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रात पर दोहे

उजाले और अँधेरे के प्रतीक

रूप में दिन और रात आदिम समय से ही मानव जिज्ञासा के केंद्र रहे हैं। कविताओं में रात की अभिव्यक्ति भय, आशंका और उदासी के साथ ही उम्मीद, विश्राम और शांति के रूप में हुई है। इस चयन में उन कविताओं को शामिल किया गया है; जिनमें रात के रूपक, प्रतीक और बिंब से जीवन-प्रसंगों की अभिव्यक्ति संभव हुई है।

जमला ऐसी प्रीत कर, जैसी निस अर चंद।

चंदे बिन निस सांवली, निस बिन चंदो मंद॥

प्रीति तो ऐसी करनी चाहिए कि जैसी निशा और चंद्र करते हैं। बिना चंद्र के निशा काली (मलीन) रहती है और बिना निशा के चंद्र भी कांति-हीन रहता है।

जमाल

उमड़ रहे घन सघन अति, रही रैन अँधियार।

स्याम रंग सारी दुरी, चली पीउ पैं नार॥

दौलत कवि

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