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हम चुटकुलों से ख़फ़ा हैं

आमतौर पर तो भारतीय प्रथा यह है कि ज़रूरी मुद्दों को चुटकुला बना दिया जाए। लेकिन कभी-कभी जब किसी सुहाने दिन मंद-मंद-सी बयार बह रही हो, फ़िज़ा तनिक महकी-महकी-सी होने लगे, तो सोने पर सुहागा यह कि संडे टाइप का फ़्री दिन भी निकल आए। तब, जस्ट फ़ॉर सम फ़न, एक चुटकुला ढूँढ़कर उसका राष्ट्रीय मुद्दा बना देने का मूड बन जाना लाज़मी ही कहाएगा। लेकिन अब ऐसा भी नहीं है कि हम किसी भी ऐरे-ग़ैरे-नत्थूख़ैरे चुटकुले को उठाकर उसका मुद्दा बना दें। यह भी नहीं कि कोई भी चलायमान संता-बंता, हाथी-चींटी टाइप चुटकुला खोज लाए और नाराज़ फूफा की तरह चल दिए उसका मुद्दा बनाने। अपना भी कोई क्लास है यार! एक चुटकुला इस स्तर का होना चाहिए कि कोई सुने तो उससे मुद्दे की महक आए, कि कोई सुने तो ऐसा लगे कि अगले दो संडे तक तो राष्ट्रीय चिंतन का विषय बना ही रहेगा—ताकि अपनी मेहनत बरबाद ना हो, कि कोई सुने तो ऐसा लगे कि असल मुद्दों से ध्यान भटकाने में बड़ा मददगार रहेगा।

हर बात का मुद्दा बनाने वाले विशेषज्ञ हमें यह भी बताते हैं कि एक मुद्दाशील चुटकुला प्लेन डोसा टाइप साफ़-सुथरा नहीं होना चाहिए। चुटकुले का अभद्र होना अति-आवश्यक है। लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि यह कोई कपिल शर्मा क़िस्म का जुमला भी ना हो कि जहाँ आप किसी को मोटा-पतला या हरा-नीला-काला कहकर खी-खी करते घूम रहे हों। इतनी अभद्रता की अनुमति यह देश आपको देता है (अब हम इतनी संकुचित मानसिकता के भी नहीं हैं यार)! एक सफल मुद्दा बनाने के लिए, चुटकुला कम-से-कम इतना तो अभद्र होना चाहिए कि अगर कोई आपके कान में सुनाए तो आप एक-दूसरे के मुँह-में-मुँह डाल कर जी भर कर ही-ही-ठी-ठी कर सको। लेकिन खुले तौर पर कोई अगर वही चुटकुला कह दे तो आपके भीतर बसने वाली एक सच्चे भारतीय की संवेदना ठांठे मारने लगे। सड़कों पर चलते हुए माँ-बहन की गाली देने में अथवा किसी को धर्मसूचक या जातिसूचक अपशब्द कहने से इत्तर अगर कहीं अभद्रता दिखे तो भारतीय संवेदना चोटिल होकर सड़कों पर निकल आती है।

सोशल मीडिया पर रायते की तरह फैल जाती है। अगर ‘लांग वीकेंड’ निकल आया है तो अदालतों और पुलिस स्टेशन के दरवाज़े तक भी एक-आध चक्कर लगा आती है। बलात्कार जैसे अपराधों के प्रति लगभग शून्य हो चुकी संवेदना का विलाप आपको ऐसे चुटकुलों के समय ही देखने मिलता है, जिन पर समय देने की ज़रूरत ना के बराबर होनी चाहिए।

परंतु ऐसा भी नहीं है कि लोग हर बात पर बाहर निकल कर अपनी संवेदना के चोटिल होने का मुज़ाहिरा करते हों। अब हम इतने भी मूर्ख नहीं हैं कि बिना देखे-समझे हर बात को राष्ट्रीय विषय बनाने चल दें! मुद्दा बनाने से पहले यह ध्यान रखना होता है कि जिस अभद्रता पर आपकी संवेदना अकुलाने लगी है, आख़िर उसे अंजाम देने वाला कौन है? कहीं वह कोई बड़ा नेता या बड़ी पहुँच वाला आदमी तो नहीं कि जिसके एक इशारे पर प्रशासन बीन पे नागिन की तरह थिरक उठे और आपको ऐसी जगह डंक मारे कि पुरवैया चलते ही आपको अपनी नानी स्मरण हो जाए? अगर ऐसा है तो समझदारी इसी में कहाती है कि आप ऐसी फालतू बातों के बारे में ना सोचें। किंतु फिर भी अगर आपका क्रांतिकारी क़िस्म का हृदय शांत नहीं होता है, तो उसके लिए दो में से तीन डॉक्टर यह सलाह देते हैं कि आप उस चुटकुले की कड़ी निंदा करके ही काम चलाएँ।

कड़ी निंदा होम्योपैथी की मीठी गोली की तरह होती है कि जिससे कोई फ़ायदा तो नहीं होता, लेकिन अगर मन में दृढ़ विश्वास हो तो गोली खाते ही तबीयत पहले से बेहतर लगने लगती है। इसलिए इस तरह की पहुँच वाले आदमी की टिप्पणी पर आप जी भर कर कड़ी निंदा करें। इससे पहले तो होगा यह कि आपके मन में यह भ्रम पैदा होगा कि आपके निंदा करने से समाज का सुधार हो रहा है। इससे आपके मन को शांति भी मिलेगी और चूँकि ऐसी कड़ी निंदाओं को कोई भी सीरियस्ली नहीं लेता इसलिए आपकी हड्डी-पसली-तशरीफ़ जैसी तोड़ी जा सकने वाली सभी चीज़ें सलामत रहने की गारंटी बनी रहेगी। उत्तर-आधुनिक भारतीय संस्कृति हमें यही तो सिखाती है—अगर आदमी पहुँच वाला हो तो उसके पास पैरों में गिरने के इरादे से ही जाना चाहिए। वरना तो ऐसे आदमी से दूरी ही भली होती है। यह निराशा की बात है कि अभद्रता हमारे लिए तभी तक चिंता और आक्रोश ज़ाहिर करने का विषय है, जब तक हमें पता है कि उस प्रक्रिया में हम सामने वाले पर हावी रह सकते हैं। हम संस्कृति का सहारा लेकर आहत होने का ढोंग रचते हैं। जबकि संस्कृति की चादर ओढ़ घूमने वाला व्यक्ति भीतर से स्वयं भी उतना ही नग्न और अभद्र होता है। इस तरह के चयनात्मक आक्रोश से समाज का सुधार नहीं होता वरन् पहले से ताक़तवर तत्वों को और बल मिलता है जो समाज के लिए अहितकारी है।

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