दुलारेलाल भार्गव के दोहे
इड़ा-गंग, पिंगला-जमुन, सुखमन-सरसुति-संग।
मिलत उठति बहु अरथमय, अनुपम सबद-तरंग॥
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नखत-मुकत आँगन-गगन, प्रकृति देति बिखराय।
बाल हंस चुपचाप चट, चमक-चोंच चुगि जाय॥
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हृदय कूप, मन रहँट, सुधि-माल, रस राग।
बिरह बृषभ, बरखा नयन, क्यों न सिंचै तन-बाग॥
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जग-नद में तेरी परी, देह-नाव मँझधार।
मन-मलाह जो बस करै, निहचै उतरै पार॥
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दमकति दरपन-दरप दरि, दीपसिखा-दुति देह।
वह दृढ़ इकदिसि दिपत, यह मृदु दिसनिस-नेह॥
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झीनें अंबर झलमलति, उरजनि-छबि छितराइ।
रजत-रजनि जुग चंद-दुति, अंबर तें छिति छाइ॥
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कढ़ि सर तें द्रुत दै गई, दृगनि देह-दुति चौंध।
बरसत बादर-बीच जनु, गई बीजुरी कौंध॥
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कलिजुग ही मैं मैं लखी, अति अचरज मय बात।
होत पतित-पावन पतित, छुवत पतित जब गात॥
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मुकता सुख-अँसुआ भए, भयौ ताग उर-प्यार।
बरुनि-सुई तें गूँथि दृग, देत हार उपहार॥
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लरैं नैंन, पलकैं गिरैं, चित तरपैं दिन-रात।
उठै सूल उर, प्रीति-पुर, अजब अनौखी बात॥
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झपकि रही, धीरें चलौ, करौ दूरि तें प्यार।
पीर-दब्यौ दरकै न उर, चुंबन ही के भार॥
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दुष्ट दुसासन दलमल्यौ, भीम भीमतम-भेस।
पाल्यौ प्रन, छाक्यौ रकत, बाँधे कृस्ना-केस॥
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जोबन-उपबन-खिलि अली, लली-लता मुरझाय।
ज्यों-ज्यों डूबे प्रेम-रस, त्यों-त्यों सूखति जाय॥
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अगम सिंधु जिमि सीप-उर, मुकता करत निवास।
तिमिर-तोम तिमि हृदय बसि, करि हृदयेस! प्रकास॥
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छुट्यो राज, रानी बिकी, सहत डोम-गृह दंद।
मृत सुत हू लखि प्रियहिं तें, कर माँगत हरिचंद॥
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बिरह-सिंधु उमड़्यौ इतौ, पिय-पयान-तूफ़ान।
बिथा-बीचि-अवली अली, अथिर प्रान-जलजान॥
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दरसनीय सुनि देस वह, जहें दुति-ही-दुति होइ।
हौं बारौ हेरन गयौ, बैठ्यौ निज दुति खोइ॥
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काम, दाम, आराम कौ, सुघर समनुवै होइ।
तौ सुरपुर की कलपना, कबहूँ करै न कोई॥
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तचत बिरह-रबिउर उदधि, उठत सघन दुख-मेह।
नयन-गगन उमड़त घुमड़ि, बरसत सलिल अछेह॥
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कब तें लै मन-ठीकरौ, खरौ भिखारी द्वार।
दरसन-दुति-कन दै हरौ, मति-मत-तोम अपार॥
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पुर तें पलटे पीय की, पर-तिय-प्रीतिहिं पेखि।
बिछुरन-दुख सों मिलन-सुख, दाहक भयौ बिसेखि॥
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जगि-जगि, बुझि-बुझि जगत में, जुगनू की गति होति।
कब अनंत परकास सों, जगि है जीवन-जोति॥
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नाह-नेह-नभ तें अली, टारि रोस कौ राहु।
पिय-मुख-चंद दिखाहु प्रिय, तिय-कुमुदिनि बिकसाहु॥
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बार बित्यौ लखि, बार झुकि, बार बिरह के बार।
बार-बार सोचति कितै, कीन्हीं बार लबार॥
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हिममय परबत पर परति, दिनकर-प्रभा प्रभात।
प्रकृति-परी के उर पर्यो, हेम-हार लहरात॥
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सुखद समै संगी सबै, कठिन काल कोउ नाहिं।
मधु सोहैं उपबन सुमन, नहिं निदाघ दिखराहिं॥
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ऊँच-जनम जन जे हरैं, नित नमि-नमि पर-पीर।
गिरिवर तें ढरि-ढरि धरनि, सींचत ज्यों नद-नीर॥
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हौं सखि, सीसी आतसी, कहति साँच-ही-साँच!
बिरह-आँच खाई इती, तऊ न आई आँच॥
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निठुर, नीच नादान बिरह, न छाँड़त संग छिन।
सहृदय सजनि सुजान, मीच, याहि लै जाहु किन॥
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नैंन-आतसी काँच परि छबि-रबि-कर अवदात।
झुलसायौ उर-कागदहिं, उड़्यौ साँस-सँग जात॥
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चख-झख तब दृग-सर-सरस, बूड़ि, बहुरि उतराय।
बेंदी-छटके में छटकि, अटकि जात निरुपाय॥
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दुष्ट-दनुज-दल-दलन को, धरे तीक्ष्ण तरवार।
देश-शक्ति दुर्गावती, दुर्गा कौ अवतार॥
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हौं सखि, सीसी आतसी, कहति साँच-ही-साँच।
बिरह-आँच खाई इती, तऊ न आई आँच!॥
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लंक लचाइ, नचाइ दृग, पग उँचाइ, भरि चाइ।
सिर धरि गागरि, मगन मग, नागरि नाचति जाइ॥
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लहि पिय-रबि तें हित-किरन, बिकसित रह्यौ अमंद।
आइ बीच अनरस-अवनि, किय मलीन मुख-चंद॥
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जाति-पाँत की भीति तौ, प्रीति-भवन में नाहिं।
एक एकता-छतहिं की, भिलति सब काहिं॥
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