धूप पर दोहे
धूप अपनी उज्ज्वलता और
पीलेपन में कल्पनाओं को दृश्य सौंपती है। इतना भर ही नहीं, धूप-छाँव को कवि-लेखक-मनुष्य जीवन-प्रसंगों का रूपक मानते हैं और इसलिए क़तई आश्चर्यजनक नहीं कि भाषा विभिन्न प्रयोजनों से इनका उपयोग करना जानती रही है।
नखत-मुकत आँगन-गगन, प्रकृति देति बिखराय।
बाल हंस चुपचाप चट, चमक-चोंच चुगि जाय॥
हिममय परबत पर परति, दिनकर-प्रभा प्रभात।
प्रकृति-परी के उर पर्यो, हेम-हार लहरात॥