो विरहिणी दूत से कहती हो कि तू जाकर प्रेमी को बुला ला।
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शुतर गिरयो भहराय के, जब भा पहुँच्यो काल।
अल्प मृत्यु कूँ देखि के, जोगी भयो जमाल॥
ऊँट के समान विशाल शरीर वाला पशु भी काल (मृत्यु) आने पर हड़बड़ाकर गिर पड़ता है। इस प्रकार शरीर की नश्वरता देखकर कवि जमाल उदासीन हो गया।
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पहिरैं भूषन होत है, सब के तन छबि लाल।
तुव तन कंचन तै सरस, जोति न होत जमाल॥
आभूषण पहनने से सबके शरीर पर सौंदर्य छा जाता है, पर तेरे तन का रंग तो सुवर्ण से भी अधिक आभायुक्त है। इस हेतु आभूषणों से तेरे शरीर पर कोई दीप्ति नहीं आती।
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स्रवन छाँड़ि, अधरन लगे, ये अलकन के बाल।
काम डसनि नागनि जहीं, निकसे नाहिं जमाल॥
घुंघराले बाल कानों के निकट न रहकर (आगे की ओर आकर) अधरों को छू रहे हैं। यह काकपक्ष की लटें नागिन की भाँति डसकर विकार उत्पन्न कर रही हैं और यह विष शरीर के बाहर निकाला नहीं जा सकता।
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करि सिंगार पिय पै चली, हाथ कुसुम की माल।
हरी छोड़ हर पै गई, कारन कौन जमाल॥
सामान्य अर्थ : नायिका शृंगार करके अपने प्रिय से मिलने चली। उसने हरि पूजन के निमित्त पुष्पों की माला भी साथ में ली। पर किस कारण वह हरि पूजन को न जाकर, शिव की पूजा करने चली गई?
गूढ़ार्थ : नायिका की इच्छा हरि पूजन की थी, पर इसी बीच में प्रिय के चले जाने का संदेश मिला तो विरहाग्नि के कारण पुष्पमाल जलकर भस्म हो गई। इसी भस्म को चढ़ाने वह शिव मंदिर की ओर गई।
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कहँ बोई जाँमी कहाँ, कहँ फैली तिहिं बेल।
कहँ लागी फूलन फलन, कह जमाल का खेल॥
प्रीति रूपी बेल, प्रिय के दर्शन होने पर नेत्रों में उपजती है, हृदय में अंकुरित होती है और संपूर्ण शरीर पर प्रेम का आधिपत्य हो जाता है। प्रीति का रसास्वादन भी किसी अन्य स्थान पर होता है। इस बेल की बड़ी विचित्र गति है।
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प्रीतम नहिं कछु लखि सक्यो, आलि कही तिय कान।
नथ उतारि धरि नाक तँ, कह जमाल का जान॥
सामान्य अर्थ : सखी ने नायिका के कान में जो कहा, उसको प्रिय न जान सका। नायिका ने अपने नाक की नथ को क्यों खोल दिया?
गूढ़ार्थ : नायिका के अधरों पर नथ को झूलते देखकर ऐसा ज्ञात होता था मानों अधर रस की रक्षा के लिए ताला लगा हो। नथ अधर रस के पान में बाधक है ऐसा भ्रम नायक को होते देखकर सखी ने नायिका से नथ हटा देने को कहा।
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कर कंपत लेखनि डुलत, रोम रोम दुख लाल।
प्रीतम कूँ पतिया लिखुं, लिखी न जात जमाल॥
हे प्रियतम ! तुम्हें पत्र लिखते समय हाथ काँप रहा है और लेखनी भी हिल रही है। विरह के कारण रोम-रोम में पीड़ा हो रही है, पत्र लिखा ही नहीं जा रहा है।
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मन उमगे हसती भयो, चिके पाट असराल।
सकंल तोड़ै सार का, मुझ बस नहीं जमाल॥
प्रिय मिलन के हेतु मेरा मन उमंगित होकर हाथी-सा मतवाला हो गया है। सन के रस्सों और अपने घेरे को तो तोड़ ही चुका है (अर्थात् लोक मर्यादा भी छोड़ चुका है) अब लोहे की जंजीरों को भी तोड़ना चाहता है (सांसारिक बंधन भी तोड़ने वाला है), वह मेरे वश में नहीं है।
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जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी हिंदू जोय।
पूत पराये कारणे, जलबल कोयला होय॥
प्रीति तो ऐसी करनी जैसी कि एक हिन्दू स्त्री करती है। वह परजाए पुरुष (अपने पति) के लिये समय पड़ने पर स्वयं को राख बना देती है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere